डराने लगे हैं छात्र आत्महत्या के आंकड़े

देश के प्रमुख कोचिंग हब बने राजस्थान के कोटा में तो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी को लेकर अत्यधिक मानसिक दबाव के कारण जब-तब छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं सामने आती ही रहती हैं, पिछले कुछ महीनों में आईआईटी जैसे भारत के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग संस्थानों और कुछ अन्य प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थानों में भी छात्रों द्वारा आत्महत्या करने के मामले समाज को झकझोरने लगे हैं। हाल ही में सीबीएसई का 12वीं कक्षा का परीक्षा परिणाम आने पर केवल दिल्ली में ही तीन छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की खबर भी बेहद दुखद और स्तब्ध करने वाली है। पहले मामले में दिल्ली के अमन विहार थाना क्षेत्र में 12वीं की छात्रा ने दो विषयों में अनुत्तीर्ण होने के बाद नाले में कूदकर जान दे दी, जिसका शव 14 मई को नाले में आधा डूबा हुआ मिला। दूसरे मामले में ओखला क्षेत्र के छात्र पिंटू कुमार ने परीक्षा में एक विषय में फेल होने के बाद फांसी का फंदा लगाकर आत्महत्या कर ली। तीसरे मामले में हरिनगर इलाके की 16 वर्षीय छात्रा ने मेहनत के अनुरूप अंक नहीं मिलने पर आत्महत्या कर ली। उसे 75 प्रतिशत अंक मिले थे, लेकिन वह अपने परीक्षा परिणाम से संतुष्ट नहीं थी।
ये तो केवल तीन ऐसे मामले हैं, जो देश की राजधानी से मीडिया की सुर्खियों में आए हैं लेकिन ऐसे न जाने कितने ही मामले देश के दूरदराज के इलाकों में घटित होते रहते हैं, किन्तु वे मीडिया की सुर्खियां नहीं बन पाने के कारण लोगों की नज़रों में नहीं आ पाते। कुछ मामलों में परीक्षाओं के दौरान प्रश्नपत्र सही से हल नहीं कर पाने और कई बार परीक्षा की समुचित तैयारी नहीं होने पर भी छात्र हताश होकर जान देने लगे हैं। 10वीं या 12वीं कक्षा के परीक्षा परिणाम हों या फिर मैडीकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाएं, ऐसी परीक्षाओं में सफल नहीं होने के कारण कुछ छात्र अब आत्महत्या जैसा हृदयविदारक कदम उठाने लगे हैं। पिछले कुछ वर्षों से ऐसी दुखद घटनाएं लगातार बड़ रही हैं। युवाओं में आत्महत्या की यह बढ़ती प्रवृत्ति अब सरकार के साथ-साथ समाज को भी गंभीर चिंतन-मनन के लिए विवश करने हेतु पर्याप्त है। छात्रों की आत्महत्या के आंकड़ों पर नज़र डालें तो बहुत चिंताजनक तस्वीर उभरकर सामने आती है। राज्यसभा में दी गई जानकारी के अनुसार 2018 से 2023 के बीच पांच वर्षों की अवधि में आईआईटीए एनआईटीए आईआईएम जैसे देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में ही 61 छात्रों ने आत्महत्या की, जिनमें 33 छात्र आईआईटी के थे। 
देश के युवा वर्ग और खासकर 18 वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती यह प्रवृत्ति बेहद चिंताजनक है। शिक्षा तथा कैरियर में गलाकाट प्रतिस्पर्धा और माता-पिता तथा शिक्षकों की बढ़ती अपेक्षाओं के चलते छात्रों पर पड़ाई का बढ़ता अनावश्यक दबाव इसका सबसे बड़ा कारण है, जिसने छात्रों के समक्ष विकट स्थिति पैदा कर दी है। कई बच्चे इस दबाव को झेल नहीं पाते, जिसके चलते उनमें अवसाद पनपता है। कई अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि परीक्षाएं नज़दीक आने के साथ ही छात्रों में चिंता और अवसाद बढ़ने लगता है और कुछ मामलों में यही बढ़ता अवसाद उनके आत्महत्या करने का कारण बन जाता है। इंजीनियरिंग और मैडीकल कॉलेजों में तो सीटें बहुत होने के कारण अब बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धा होने लगी है, वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे शिक्षण संस्थानों में सामान्य स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए भी अब जबरदस्त मारामारी होने लगी है। ऐसे में छात्र अपनी शिक्षा और भविष्य को लेकर गहरे असमंजस में रहते हैं। किसी को कैरियर या नौकरी की चिंता है तो कोई पारिवारिक वित्तीय संकट से जूझ रहा है। परीक्षा में अपेक्षा से कम अथवा रैंक मिलने पर कुछ बच्चे आत्महत्या का मार्ग चुन लेते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अंकों की दौड़ में पिछड़ जाने के कारण उनका भविष्य अंधकारमय हो गया है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े देखें तो जहां 2020 में देशभर में कुल 12526 छात्रों ने आत्महत्या की, वहीं 2021 में यह आंकड़ा बढ़कर 13089 हो गया। आत्महत्या करने वाले इन छात्रों में 56.54 प्रतिशत लड़के और 43.49 प्रतिशत लड़कियां थी। 18 साल से कम आयु के 10732 किशोरों में से 864 छात्रों ने तो परीक्षा में विफलता के कारण मौत को गले लगा लिया। 2021 के एनसीआरबी के आंकड़ों से स्पष्ट है कि मृतक छात्रों का प्रतिदिन का औसत 35 था, जो समाज को झकझोरने के लिए पर्याप्त है। एनसीआरबी के मुताबिक आत्महत्या करने वाले छात्रों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। 1995 में कुल आत्महत्याओं में छात्रों की संख्या 7 प्रतिशत से भी कम थी लेकिन 2020 और 2021 में यह बढ़कर 8 प्रतिशत से भी ज्यादा हो गई। यही नहीं, 2011 की तुलना में जहां कुल आत्महत्याएं करीब 21 प्रतिशत बड़ी, वहीं छात्र आत्महत्याओं की घटनाओं में करीब 70 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। निश्चित रूप से ये आंकड़े काफी डराने वाले हैं। एनसीआरबी के मुताबिक 2011 में प्रतिदिन औसतन 21 छात्रों ने आत्महत्या की, जो 2021 में बढ़कर 35 हो गई यानी हर दो घंटे में तीन छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। वैसे आत्महत्या की यह समस्या अब केवल छात्रों तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश में आत्महत्या के मामलों में जिस प्रकार साल दर साल उछाल आ रहा है, वह समूचे समाज के लिए गम्भीर चिंता का कारण बन रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया में हर 40 सैकेंड में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है यानी प्रतिवर्ष दुनियाभर में करीब आठ लाख लोग आत्महत्या के जरिये अपनी जीवनलीला खत्म कर डालते हैं, जिनमें से बड़ी संख्या में आत्महत्या के मामले 15 से 29 वर्ष के लोगों में होते हैं जबकि आत्महत्या का प्रयास करने वालों का आंकड़ा इससे बहुत ज्यादा है।
डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में 79 प्रतिशत आत्महत्या निम्न और मध्यवर्ग वाले देशों के लोग करते हैं और इसमें बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की होती है, जिनके कंधों पर किसी भी देश का भविष्य टिका होता है। बीते वर्षों में दुनियाभर में आत्महत्या की घटनाएं तेज़ी से बड़ी हैं लेकिन भारत में आत्महत्याओं का आंकड़ा तो काफी चिंताजनक है। मनोचिकित्सकों के अनुसार आत्महत्या करना काफी गंभीर समस्या है और आत्महत्या करने के पीछे अधिकांशत: अवसाद को ही जिम्मेदार ठराया जाता है, जो ऐसे करीब 90 प्रतिशत मामलों का प्रमुख कारण है लेकिन सभी आत्महत्याओं के लिए अवसाद को ही पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उनके मुताबिक आत्महत्या करने का विचार किसी इंसान के अंदर तब पनपता है, जब वह किसी मुश्किल से बाहर नहीं निकल पाता।
जहां तक छात्रों की बात है तो छात्रों के बढ़ते आत्महत्या के मामलों के लिए कहीं न कहीं अभिभावक भी दोषी हैं। दरअसल अधिकांश मामलों में देखने को मिलता है कि ज्यादातर माता-पिता या अभिभावक अपने बच्चों की क्षमता और अभिरूचि को सही ढ़ंग से नहीं समझ पाते और उनसे ज़रूरत से ज्यादा अपेक्षाएं रखते हुए परीक्षा के समय भी उनकी मनोदशा से अनभिज्ञ रहते हैं। कई मामलों में ऐसे छात्र ज़रूरत से ज्यादा मानसिक दबाव के कारण गलत कदम उठा बैठते हैं। ऐसे मामलों में छात्रों को मानसिक दबाव से बाहर निकालने में सबसे बड़ी भूमिका अभिभावकों, करीबी लोगों और शिक्षकों की ही हो सकती है, जो उन्हें सहानुभूतिपूर्वक समझाएं कि किसी भी असफलता से उनके जीवन का निर्धारण नहीं होता और हमारा यह जीवन एकमात्र ऐसी चीज है, जिसे हम दोबारा नहीं पा सकते। छात्रों में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता लाकर आत्महत्या जैसे मामलों को कम किया जा सकता है। किसी भी युवा के मन में आत्महत्या का विचार आए ही नहीं, ऐसा वातावरण तैयार करना परिवार के साथ-साथ समाज की भी बड़ी जिम्मेदारी है।

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