इसरो-नासा सहयोग : संभावनाएं भी और आशंकाएं भी

नासा की स्पेस पॉलिसी एंड पार्टनरिशप्स विभाग में एसोसिएट एडमिनिस्ट्रेटर रहे माइक गोल्ड के अनुसार ‘भारत और अमरीका के बीच बेहतर संबंध पृथ्वी पर तो बहुत महत्वपूर्ण हैं ही, उससे भी ज्यादा उनका महत्व अंतरिक्ष में है।’ वह बहुत हद तक सही हैं। कुछ दूरगामी बड़ी आशंकाओं को दरकिनार और दृष्टिविगत कर दें तो अमरीका सहित उसके सात सहयोगी देशों द्वारा निर्मित आर्टेमिस कार्यक्रम पर भारत की सहमति अमरीका के लिए लाभप्रद है, तो हमारे लिये भी फायदेमंद। प्रधानमंत्री जब निजी क्षेत्रों के लिये इसरो के द्वार खोल ही चुके हैं, तो उसके बाद तो यह स्वाभाविक कदम माना जाना चाहिये। वैसे भी अर्टेमिस समझौता संयुक्त राष्ट्र की जिस आउटर स्पेस ट्रीटी की परिपुष्टि करता है, उस पर भारत तो पहले ही दस्तखत कर चुका है। इस तरह देश ने इसके लिये कोई नीतिगत कुर्बानी नहीं दी है। 
वैसे भी गैर-बाध्यकारी असैन्य अंतरिक्ष अन्वेषण पर समान विचार वाले देशों को एक मंच पर लाने वाले अर्टेमिस कार्यक्रम पर भारत दस्तखत करने वाला 26वां देश है। सच कहें तो इसके लिये वह अमरीका ही अधिक प्रयत्नशील था, जिसने 1980 से 1990 के दशक में भारत को महत्वपूर्ण अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियों से वंचित करने में अड़ंगे डाले थे। अब नासा महसूस करता है कि भारत एक वैश्विक अंतरिक्ष शक्ति है, जो चंद्रमा, मंगल पर गया है। इससे महज चंद्र अभियानों की जानकारी और सूचनाएं साझा करने तक सीमित नहीं रखा जा सकता, इससे चंद्रमा, मंगल और दूसरे अंतरिक्षीय अभियानों के लिये तकनीक और संसाधन भी साझा करना उचित होगा। भारत-अमरीका पहले भी चांद से जुड़े अभियानों में एक-दूसरे का सहयोग करते रहे हैं। 
लेकिन इस समझौते पर दस्तखत के बाद नासा-इसरो का सहयोग अंतरिक्ष के क्षेत्र में व्यापक विस्तार पायेगा, तो देश का आर्टेमिस समझौते पर सहमति एक स्वाभाविक, सामयिक कदम है, किसी तरह का कोई चौंकाऊ या नुकसान पहुंचाने वाला निर्णय या अमरीकी दबदबे में किये जाने वाला समझौता नहीं। बेशक इस अबाध्यकारी समझौते के कई किंतु-परंतु, शंकाएं-आशंकाएं हैं, वाजिब सवाल भी हैं, लेकिन इनसे परे इसके कई चमकदार पहलू भी हैं। इसरो अंतरिक्ष में मानव मिशन, चंद्रमा पर उतरना, ग्रहों की खोज, अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने जैसी कई महत्वाकांक्षी योजनाओं पर काम कर रहा है, इनमें बहुत मदद मिलेगी। चंद्रयान-3 अभियान के अलावा गगनयान अभियान में भी इसरो को अमरीका का सहयोग मिलेगा ही। समझौते के अनुसार नासा किसी भारतीय को 2024 तक इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर भेजेगा। यह अलग बात है कि भारतीय रॉकेट की बजाय अमरीकी निजी क्षेत्र के रॉकेट से। 
नासा और इसरो इस साल मानवयुक्त अंतरिक्ष यान के सहयोग के लिए एक रणनीतिक ढांचा विकसित कर रहे हैं। अमरीकी नेतृत्व वाले इस प्रयास में तीन साल के भीतर चंद्रमा पर मानव उतारने की कवायद में भारत साथ होगा। उससे आगे दोनों साथ-साथ मंगल ग्रह तक जाएंगे और गहन अंतरिक्ष अन्वेषण भी करेंगे। एडवांस स्पेस कोलाबोरेशन के तहत भारत और अमरीका मानवीय, शोधी अंतरिक्ष अभियानों के अलावा कमर्शियल स्पेस पार्टनरशिप में एक-दूसरे की मदद करेंगे और निर्यात नियंत्रण ढीला करने तथा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को सुविधाजनक बनाएंगे। भारत व अमरीका ने निजी अंतरिक्ष क्षेत्र को जिस तरह आगे बढ़ाया है, भविष्य में भी दोनों देशों की अंतरिक्ष नीतियों और कार्यक्रमों को आकार देंगे। अमरीका की निजी कम्पनियों के साथ सरकारी स्वामित्व वाली न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड वाला कंसोर्टियम भारत के मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम को गति दे सकता है। 
