समग्र सुधार करके कमांऊ बनाया जा सकता है रेलवे को

इन दिनों देश के विभिन्न रेलमार्गों पर वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन की शुरूआत रेलवे प्रमुख सुर्खी बनी हुई है। माना जाता है कि भारत के रेलमार्गों पर यह सबसे तेज चलने वाली ट्रेन है, जिसकी गति को करीब 180 किमी प्रति घंटा होने का दावा किया जा रहा है। आधुनिक सुविधाओं से लैश, नुकीले इंजन वाली यह ट्रेन इन दिनों देश के मध्यवर्ग के लिए एक सनसनी है। जाहिर है रेलवे के उपभोक्ताओं की भी कई श्रेणियां हैं, इनमें उच्च मध्यवर्ग की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर यह ट्रेन चलाई गई है। बाज़ार और तकनीक के चलन के हिसाब से नयी चीजों की शुरूआत बुरी नहीं है, पर हमें यह भी गौर करना होगा कि भारतीय रेलवे एक विशाल सार्वजनिक उपक्रम है, जिस पर एक साथ कई राष्ट्रीय विकास लक्ष्य और सामाजिक जिम्मेवारियां जुड़ी हुईं है। इसलिए भारतीय रेलवे में सुधारों के लिहाज से कायाकल्प की ज़रूरत है। मोदी सरकार द्वारा पिछले नौ सालों में रेलवे में करीब ढाई लाख करोड़ रूपये का पूंजीगत निवेश किया जा चुका है। 
चालू वित्तवर्ष में भी इसमें करीब एक लाख करोड़ के निवेश की योजना है। इसके अंतर्गत नयी रेल लाईनों का निर्माण व विस्तार, छोटी लाइनों का चौड़ीकरण व बड़ी लाइनों का दोहरीकरण, गैर विद्युतीकृत लाइनों का विद्युतीकरण, नई-नई किस्म की रेलगाड़ियों मसलन. हमसफर, तेजस व वंदे भारत एक्सप्रेस को देश के ज्यादा से ज्यादा जगहों से शुरू करना आदि शामिल है। कोरोना की वजह से करीब दो साल तक रेलवे की पैंसेंजर सेवा पूरे व आंशिक तौर पर ठप्प रखी गई, लेकिन मालगाड़ियां निर्बाध रूप से जारी रखी गईं जिससे रेलवे के राजस्व में ज्यादा गिरावट नहीं आयी। रेलवे द्वारा मालभाड़े की ढुलाई में जहां परिचालन लागत कम आती है, वहीं आमदनी ठीक हो जाती है। जबकि सवारी गाड़ियों में परिचालन का खर्च ज्यादा आता है, उसके मुकाबले कमाई कम होती है। रेलवे की कुल कमाई का दो तिहाई मालभाड़े से हासिल होता है, जबकि इसके कुल खर्च का एक तिहाई हिस्सा माल ढुलाई में खर्च होता है। जबकि इसके विपरीत पैसेंजर सेवाओं पर दो तिहाई खर्च आता है और एक तिहाई आमदनी होती है। कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था में आयी तेज़ी से रेलवे का राजस्व 1.70 लाख करोड़ रूपये से बढ़कर 1.90 लाख करोड़ रूपये हो गया है। इसमे पैंसेंजर सेवाओं की हिस्सेदारी 60 हजार करोड़ तथा मालभाड़े की हिस्सेदारी 1.30 लाख करोड रुपये हैं। 
रेलवे के इंस्ट्रक्चर को देखते हुए जिसमें करीब सात हजार रेलवे स्टेशन, करीब 5 हजार रेलगाड़ियां, करीब 40  हजार रेलगाड़ियों के डिब्बे, करीब ढाई लाख माल वैगन, 70 हजार किमी रेलवे लाइन, 1 दर्जन पीएसयू और करीब 13 लाख कर्मचारी शामिल हैं, यह कमाई नाकाफी है। भारतीय रेलवे अपनी आरक्षित टिकटों पर इस बात का उल्लेख करती है कि उसने अपनी कुल लागत का केवल 57 प्रतिशत शुल्क लिया है। जाहिर है कि माल सेवाओं के क्रास सब्सिडाइजेशन पर रेलवे की पैसेंजर सेवाओं की लागत निर्भर करती है। क्योंकि भारत में रेल टिकटों में ज्यादा बढोत्तरी राजनीतिक रूप से बेहतर फैसला नहीं माना जाता है। परंतु पिछले दो दशकों में रेलवे ने यात्रियों से कई परोक्ष तरीकों द्वारा अतिरिक्त शुल्क वसूलने का प्रयास किया है। मिसाल के तौर पर उपलब्ध रेलवे बर्थ की करीब एक तिहाई सीटे तत्काल सेवा में रखकर प्रति टिकट डेढ से दो सौ रुपये की अतिरिक्त वसूली, राजधानी व समकक्ष ट्रेनों में फ्लेक्सिबल दर से काफी ज्यादा किराया लेना और प्रीमियम ट्रेन्स में दो से तीन गुना किराया वसूलना आदि शामिल है। 
कुल मिलाकर भारतीय रेलवे का नीतिगत पहलू हौचपौच है। रेलवे द्वारा इसे एक नीतिगत प्रपत्र और श्वेतपत्र निकालकर दुरुस्त करने  की ज़रूरत है। भारतीय रेलवे को लेकर एक बड़ी ही बेतुका अवधारणा बन गई कि इसे यात्रियों को ज्यादा से ज्यादा सुविधा देना चाहिए जबकि यात्रियों की सबसे बड़ी ज़रूरत है कि देश में सभी लंबी दूरी की ट्रेनों में आन डिमांड टिकट की उपलब्धता हो। लम्बी दूरी की ट्रेन बर्थ की मांग और आपूर्ति के बीच घोर असंतुलन है। एक लम्बी दूरी की ट्रेन के अस्सी बर्थ वाले सामान्य कोच में औसतन तीन सौ यात्री सफर करते है और सबसे उतना ही किराया लिया जाता है बल्कि बिना बर्थ वाले यात्रियों से फाईन के रूप में रेलवे ज्यादा रकम वसूलती है, जो रेलवे की कम टीटी की जेब में ज्यादा जाता है। आज के दौर में रेलयात्री  पैसा खर्चने को तैयार है, लेकिन उसके लिए बर्थ नहीं है, ऐसे में टीटी को ब्रिटिशकालीन व्यवस्था की तरह पेनाल्टी का अधिकार देकर यात्री विरोधी माहौल और टीटी जनित भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना है। रेलवे को आज के दौर में मेट्रो रेल की तरह नो टिकट, नो इंट्री तकनीक इंट्रोड्यूस करनी चाहिए जिसमे भ्रष्ट टीटी और बेटिकट यात्री दोनों की गुंजाइश नहीं बनती है। टीटी पद को अब कोच अटेंडेंट और बेटिकट यात्री के लिए दस प्रतिशत अतिरिक्त शुल्क के साथ केवल टिकट बनाने का काम सौंपा जाय न कि पेनाल्टी लगाने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
भारतीय रेलवे में अभी निजी क्षेत्र के प्रवेश की बड़ी चर्चा चल रही है। पर यह प्रवेश बिना किसी विस्तृत नीति के, बिना किसी नियम व किराया प्राधिकरण स्थापित किये करना खतरनाक होगा। कहा जा रहा है कि मोदी सरकार रेलवे की आधारभूत संरचना पर लाखों करोड़ों रुपये खर्च रही है और बाद में निजी क्षेत्र बिना बुनियादी निवेश किये इससे मोटी कमाई करेगा। हमारे सामने टेलीकाम सेक्टर की मिसाल मौजूद है, जहां नियमन प्राधिकरण के मातहत निजी क्षेत्र ने बुनियादी संरचना चाहे केबल बिछाने और टावर स्थापित करने हो, सब में लाखों करोड़ों खर्च किये और फिर उसके बाद मनमाने तौर पर नहीं बल्कि निर्धारित दरों पर राजस्व अर्जित किया। यही फार्मूला रेलवे में भी अपनाया जाना चाहिए। वंदे भारत ट्रेन की गति जो 180 किमी प्रति घंटे का  दावा किया गया है वह असल मायने में हासिल नहीं होता है। भारतीय रेलवे ट्रैक की आज भी स्पीड क्षमता 150 किमी प्रति घंटे से ज्यादा की नहीं है। ऐसे में यह ज़रूरी है कि निजी क्षेत्र के सहयोग से भारत में मौजूदा 70 हजार किमी रेलवे ट्रेक के समानांतर नया हाई स्पीड ट्रैक बिछाया जाए और इसमें निजी क्षेत्र राजस्व हिस्सेदारी प्राप्त करे। यह ठीक है कि भारतीय रेलवे की पैसेंजर सेवाओं के परिचालन का वित्तीय बोझ माल सेवाओं पर डालकर उसे उद्योग के लिए महंगा नहीं किया जाना चाहिए। कोई आश्चर्य नहीं कि इन सभी कदमों से रेलवे की मौजूदा वार्षिक आय दो लाख करोड़ से बढाकर पांच लाख करोड़ रूपये तक की जा सकती है। साथ रेलवे को एक आदर्श परिवहन के रूप में भी विकसित किया जा सकता है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर