नारी अदालतों में ही मिलेगा नारी को इन्साफ...!

नारी अदालतों में नारियों को, नारियों द्वारा मिलेगा इंसाफ। केन्द्र सरकार यही सोचकर जल्द ही ग्राम-स्तर पर केवल-महिला अदालतें स्थापित करने जा रही है जो घरेलू हिंसा व संपत्ति अधिकार जैसे मुद्दों से संबंधित विवादों के समाधान के लिए वैकल्पिक मंच होंगे। साथ ही इनके माध्यम से पितृसत्तात्मक व्यवस्था को भी नियंत्रित करने का उद्देश्य है। सुनने में यह पहल लिंग-समता की दृष्टि से बहुत आकर्षक व प्रभावी प्रतीत होता है, लेकिन इसकी सफलता को लेकर अनेक गंभीर प्रश्न उठने लगे हैं। कई दशकों के प्रयास के बावजूद भी महिलाओं को विधानसभाओं, विधान परिषदों, लोकसभा व राज्यसभा में 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाला विधेयक संसद में पारित नहीं हो सका है। स्थानीय निकायों में महिलाओं को आरक्षण अवश्य प्रदान किया गया है, लेकिन जब उन्हें चुन लिया जाता है तो उनकी जगह शहरों में सभासदी, कस्बों में चेयरमैनी और गांवों में प्रधानी कौन करता है? उनके पति या पिता या भाई, जिससे भारतीय राजनीति में ‘प्रधान पति’ शब्दावली की नई वृद्धि हुई है।
अगर उत्तरपूर्व के कुछ मातृवंशीय आदिवासी कबीलों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाये तो भारत का ग्रामीण समाज पितृसत्तात्मक ही है। गांवों में आज भी अधिकतर निर्णय पुरुष ही लेते हैं, चाहे वह भूमि बंटवारे से संबंधित हो या वैवाहिक विवादों से। खेती की ज़मीन तो अक्सर बेटियों को दी ही नहीं जाती और कानूनी पकड़ से बचने के लिए उनसे लिखवा लिया जाता है कि उन्होंने अपना हिस्सा अपने भाई या दादा की तरफ के किसी अन्य पुरुष रिश्तेदार को ‘दान’ कर दिया है। जो लड़कियां इस ‘अघोषित नियम’ का पालन करने से इंकार कर देती हैं, उन्हें अपनी जान तक से भी हाथ धोना पड़ जाता है। लड़की के लिए अपनी पसंद से विवाह करना तो अधिक खतरा भरा है; ऑनर किलिंग के किस्से तकरीबन रोज़ ही अखबारों में पढ़ने को मिल जाते हैं। ऐसे में यह सवाल प्रासंगिक है क्या केवल-महिला अदालतें महिलाएं चला पायेंगी? या ‘प्रधान पति’ की तरह ‘न्यायाधीश पति’ देखने को मिलेंगे? क्या सामाजिक मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन लाये बिना केवल-महिला अदालतें स्थापित करना जल्दबाज़ी तो नहीं होगा? इस प्रकार के अन्य अनेक प्रश्न हैं, लेकिन पहले सरकारी प्रस्ताव को समझ लेते हैं।
यह योजना पहले पायलट आधार पर असम व जम्मू-कश्मीर के 50-50 गांवों में अगस्त में लांच की जायेंगी और फिर अगले छह माह के दौरान इसका विस्तार पूरे देश में किया जायेगा। केवल-महिला अदालतों को चलाने के विस्तृत स्टैंडर्ड प्रक्रियाएं सभी राज्यों के लिए तैयार कर ली गईं हैं, जिन्हें कुछ ही दिनों के भीतर जारी कर दिया जायेगा। इन केवल-महिला अदालतों को ‘नारी अदालत’ नाम दिया गया है। प्रत्येक गांव की नारी अदालत में 7 से 9 सदस्या होंगी, जिनमें से आधी ग्राम पंचायत की चुनी हुई सदस्य होंगी और शेष आधी को पूरा करेंगी अध्यापिकाएं, डॉक्टर व सामाजिक कार्यकर्ता, जिन्हें ग्रामीणों द्वारा नामंकित किया जायेगा। नारी अदालत की ग्राम पंचायत द्वारा चुनी या नामंकित सदस्यों को न्याय सखी के नाम से जाना जायेगा और नारी अदालत की प्रमुख मुख्य न्याय सखी होगी, जिसका चयन न्याय सखी करेंगी। मुख्य न्याय सखी का कार्यकाल आमतौर से छह माह का होगा और उसके बाद नई मुखिया का चयन किया जायेगा।
