मैं गद्दार तो नहीं हूं! (क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

यह कह कर मौलवी साहिब अपने कंधे पर रखे परने को लेकर दूसरे कमरे की ओर चले गये। घर के मर्द भी इधर-उधर को हो गये, तो ख़्वातीन रिश्तेदार उसे एक दायरे में रख कर इत्र-फूल की ़खुशबुओं से सराबोर और फूलों-कलियों से सजे एक बड़े कमरे तक ले आईं। यह कमरा गोया इसी एक म़कसद के लिए इस्तेमाल किया जाता है। थोड़ी देर बाद वहां फहीम यार खां भी आ गया था। उसके साथ और जो दो-चार मर्द थे, वो उसे बाहर छोड़ कर चले गये। 
बेशक उसका यह पहला निकाह नहीं था, परन्तु वह औरत तो थी न...लाज-शर्म हर औरत की आंखों से आंसू बन कर उतरती है। वह घुटनों को ऊपर करके उन पर ठुड्डी टिका कर बैठी थी। बाहर कदमों की आवाज़ से उसने अन्दाज़ा लगा लिया था कि और लोग चले गये हैं। ़फहीम यार खां ने अन्दर आते ही दरवाज़े को बंद करके उसकी चिटखनी चढ़ा दी थी। उसने बड़े अदब-ओ-आदाब के साथ, उसकी जानिव से अदा की गई सलाम को कुबूल करते हुए वालेकुम कहा था, और फिर आहिस्ता से अपने कमरे की रौशनी को मद्धिम कर दिया था।
वह थोड़ा और सिकुड़ गई थी। ़फहीम यार खां ने अपनी अचकन में से छोटा-सा किन्तु बेहद सुन्दर दिखता पिस्तौल निकाल कर सिरहाने वाली आल्मारी में रखा, और फिर बड़े  इत्मिनान के साथ कमरे की सामने वाली दीवार से सटे आरामदेय सोफे पर बैठ गया था। आयशा भी चुपचाप उठ कर उसकी दाईं जानिब जाकर बैठ गई थी। जिस तरह से ़फहीम यार खां तसल्ली के साथ नकल-ओ-हरकत कर रहा था, उससे पता चलता था, कि वह कुछ और दिन इस घर की मेहमान-नवाज़ी का लुत़्फ उठाना चाहता है।
़फहीम यार खां रात बड़ी देर तक खास तौर पर उसके लिए लाई गई विदेशी शराब पीता रहा और एक ही रात में अपने तमाम तोह़फों की पूरी कीमत वसूल कर लेने की हरचन्द कोशिश भी करता रहा। उस एक रात में कई बार उसके मन में यह एक ़खौफनाक ख़्याल कई बार आया, कि कपड़े उतारने के बहाने वह पलंग के सिरहाने वाली आल्मारी में पड़े फहीम के पिस्तौल को उठाये, और फिर ताबड़तोड़ गोलियां उसके जिस्म में उतार दे। इसके बाद वह खुद को भी गोली मार कर अपनी कुर्बानी दे दे। इसके बाद तो शायद इस घर की औरतों की होनी बदल जाए, किन्तु यह भी शायद उसकी किस्मत में नहीं बदा था, क्योंकि बार-बार ऐसा सोचने के बावजूद, न उसके हाथ उसका साथ दे पा रहे थे, न उसका दिमाग ही काम कर रहा था। 
इस बीच बाहर कुछ फुसफुसाहट जैसी भाग-दौड़, और हल्के कदमों की आवाज़ सुनाई दी थी। कुछ तेज़ चलते, भारी-भरकम बूटों का शोर भी कानों में पड़ा था। वह अपने घर के आंगन, दालानों और कमरों के भीतर-बाहर से उठती आवाज़ों को पहचानती थी। ये आवाज़ें पराई जैसी लगी थीं। इस घर की चार दीवारी के भीतर की ़खामोशी और सन्नाटे से ब़ेखबर उसके कान, इस नई नकल-ओ-हरकत से बेखबर नहीं रह सकते थे। उसके कान जैसे अपने आप खड़े होने लगे थे, उसकी कोशिश रंग ला रही थी...उसका ़खत अपना असर कर गया था शायद। बाहर कुछ एक्शन हुआ लगा था। अब उसे भारी-भरकम बूटों और तेज़-चाल कदमों की आवाज़ साफ-साफ सुनाई दी थी। वह कुछ-कुछ समझने लगी थी, और उसे अब क्या करना है, इस बारे में भी उसने सोचना शुरू कर दिया था। तभी ़फहीम यार खां के कान भी खड़े हुए थे शायद।
परन्तु इससे पेशतर कि ़फहीम यार खां कुछ सोच पाता, फौजी लिबास में, बेहतर और आला किस्म के हथियारों से लैस चार-पांच तेज़-तर्रार, लम्बे कद के नौजवान कमरे में प्रवेश कर, चारों कोनों पर बन्दूकें ताने आ खड़े हुए। उनमें से हमारे पलंग के पास खड़े एक जवान ने ़फहीम यार खां की ओर अपनी बंदूक का मुंह मोड़ कर बड़ी सधी हुई आवाज़ में जैसे हुक्म दिया था—
‘सिट डाउन...। हैंड्स एट नैक एंड डांट मूव।’
तभी फौजी लिबास में सजी-धजी एक ़खातून अफसर ने भीतर प्रवेश किया। उन्होंने एक फौरी नज़र से कमरे का मुआयना किया और फिर उसकी ओर देखा। उसकी नज़रें झुकी हुई थीं। उसके चेहरे का रंग ज़र्द पड़ गया था, किन्तु ़खातून अफसर ने भी जैसे एक ही नज़र में सब कुछ जान लिया था। तभी तो उन्होंने अपने हाथ में पकड़ी फौजी शान को जताती छड़ी से इशारा करते हुए, उसे कमरे में पड़ी कुर्सी पर बैठ जाने के लिए कहा था। उसने भी नज़र उठा कर बस एक ही बार में जान लिया था कि यह वही अफसर है जिन्हें उसने सवेरे कच्चे बादाम पर लपेटा गया ़खत फैंक कर एक ही नज़र देखा था... वही कद-काठी, वही दपदपाता चेहरा, सिर पर वही टोपी... और वही रौब-दाब जो सवेरे उनकी जीप के रुकने पर दिखा था।  (क्रमश:)