विपक्षी गठजोड़ को चाहिए एक समानांतर प्रवचन

किसी घटना संबंधी प्रवचन (नैरेटिव) को कैसे भटकाया जा सकता है, इस काम में भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी माहिर हैं। मणिपुर की जघन्य घटना को मीडिया की मदद से अन्य प्रांतों में घटित हुई स्त्री-उत्पीड़न की घटनाओं से जोड़ा जा रहा है। यह एक पॉलिटिकल स्पिन है। ज़रूरी नहीं कि यह कामयाब ही हो। पर, कोशिश तो की ही जा रही है। ऐसी कोशिश का एक राष्ट्रीय और चुनावी संदर्भ है। मोदी को पता है कि उनकी सरकार को इस बार दस साल की संचित ‘एंटीइनकम्बेंसी’ (सत्ता विरोधी भावना) का सामना करना पड़ेगा। अगर जातीय हिंसा की आग में जलते हुए मणिपुर को इस गति तक पहुंचाने की तोहमत केन्द्र सरकार पर लग गई तो यह शासकीय निकम्मेपन का बहुत बड़ा उदाहरण होगा। 2017 में मणिपुर में कांग्रेस की सरकार थी। वहां अशांति की घटनाओं पर उस समय मोदी ने ट्वीट किया था- ‘दोज़ हू कैन नॉट इनश्यौर पीस इन द स्टेट, हैव नो राइट टू गवर्न मणिपुर।’ इसका अनुवाद हैं ‘जो लोग राज्य में शांति बना कर नहीं रह सकते, उनको मणिपुर में शासन करने का कोई अधिकार नहीं’ आज न मोदीजी को यह ट्वीट याद आ रहा है और न ही उनके गाल बजाने वाले मीडिया को। मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह को यह ट्वीट याद आ ही नहीं सकता। सवाल यह है कि ़गैर-भाजपा शक्तियों का गठजोड़ ‘इंडिया’ बनाने वालों को यह ट्वीट याद क्यों नहीं आ रहा है? 
अगले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को ‘इंडिया’ का मुकाबला करना पड़ेगा? राजनीतिक फिकरेबाज़ी से अलग हटते हुए ़गौर करें तो यह सवाल न केवल बेहद गम्भीर है, बल्कि पेचीदा भी है। ़गैर-भाजपा पार्टियों का ‘इंडियन नैशनल डिवेलपमेंटल इन्क्यूसिव एलायंस’ यानी ‘इंडिया’ नरेन्द्र मोदी और भाजपा के सामने जो चुनौती पेश करेगा, क्या उसका ताल्लुक केवल चुनावी अंकगणित से होगा? मुझे तो लगता है कि चुनावी हिसाब-किताब के आईने में देखा जाए तो इस प्रकार का राष्ट्रीय मोर्चा बनाने की आवश्यकता ही नहीं थी। योगेंद्र यादव ने भारत के चुनावी भूगोल के मुताबिक ठीक ही ध्यान दिलाया है कि केरल, पंजाब, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भाजपा के पास कोई ़खास चुनावी त़ाकत नहीं है। वहां के लिहाज़ से विपक्ष की राष्ट्रीय एकता का कोई मतलब ही नहीं है। इसके बाद मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, और राजस्थान में कांग्रेस को भाजपा का मुकाबले करने के लिए न किसी पार्टी की मदद की ज़रूरत है और न ही किसी अन्य पार्टी की इन प्रदेशों में कोई चुनावी हैसियत है। 
कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में मिले वोक्कलिगा वोटों की रोशनी में कांग्रेस चाहे तो देवगौड़ा के जनता दल (सेकुलर) की पूरी तरह से उपेक्षा कर सकती है। अब आ जाइए, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार और असम पर। राष्ट्रीय एकता हो या न हो, इन राज्यों में पहले से राज्यस्तरीय विपक्षी गठजोड़ों की मौजूदगी है। वे भाजपा को चुनौती देने के लिए तैयार बैठे हैं। जहां तक दिल्ली, पंजाब और उत्तर प्रदेश का सवाल है, राष्ट्रीय गठजोड़ हो या न हो, यहां कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी के त्रिकोण के कारण विपक्षी एकता का अंकगणित हर हालत में पेचीदा और तकरीबन नामुमकिन होने ही वाला है। इसी तरह की मुश्किल स्थितियां ओडिसा और पश्चिम बंगाल में भी आएंगी। तो फिर विपक्ष ने ़गैर-भाजपा शक्तियों का यह ‘इंडिया’ गठित ही क्यों किया?
इस सवाल का सीधा और स्पष्ट जवाब पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की धरती पर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के ज़बरदस्त समझे जाने वाले गठजोड़ के बुरे हश्र में तलाशा जा सकता है। अंकगणित के लिहाज़ से सपा-बसपा के मिल जाने से भाजपा को कम से कम चालीस-पचास सीटें हार जाना चाहिए था। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। बसपा को थोड़ा सा पानी ज़रूर मिला, पर सपा की हुलिया वहां बैरंग ही रही। वहां गठजोड़ के बावजूद भाजपा का झंडा बुलंद इसलिए बना रहा कि विपक्ष के पास केवल ‘मैथमेटिक्स’ थी, ‘कैमिस्ट्री’ नहीं थी। जैसा कि हम जानते हैं कि चुनाव जीतने के लिए इन दोनों की ज़रूरत होती है। गठजोड़ करके सपा-बसपा ने अंकगणित तो प्राप्त कर लिया था, पर जीत का रसायन भाजपा के पास था और सपा-बसपा से अलग उसके पास हिंदू एकता की अपनी ‘मैथ’ भी थी। मुझे लगता है कि उत्तर प्रदेश के इस विपरीत तजुरबे से ़गैर-भाजपा शक्तियों ने कुछ सीखा है। इसीलिए उनके नये मोर्चे का प्रस्थान-बिंदु जीत के गणित के बजाय जीत का रसायन तैयार करने पर केंद्रित दिख रहा है।
़गैर-भाजपा विपक्ष के संदर्भ में जीत का यह रसायन पटना और बैंग्लुरू की बैठकों के क़ाफी पहले से ही पकना शुरू हो चुका है। यही है वह रसायन जिसने भाजपा को एक के बाद एक तीन चुनावों में हार का मुंह दिखाया। हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और दिल्ली महानगरपालिका में भाजपा की पराजय भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी और सरकारी निकम्मेपन के मिले-जुले प्रभाव का नतीजा रही। महंगाई और बेरोज़गारी के मसले राज्य सरकारों के साथ-साथ केन्द्र सरकार के संदर्भ में भी उसी तरह से मौजूद हैं। नरेन्द्र मोदी को भी लगता है कि अगर इन दोनों के साथ उनके ऊपर भ्रष्टाचार और निकम्मेपन की तोहमत भी लग गई तो फिर ‘एंटीइनकम्बेंसी’ थामे नहीं थमेगी। इसीलिए वे शुरू से ही विपक्षी एकता को भ्रष्टाचारियों की गोलबंदी ठहरा रहे हैं। साथ ही उनके, अमित शाह और जगत प्रकाश नड्डा के हर भाषण में शासन संबंधी कर्मठता के दावे ठीक इस अंदाज़ में किये जाते हैं जैसे कि वे डी.ए.वी.पी. का कोई सरकारी विज्ञापन पढ़ रहे हों। भाजपा की पूरी कोशिश है कि किसी न किसी प्रकार लोकसभा चुनाव के संदर्भ में महंगाई और बेरोज़गारी के यथार्थ को भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के आरोपों से अलग रखा जाए। यह ‘लिंक’ बन गया तो घातक साबित होगा। 
विपक्ष ‘इंडिया’ के गठन के पहले से ही इस ‘लिंक’ को बनाने में लगा हुआ है। पहले उसे लग रहा था कि ‘मोदाणी’ (अदाणी+मोदी) वाला मुद्दा उठाकर वह यह काम अंजाम दे सकता है। लेकिन, विपक्ष की यह कोशिश अब ठंडी पड़ती दिख रही है। बजाय इसके कि इस मुद्दे को लगातार सार्वजनिक जीवन में जीवित रखा जाता, विपक्ष ने इस पर चुप्पी सी साध ली है। ऱाफेल सौदे से संबंधित कुछ सुगबुगाहट फ्रांस में एक बार फिर सुनाई पड़ी है, लेकिन विपक्ष को उसमें अभी कुछ करने लायक मिला नहीं है। केन्द्र सरकार के निकम्मेपन का एक बहुत बड़ा सबूत मणिपुर की बुरी हालत में सामने आया है। इसमें विपक्ष चाहे तो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों को लपेट सकता है। पर उसने ़खुद ही मणिपुर पर बहुत देर में पहलकदमी ली है। राहुल गांधी द्वारा चंद्रचूरपुर के दौरे के अपवाद को अगर छोड़ दिया जाए तो जलते हुए मणिपुर का ध्यान विपक्ष को भी बहुत देर में आया है। ‘इंडिया’ अगर सीटों के तालमेल, ‘फ्रेंडली ़फाइट’ और दूसरे चुनावी गणित से परे जाना चाहता है तो उसे सरकार द्वारा चलाये गये ‘फील गुड नैरेटिव’ की पोल खोलने के लिए कुछ ठोस रणनीतिक कदम उठाने होंगे। दरअसल, उसे एक समांतर नैरेटिव की तलाश है जिसका सुराग अभी तक उसके हाथ नहीं लगा है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।