भारत का तेजी से बढ़ते अंतरिक्ष स्टार्ट-अप क्षेत्र को विशाल अमरीकी बाज़ार की ज़रूरत है, आर्टेमिस समझौते के बिना, इसमें विश्वसनीय पैठ बनाना मुश्किल होती। भले ही भारत ने अभी तक अंतरिक्ष में मानवयुक्त मिशन नहीं भेजा, चंद्रमा पर कोई लैंडर नहीं उतारा है, परन्तु इसके बाद भी इसरो अपने दम पर बहुत बेहतर करके अगली पीढ़ी की प्रौद्योगिकियों और इन लक्ष्यों की ओर तेज़ी से बढ़ सकेगा, परन्तु कुछ चिंताएं भी हैं। इसरो ने अपने अंतरिक्ष अभियानों में अधिकतर रूस को भरोसेमंद भागीदार माना है। गगनयान मिशन के लिए भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों के प्रशिक्षण हेतु रूस ने अपनी सुविधाएं दीं। आर्टेमिस समझौते को लेकर चीन और रूस का नज़रिया नकारात्मक है। दोस्त रूस को भारत का यह कदम पसंद नहीं आने वाला, यह तय है। सो हमारे स्पेस मिशनों को लेकर रूस के नज़रिये और सहयोग में बदलाव ज़रूर आएगा। पड़ोसी चीन भी इससे असहज होगा। इस मामले में भारत को सावधानीपूर्वक संतुलन बनाना होगा। 
अंतरिक्ष के संसाधनों के व्यावसायिक इस्तेमाल को बढ़ावा देने वाले इस समझौते के चलते देशों और कम्पनियों के बीच अंतरिक्षीय ग्रहों के संसाधनों का दोहन के लिए देशों के बीच होड़ का दौर गति पकड़ेगा। रूस इसको लेकर अमरीका के खिलाफ  आपत्ति जता चुका है। भारत के चारों अंतरिक्ष यात्री रूसी प्रणाली के प्रशिक्षित हैं। इन्हें अंतरिक्ष में भेजने, अमरीकी सिस्टम के अनुरूप होने के लिये कम से कम छह महीने का पुनर्प्रशिक्षण या फिर अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन तक की रॉकेट सवारी पर कम से कम 200 करोड़ खर्च करने होंगे, क्योंकि अमरीकी प्रशिक्षण संस्थान अमूमन निजी संस्थाओं के हाथ हैं। एक सवाल महिला अंतरिक्ष यात्री का भी है। अंतरिक्ष अभियानों के लिए अपार धन, उत्तम तकनीक रखने वाले देश अंतरिक्षीय संसाधनों की लूट में जबरदस्त लाभ कमाएंगे जबकि कम विकसित या विकासशील देश घाटे में रहेंगे। क्योंकि आर्टेमिस समझौता अंतरिक्ष के संसाधनों तक ‘पहले आओ और पहले पाओ’ के आधार पर अंतरिक्षीय स्रोतों के दोहन को बढ़ावा देता है। 
सवाल आत्मनिर्भरता के नारे, इसरो की स्वतंत्रता, स्वायत्तता, निजता का भी है। आर्टेमिस बाध्यकारी नहीं है लेकिन संस्थाओं का अपना काम अपने आप करने या अपने नियंत्रण में कराने के अलग फायदे हैं। यह कार्य में विशेषज्ञता और आत्मविश्वास लाता है, गोपनीयता बनाए रखता है। फिर इसरो और नासा की, भारत और अमरीका की अंतरिक्ष आवश्यकताएं, बजट, लक्ष्य, उद्देश्य बहुत मायने में बेमेल हैं। इसरो का उद्देश्य पृथ्वी की कक्षाओं में अपने उपग्रह और प्रक्षेपण क्षमताओं को बढ़ाना और चीन जैसे देशों के बराबर पहुंचना है, अंतरिक्षीय संसाधनों की लूट और उन पर कब्जा नहीं। नासा का सालाना बजट करीब 1,290 अरब रुपये तो इसरो का सालाना बजट केवल करीब 121 अरब रुपये है। उम्मीद है कि इसरो के चंद्रयान-3 और आदित्य एल-1 सन मिशन के दौरान इस समझौते का असर दिखे। आर्टेमिस कार्यक्रमों के लिए अमरीकी करदाताओं को 93 बिलियन डॉलर का भारी भुगतान करना पड़ेगा। वे सवाल कर रहे हैं कि जब निजी अंतरिक्ष कम्पनियां बार-बार भेजे जा सकने वाले राकेट के ज़रिए सस्ते में अंतरिक्ष पर्यटकों को ले जा सकने का दावा कर रही हैं तो निजी उद्यमों को ही यह काम क्यों न सौंप दिया जाए और मानवयुक्त मिशन की बजाय ज्यादा कार्यक्षम रोबोट को अंतरिक्ष में भेजे। वापस लाने की जहमत और खर्च बचेगा। मतलब आर्टेमिस की उपादेयता ही सवालों के घेरे में है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर