साथ रहने वाले लोग शत्रु क्यों बन जाते हैं ? 

जब दो लोग मिलते हैं और उनमें एक समान उद्देश्य को लेकर सहमति बन जाती है तो दो प्रकार की स्थिति बनती है। यदि यह शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक आकर्षण है और वे साथ रहने के लिए राज़ी हैं तो यह समर्पण हो सकता है या एक समझौता। दोनों में कोई बुराई नहीं है बशर्ते कि जिन बातों, नियमों, वायदों और साथ रहने या काम करने की इच्छा को साकार रूप देने के लिये वे एक साथ आये हैं, उसका ईमानदारी से पालन हो। महत्वपूर्ण यह है कि सब कुछ ठीक होते हुए भी उनमें अलगाव से लेकर दुश्मनी तक क्यों हो जाती है और वे एक-दूसरे को समाप्त करने की हद तक क्यों चले जाते हैं, इसका विश्लेषण ज़रूरी है?
लक्ष्य का पूरा हो जाना
इसे एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए कि दो व्यक्ति, चाहे पुरुष हों या महिला, मिलकर एक दूसरे की रुचि समझकर और कुछ करने के जज़्बे के साथ कोई व्यापार या उद्यम शुरू करते हैं और निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने के लिए एक कार्य योजना बनाते हैं। एक दिन ऐसा आता है जब वे अपनी मंज़िल तक पहुंच जाते हैं और यह तय करने के लिये सोच विचार करते हैं कि अब आगे क्या करना है, इसी तरह काम करते रहना है या अपने अलग रास्ते बनाकर आगे बढ़ना है।
दोनों ही हालात एक जैसे हैं लेकिन उनके परिणाम बहुत अलग हो सकते हैं। पहली स्थिति में लड़का जीवन भर साथ रहने की बात कर सकता है जो असल में एक तरह का भ्रम है। अब लड़का उससे शादी भी कर ले तो निभाएगा नहीं, दूसरी स्त्रियों पर डोरे डालेगा और यदि वह लड़की झगड़ा करती है तो वह उसे अपने रास्ते से हटाने के लिये कोई भी कदम उठाने से नहीं चूकेगा, चाहे यह उसे पागल सिद्ध करने से लेकर हत्या करना तक हो।
एक और स्थिति भी देखने में आती है। लड़का और लड़की एक दूसरे के संपर्क में आते हैं, साथ रहने का निर्णय करते हैं और मन में या बातचीत कर यह तय करते हैं कि यदि ऐसी स्थिति हो जाये कि साथ रहना संभव न हो तो अलग हो सकते हैं। ये लोग अधिकतर विवाह नहीं करते लेकिन हो सकता है जीवन भर साथ रहें। कुछ समय बाद अलग भी हो गये तो कुंवारा या कुंवारी होने के स्टेटस के साथ फिर से किसी नये साथी की तलाश कर लेते हैं और यह सिलसिला जीवन भर चल सकता है। इसमें जितने भी पक्ष हैं, वे आहत नहीं होते, सहज भाव से यह बदलाव स्वीकार कर लेते हैं और अपनी ज़िदगी अपने तरीके से जीने लगते हैं।
उनमें ऐसी भावना ही नहीं होती कि यदि अपना लक्ष्य पूरा हो गया है तो एक-दूसरे के शत्रु हो जायें, आपस में नुकसान पहुंचाने से लेकर खत्म करने तक की बात सोचें, यदि अब आगे नहीं निभा पा रहे तो आराम से अलग हो जाते हैं।
यही स्थिति दो व्यक्तियों द्वारा विवाह करने के बाद भी उत्पन्न हो सकती है। उनका लक्ष्य विवाह कर जीवन भर साथ रहने का था। यदि यह नहीं होता तो शादी ही नहीं करते, वैसे ही साथ रहते आते। यहां उदेश्य यह भी था कि एक परिवार की तरह रहा जाये, बच्चे हों तो उन्हें बड़े होते हुए देखा जाये और उम्र के विभिन्न पड़ाव तय होने पर एक कुटुंब के अधिपति होने की गरिमा के साथ जीवन व्यतीत किया जाये। यदि किसी मुकाम पर अनबन हो, विचारों में टकराव हो और हालात ऐसे हो जायें कि साथ निभाना मुश्किल हो जाये तो आपसी सहमति से और कानून की प्रक्रिया का पालन करते हुए अलग भी हुआ जा सकता है तथा यह सोचकर कि अब तक जो हुआ, अच्छा ही हुआ, जो होगा वह भी भले के लिए ही होगा, जीवन में कड़वाहट को जगह नहीं मिलती और सामान्य तरीके से जीवन के चलते रहने में कोई रुकावट नहीं आती।
व्यावहारिक होना
अब हम दूसरे उदाहरण पर आते हैं जिसमें दो लोग इसलिए साथ आते हैं कि मिलकर बिजनेस या उद्योग स्थापित करें। इनके लिए ज़रूरी था कि पहले से ही सभी नियम कायदे, एग्रीमेंट आदि पर सभी तथ्यों का ध्यान रखते हुए इस हकीकत को मानते हुए कि, ‘मैंने कही तूने मानी, बाबा कह गये दोनों ज्ञानी’, के अनुसार जब संबंधों की शुरुआत करेंगे तो उस स्थिति में मन को कोई चोट नहीं पहुंचेगी जब दोनों अपना लक्ष्य पूरा होने के बाद अलग होने या न होने का फैसला करेंगे। अलग हुए तो भी सम्मान के साथ और नहीं हुए तो अगला लक्ष्य निर्धारित करने और उसे पूरा करने की प्रक्रिया में जुट गये।
इसका महत्व इसलिए है कि यदि लक्ष्य तय न हो और शुरू में ही संबंधों की सीमा और अहमियत निश्चित न हो तो लोभ, लालच, धोखा करने की नीयत और दुराव, छिपाव करने की मानवीय कमज़ोरी हावी होने लगती है। ऐसे लोग ज्यादा समय तक साथ नहीं रह पाते। इसका कारण यही है कि चाहे भावनात्मक रिश्ते हों या व्यापारिक, दोनों में स्पष्टता न होने से उनमें बिखराव आना तय है और यह ज्यादातर टिक नहीं पाते। इसलिए आवश्यक है कि चाहे प्रेम संबंध हों, विवाह का बंधन हो या व्यापार करने के लिए साथ आये हों, लक्ष्य या उदेश्य अथवा ध्येय का शुरू से खुलासा कर लेना ही बेहतर होता है।
ऐसा होने और सब कुछ तय होने पर भी यदि साथी धोखा देता है, फरेब करता है तो उससे दु:ख तो होता है लेकिन उससे उबरने में अधिक समय नहीं लगता। आपने देखा सुना होगा, अनुभव भी किया हो सकता है कि जब ऐसी अनचाही स्थिति हो जाती है तो व्यक्ति कोई भी कदम उठाने के लिए तत्पर हो जाता है। कठिन स्थितियों में तो लोग विक्षिप्त हो जाते हैं, बदहवासी की हालत में आत्महत्या कर लेते हैं। हो सकता है कि इस हालत में हत्या जैसा जघन्य अपराध भी कर लें और त्रासदी भरा जीवन जीने को मजबूर हो जायें।
हमें यह मानकर चलना होगा कि संबंध और कुछ नहीं हैं, सिवाय इसके कि दो अलग व्यक्तित्व के मालिक आपस में मिलते हैं। संभावना यह होती है कि वे किसी बिंदु पर एकमत या सहमत हैं तो एक-दूसरे के साथ एक समान लक्ष्य की पूर्ति के लिए आपस में जुड़ सकते हैं। यह तय है कि यदि वे एक दूसरे के प्रति सहनशील नहीं हैं, अपनी ही बात को मनवाने पर अड़े रहते हैं तो उनमें संघर्ष होना निश्चित है जिसका अंत संबंध विच्छेद के अतिरिक्ति और कुछ नहीं हो सकता।
इसी के साथ यह भी एक तथ्य है किसी भी रिश्ते में तनाव आ सकता है और यह तब होता है जब एक दूसरे की समस्या जाने और समझने की कोशिश किए बिना हम कोई ऐसा कदम उठा लेते हैं जिससे पीछे नहीं हटा जा सकता। सबसे अधिक तकलीफ  ऐसी ही हालत में होती है। इसलिए जब भी कोई संबंध बनायें उसमें दूसरे पर नियंत्रण रखने की भावना, अपना मतलब साधने और आलोचना न सुनने की आदत, आपस में संवाद न करने और अपने साथी से ज़रूरत से ज्यादा उम्मीद लगा लेने की प्रवृति को अपने से दूर रखना होगा। तब ही मधुर, स्थायी और विश्वसनीय संबंध बन सकते हैं।
आज विज्ञान तकनीक और संवाद तथा संचार साधनों की बहुत अधिक तादाद ने जीवन को आसान किया है तो बोझिल भी बना दिया है। यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कोई रिश्ता कैसे बनेगा, कितनी देर तक टिकेगा और उसका अंत दु:खद होगा या सुखद। जो भी हो आपसी समझदारी से ही किसी भी स्थिति को आनंददायक बनाए रखा जा सकता है वरना दुखदायी बनने में वक्त नहीं लगता।