मिशन शक्ति की उप-योजना संबल के तहत नारी अदालतों का संचालन महिला व बाल विकास मंत्रालय करेगा। गौरतलब है कि मिशन शक्ति महिलाओं की सुरक्षा, हिफाज़त व सशक्तिकरण को मज़बूत करने के लिए समर्पित है। इस योजना को लागू करने की प्रक्रिया पंचायती राज मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय और इलेक्ट्रॉनिक्स व इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी द्वारा संचालित कॉमन सर्विस सेंटर्स के सहयोग से की जायेगी। नारी अदालत द्वारा जो सेवाएं प्रदान की जायेंगी, उनमें शामिल हैं वैकल्पिक विवाद समाधान व शिकायत निवारण, काउंसलिंग, साक्ष्य-आधारित निर्णय लेना, प्रेशर ग्रुप टैक्टिस, समझौता, मध्यस्था और आपसी सहमति से सुलह ताकि आसान व सस्ता न्याय मिल जाये। इसके अतिरिक्त यह मंच उन नागरिकों से संपर्क करेगा जो महिला अधिकारों, कानूनी रायों, विभिन्न योजनाओं और पब्लिक फीडबैक एकत्र करने की जागरूकता को प्रोत्साहित करते हैं।
नारी अदालत स्थानीय समुदाय में महिलाओं व लड़कियों के केवल उन व्यक्तिगत मामलों को संबोधित करेगी, जिनमें उन्हें सहायता की ज़रुरत है या उनकी कुछ शिकायते हैं, लेकिन साथ ही महिलाओं के लिए सरकारी योजनाओं और कानूनी अधिकारों व पात्रता के प्रति भी जागरूकता उत्पन्न करेगी। बहरहाल, नारी अदालत की कोई कानूनी हैसियत नहीं होगी। ऐसा प्रतीत होता है कि नारी अदालत घर के उस बुजुर्ग की तरह होगी, जो समझा-बुझाकर पारिवारिक विवाद को निपटाने का प्रयास करता है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि उसकी हर बात को मान ही लिया जाये। इसलिए यह सवाल भी उठ रहे हैं कि फिर नारी अदालत की ज़रूरत ही क्या है? क्या यह महिला सशक्तिकरण के नाम पर 2024 के आम चुनाव के लिए मात्र एक स्टंट है?    
जिन गांवों में ग्राम प्रधान पद महिलाओं के लिए आरक्षित होता है, उनमें गांव के राजनीतिक परिवार अपने घर की महिलाओं को प्रत्याशी बना देते हैं, उन महिलाओं को जिन्हें वह घर से भी नहीं निकलने देते, सिर्फ इसलिए कि ‘सत्ता’ उनके पास रहे। लेकिन अगर नारी अदालत उस उद्देश्य की पूर्ति कर देती हैं, जिसके लिए इन्हें स्थापित किया जा रहा है यानी स्थानीय घरेलू विवादों को आपसी बातचीत, मध्यस्थ, काउंसलिंग आदि से निपटाना, तो इससे एक निश्चित लाभ यह अवश्य होगा कि देश की न्यायिक अदालतों पर बोझ कम हो जायेगा, जिनमें फिलहाल पांच करोड़ से अधिक मामले कार्य की अधिकता और न्यायाधीशों व इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी के कारण लम्बित पड़े हैं।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर