राजनीतिज्ञों का हथियार बन गया है-सोशल मीडिया

इंटरनैट और सोशल मीडिया ने ज़िंदगी के हर क्षेत्र को बदल कर रख दिया है। राजनीति पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा है। पिछले कुछ दशकों में विश्व स्तर पर हुए राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संघर्षों को मज़बूत करने और उनको एक तरह से लोक लहर का रूप देने में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सोशल मीडिया की ताकत इस बात से देखी जा सकती है कि इस समय विश्व के 3 अरब, 80 करोड़ लोग इसका उपयोग करते हैं। यदि भारत की बात करें तो 2023 की एक रिपोर्ट अनुसार देश की 60.72 प्रतिशत जनसंख्या सोशल मीडिया का प्रयोग कर रही है। जैसे-जैसे लोगों में शिक्षा का प्रसार हो रहा है, वैसे-वैसे सोशल मीडिया का अलग-अलग क्षेत्रों में इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है परन्तु इस लेख में हम सोशल मीडिया के राजनीतिक और सामाजिक अंदोलनों के क्षेत्र में हो रहे प्रयोग की ही चर्चा करेंगे।
भारत की राजनीति पर इसके प्रभाव का जायज़ा लेने से पहले हम यह देखने की कोशिश करेंगे कि विश्व की राजनीति को इसने किस हद तक प्रभावित किया है? इस संदर्भ में 2008 में हुए अमरीका के राष्ट्रपति के चुनाव का ज़िक्र करना बनता है। इस चुनाव में डैमोक्रेटिक पार्टी की ओर से बराक ओबामा राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे, उन्होंने अपने चुनाव के लिए फेसबुक तथा ट्विटर का बहुत उपयोग किया था, चाहे कि ट्विटर अभी एक वर्ष पहले ही अस्तित्व में आया था परन्तु अभी आई फोन भी नहीं आया था। इसके बावजूद उन्होंने फेसबुक, ट्विटर और अन्य मीडिया प्लेटफार्मों का अपनी चुनाव मुहिम के लिए खूब प्रयोग किया और इसका उनको लाभ भी मिला। अपने 2012 के दूसरे चुनाव में उनके द्वारा सोशल मीडिया का और भी ज्यादा खुलकर उपयोग किया गया। उस समय अमरीका के 69 प्रतिशत लोक सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफार्मों से जुड़ चुके थे। 2012 में फेसबुक पर बराक ओबामा को पसंद करने वाले 32.2 मिलियन लोग थे और ट्विटर पर उनके 22.7 मिलियन फालोअज़र् थे। इस प्रकार सोशल मीडिया  पर उनकी पकड़ होने से उनको चुनाव जीतने में दोबारा सफलता मिली 2010-11 में अरब देशों में वहां के तानाशाह शासकों के खिलाफ सार्वजनिक आंदोलन शुरू हुए। इन आंदोलनों को ‘अरब स्प्रिंग’ के नाम से जाना गया था। इन आंदोलनों में भी फेसबुक और ट्विटर आदि सोशल प्लेटफार्मों ने बड़ी भूमिका अदा की, जिसके परिणामस्वरूप ट्यूनीशिया पर लम्बे समय तक शासन करने वाले राष्ट्रपति जाईन अल-ऐबीडाइन बिन अली को अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी। इसी प्रकार 30 वर्ष से मिस्र के राष्ट्रपति चले आ रहे हुसनी मुबारक को भी अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी। उनके विरुद्ध मिस्र में हुए आंदोलन में भी फेसबुक प्लेटफार्म का अहम रोल रहा।
फिलीपीन्स के राष्ट्रपति जोस़ेफ इस्ट्राडा को भी 2021 में सोशल मीडिया पर उनके विरुद्ध चली मुहिम के कारण अपना पद छोड़ना पड़ा। पहले उनके खिलाफ भ्रटाचार के आरोपों अधीन आंदोलन शुरू हुआ था। लेकिन ़िफलीपीन्स कांगे्रस में इस संबंधी चर्चा के दौरान उनके समर्थक सांसदों ने इस पक्ष में मत दिए कि उनके खिलाफ मौजूद भ्रष्टाचार के आरोपों को एक ओर छोड़कर उनको सत्ता में बने रहने दिया जाए, परन्तु इससे दो घंटे के बाद मनीला में बड़ी संख्या में लोग उनके खिलाफ सड़कों पर आने शुरू हो गये और लोगों तक जोस़ेफ इस्ट्राडा का विरोध करने के लिए संदेश पहुंचाने में सोशल मीडिया का बड़ा महत्व रहा था और इसके परिणामस्वरूप इस्ट्राडा को अपना पद छोड़ना पड़ा।
यदि भारत की राजनीति की बात करें, तो इसमें भी सोशल मीडिया का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उस समय भारतीय जनता पार्टी द्वारा श्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे। उनकी चुनाव मुहिम की योजनाबंदी सोशल मीडिया का प्रयोग करने में माहिर प्रशांत किशोर द्वारा की जा रही थी। प्रशांत किशोर और उनके साथियों ने सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का उपयोग करके भाजपा और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार श्री नरेन्द्र मोदी को बहुत लाभ पहुंचाया। कांग्रेस और अन्य पार्टियां उस समय श्री नरेन्द्र मोदी की सोशल मीडिया पर चली प्रचार मुहिम का मुकाबला करने में नाकाम रहीं। इसके बाद देश की सब राजनीतिक पार्टियां अपना-अपना आई.टी. सैल बनाने की तरफ रुचि लेने लगी और 2014 के बाद देश में हुए सभी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में फेसबुक, यू-ट्यूब, ट्विटर और वहाट्सएप आदि मीडिया प्लेटफार्मों का बहुत प्रयोग होता रहा।
यदि पिछले कुछ दशकों में देश में चले राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों की बात करें तो उनमें सोशल मीडिया का प्रयोग 2011 से ही शुरू हो गया था। इस प्रसंग में अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में दिल्ली में हुए भ्रटाचार विरोधी आंदोलन को देखा जा सकता है। इस आंदोलन के साथ अरविंद केजरीवाल, कुमार विश्वास, जोगिन्दर यादव, किरन बेदी और अन्य बहुत सी महत्वपूर्ण शख्सियतें और पढ़े लिखे नौजवान जुड़े थे और इन नौजवानों द्वारा इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का विस्तार करने के लिए सोशल मीडिया का बहुत उपयोग किया गया था।
16 दिसम्बर, 2012 को दिल्ली में एक छात्रा (जिसको निर्भया का नाम दिया गया था) का बस में 9 लोगों द्वारा बहुत बेरहमी के साथ दुष्कर्म किया गया, इसके विरोध में दिल्ली में जोरदार आंदोलन हुआ, जिसको ‘निर्भया मूवमैंट’ के तौर पर जाना जाता है। नौजवानों ने इस आंदोलन का सोशल मीडिया का प्रयोग करके नेतृत्व किया था और उस समय की कांग्रेस पार्टी की डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को इस आंदोलन ने एक तरह से हिला कर रख दिया था। इस आंदोलन के साथ भी भारत में सोशल मीडिया की ताकत का सबको अहसास हुआ था। 
तेलंगाना नाम का अलग प्रदेश बनाने की चली लहर में भी सोशल मीडिया की काफी बड़ा भूमिका रही। परन्तु इसकी बड़ी मिसाल 2020-21 में दिल्ली की सीमा पर हुए ऐतिहासिक किसान आंदोलन के रूप में देखी जा सकती है। मोदी सरकार द्वारा बनाए तीन कृषि कानूनों को वापिस लेने की मांग को लेकर देश के तीन दर्जन से ज्यादा किसान संगठनों ने दिल्ली की सीमा पर अनिश्चितकालीन धरने शुरू कर दिए थे। इस किसान आंदोलन की देश-विदेश के नौजवान वर्ग और बहुत से सामाजिक संगठनों ने डटकर मदद की थी। संयुक्त किसान मोर्चे द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफार्मों- फेसबुक, यू-ट्यूब और ट्विटर पर अपने खाते बनाए गये और उन खातों द्वारा हर दिन किसान आंदोलन संबंधी पूरी-पूरी जानकारी दी जाती थी। इस किसान आंदोलन को फैलाने और सफल बनाने में सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा रहा।
यदि देश की वर्तमान राजनीति का बात करें तो इस समय लगभग देश की सभी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियां सोशल मीडिया का बड़े स्तर पर प्रयोग कर रही हैं और उन्होंने अपने-अपने आई.टी. सैल बनाए हुए हैं। खासतौर पर भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का बहुत प्रयोग कर रही हैं, परन्तु राजनीति के क्षेत्र में सोशल मीडिया का सार्थक और उचित प्रयोग ही नहीं हो रहा, बल्कि इसका खुलकर दुरुपयोग भी हो रहा है। अलग-अलग राजनीतिक पार्टियां खासतौर पर सत्तारूढ़ पार्टियां सोशल मीडिया द्वारा अपने विरोधियों को बदनाम करने के लिए गलत खबरें, गलत वीडियो और गलत किस्म की अन्य सामग्री भी डालती हैं और इस प्रकार की सामग्री का वास्तविकता और तथ्यों के साथ ज्यादातर कोई संबंध नहीं होता। राजनीतिक पार्टियों और अन्य संगठनों द्वारा अपने विरोधियों के खिलाफ ऩफरत पैदा करने के लिए भी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों की दुरुपयोग किया जाता है। इससे कई बार हिंसा होने तक की नौबत आ जाती है। आजकल अक्सर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के नेताओं के बीच ट्विटर पर जंग जैसी स्थिति बनी रहती है। इन पार्टी के नेताओं के द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ ट्विटर पर ट्वीट किए जाते हैं, जिनसे बड़े स्तर पर विवाद पैदा होते हैं। पंजाब में आम आदमी पार्टी की भगवंत मान के नेतृत्व में सरकार चल रही है। मुख्यमंत्री द्वारा भी अकसर ही अपने विरोधियों के खिलाफ ट्विटर पर ट्वीट किए जाते हैं, जोकि कई बार हलकी शब्दावली वाले होते हैं। इनके पंजाब के विरोधी पार्टियों के नेताओं प्रताप सिंह बाजवा, सुखपाल सिंह खैहरा, बिक्रमजीत सिंह मजीठिया, नवजोत सिंह सिद्धू आदि द्वारा भी तुरंत और तीखे जवाब दिए जाते हैं। इसके अलावा पंजाब में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने चंडीगढ़ में भी एक बड़ा आई.टी. सैल बनाया हुआ है, जो सरकार की प्राप्तियां बताने के साथ-साथ विरोधी पार्टियों के खिलाफ लगातार प्रचार करने में लगा रहता है। इसी कारण सोशल मीडिया का प्रयोग करने वाले ज्यादातर आज़ाद और निष्पक्ष पत्रकार, बुद्धिजीवी और लेखक अब यह महसूस करने लगे है कि सोशल मीडिया आम लोगों के लिए विचार प्रकट करने का एक स्वतंत्र मंच नहीं रहा, बल्कि इस पर अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के आई.टी. सैल भारी हो गये हैं और जब भी इन राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ आज़ाद और निष्पक्ष विचार रखने वाले लोगों द्वारा कोई पोस्ट डाली जाती है तो अलग-अलग पार्टियों के आई.टी. सैलों में काम करते लोग अपनी-अपनी आई.डी. से या कई बार जाली बनाई गई आई.डीज़ से पोस्टें डालकर आज़ाद और निष्पक्ष आलोचना करने वालों को निरुत्साहित करने की कोशिश करते हैं। सोशल मीडिया का एक पक्ष यह भी है कि केन्द्र से लेकर राज्य सरकारें सोशल मीडिया पर अपने विभागों द्वारा सख्त नज़र रखती हैं और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के प्रबंधकों पर दबाव डालकर सरकार विरोधी पोस्टें प्लेटफार्मों से डिलीट करवा देती हैं। सरकारों द्वारा अपने आलोचकों को पुलिस और अन्य सरकारी एजेंसियों द्वारा भी निशाना बनाया जाता है। यह तो सरकारों का फज़र् बनता है कि वह समाज विरोधी और ऩफरत पैदा करने वाली पोस्टें या सामग्री तो ज़रूर डिलीट करवाएं परन्तु तथ्यों और सबूतों के आधार पर डाली गई पोस्टों को डिलीट करवाना मीडिया की आज़ादी को सीमित करने वाला कदम ही माना जाएगा।
इस सब कुछ के बावजूद ऐसे समय में सोशल मीडिया एक बहुत बड़ी ताकत के तौर पर उभर रहा है। आने वाले समय में इस ताकत के और अधिक बढ़ने की संभावना है, परन्तु यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो गया है कि सोशल मीडिया पर अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के आई.टी. सैलों और सरकारों द्वारा किए जाते गलत और गुमराहपूर्ण प्रचार को किस तरह नियमित किया जाए और उनसे सोशल मीडिया पर विचार प्रगट करने की आज़ादी को भी कैसे बचाकर रखा जाए?


(नोट : विश्व की राजनीति पर सोशल मीडिया के पड़ रहे प्रभाव संबंधी सुरजीत कौर और मनप्रीत कौर द्वारा एक खोज पत्र भी लिखा गया है। इस लेख में इस खोज़ पत्र के कुछ विवरणों से भी सहायता ली गई है)