बीच में ही पढ़ाई क्यों छोड़ रहे हैं छात्र ?

आज़ादी के अमृतकाल को सार्थक करने में शिक्षा ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो सकती है। कहा जा सकता है कि शिक्षा ही इन्सान, समाज, राष्ट्र एवं दुनिया को बदल सकती है। बात जब ‘नया भारत-सशक्त भारत’ बनाने की हो रही है तो शिक्षा के प्रति सकारात्मक सोच विकसित करने एवं सर्वाधिक ध्यान देने की ज़रूरत है, लेकिन चिंता की बात यह है कि विभिन्न सरकारों की इस सकारात्मक सोच के बावजूद हमारी शिक्षा प्रणाली विपरीत संकेत देती रही है। भारत में उच्च शिक्षा एवं स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ देने वाले छात्र-छात्रों की संख्या का बढ़ना सरकार की शिक्षा नीति एवं व्यवस्था पर एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। संसद में दिये गये एक जबाव के अनुसार देश के नामी उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछले पांच साल में 34 हज़ार से ज्यादा छात्र बीच में ही पढ़ाई छोड़ गए। दूसरी ओर केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर से सन् 2022 की बोर्ड परीक्षाओं के विश्लेषण में बताया गया है कि दसवीं और बारहवीं के बाद देश में लाखों बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं। विश्लेषण के मुताबिक पिछले साल पैंतीस लाख विद्यार्थी दसवीं के बाद ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने नहीं गए। इनमें से साढ़े सत्ताइस लाख सफल नहीं हुए और साढ़े सात लाख विद्यार्थियों ने परीक्षा नहीं दी। इसी तरह पिछले साल बारहवीं के बाद 2.34 लाख विद्यार्थियों ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी। इनमें से सतहत्तर फीसदी ग्यारह राज्यों से थे। यानी करीब अट्ठावन लाख विद्यार्थी दसवीं और बारहवीं में पढ़ाई छोड़ देते हैं तो यह किसी भी सरकार के लिए बेहद चिंता की बात होनी चाहिए।
बात उच्च शिक्षा की करें तो वैश्विक मापदण्डों पर हमारी शिक्षण संस्थाएं काफी पीछे नज़र आती हैं। यह तब है जब आज़ादी के 76 सालों में विभिन्न सरकारों ने शिक्षा के प्रसार की दिशा में काफी प्रयास किये, बहुआयामी योजनाओं को आकार दिया एवं बजट में भी भारी भरकम प्रावधान किये हैं। 34 हज़ार से ज्यादा बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वाले छात्रों में  दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के विद्यार्थी ज्यादा हैं। ये संस्थान कोई सामान्य सरकारी कॉलेज नहीं बल्कि आइआइटी, एनआईटी और आईआईएसईआर, आईआईएम व केन्द्रीय विश्वविद्यालय और इनके जैसे स्तर के हैं। ऐसे संस्थानों में क्या पढ़ाई का स्तर व माहौल उचित नहीं है? सरकार और देश के शिक्षाविदों को इस तथ्य को लेकर भी चिंता करनी ही होगी कि गत पांच वर्षों में इन उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेने वाले 92 विद्यार्थियों ने पढ़ाई के दौरान  आत्महत्या क्यों की? ऐसे ही आईआईटी बुम्बई के प्रथम वर्ष के एक छात्र ने पिछले दिनों खुदकुशी कर ली, इसके बाद वहां के छात्रों से अधिकारिक तौर पर कहा गया है कि छात्र एक दूसरे से जी (एडवांस) रैंक या गेट स्कोर के बारे में पूछताछ न करें। न ही ऐसा कोई सवाल करें जिससे छात्र की जाति और उससे जुड़े पहलू उजागर होते हों। इस तरह की गाइडलाइन की ज़रूरत केवल आईआईटी मुम्बई को ही नहीं, बल्कि सभी उच्च शिक्षण संस्थानों को है, लेकिन सवाल तो यह भी है कि क्या ऐसे सांकेतिक कदमों से आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति को रोका जा सकता है।
किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था की कामयाबी इसमें है कि शुरू से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा हासिल करने के मामले में एक निरन्तरता हो। अगर किसी वजह से आगे की पढ़ाई करने में किसी विद्यार्थी के सामने अड़चनें आ रही हों तो उन्हें दूर करने के उपाय किये जाएं, लेकिन बीते कई दशकों से यह सवाल लगातार बना हुआ है कि एक बड़ी तादाद में विद्यार्थी बीच में ही पढ़ाई क्यों छोड़ देते हैं और उनकी आगे की पढ़ाई को पूरा कराने के लिए सरकार की ओर से ठोस उपाय क्यों नहीं किए जाते? इस मसले पर सरकार से लेकर शिक्षा पर काम करने वाले संगठनों की अध्ययन रपटों में अनेक बार इस चिंता को रेखांकित किया गया है, लेकिन अब तक इसका कोई सार्थक हल सामने नहीं आ सका है।  शिक्षा महंगी होती जा रही है, प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है, सरकारी स्कूलों एवं कालेजों में पूरी सुविधाएं न होने से निजी स्कूलों एवं कालेजों में बच्चों को पढ़ाना विवशता बनती जा रही है। कोई परिवार हिम्मत करके निजी स्कूलों एवं कालेजों में बच्चों को प्रवेश दिलाता भी है तो आर्थिक मजबूरी के कारण उन्हें बीच में ही बच्चों को स्कूल से निकाल लेने को विवश होना पड़ता है। सरकार को छात्रों के स्कूल-कालेज छोड़ने की समस्या को गम्भीरता से लेना होगा। शिक्षा को पेचिदा बनाने की बजाय कम खर्चीली एवं रोचक बनाना होगा। 
बच्चों को स्कूल भेजे जाने का उद्देश्य शिक्षा ग्रहण कर एक अच्छा नागरिक बनना तो है ही, शिक्षा उन्नत राष्ट्र-निर्माण में भी प्रमुख भूमिका निभाती है, लेकिन मौजूदा समय में ज्यादातर स्कूल-कालेज प्रबंधन इसे एक व्यवसाय के रूप में देखने लगे हैं। सरकारें भी शिक्षा की ज़िम्मेदारी से भाग रही है। भारत में ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून लागू होने के बाद ज़मीनी स्तर पर बहुत सारी चीज़ें बदली हैं। हर साल आठवीं पास करने वाले बच्चों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है, लेकिन उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्रों का बीच में पढ़ाई छोड़ देना एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है। दूसरे कुछ क्षेत्रों में हमारी प्रतिभा का दुनिया लोहा मानती है। यह भी सच है कि हमारे इन प्रसिद्ध उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले भी कड़ी स्पर्धा के बीच होते हैं। इसके बावजूद विद्यार्थी क्यों ऐसे संस्थानों से भी मुंह मोड़ते दिख रहे हैं, इस बात पर सरकारों को गहनता से विचार करना चाहिए अन्यथा ऐसे संस्थानों से बीच में पढ़ाई छोड़कर जाने का सिलसिला थमने वाला नहीं। आज भी सक्षम परिवारों की उच्च शिक्षा के लिए पहली पसंद विदेश के शिक्षण संस्थान बने हुए हैं। संसाधनों की कमी और बेहतर शिक्षकों का अभाव इसकी वजह हो सकता है।  सरकारी योजनाओं एवं नीतिगत स्तर पर शिक्षा को उच्च प्राथमिकता मिलती दिखती है, इसके  बावजूद छात्रों के बीच में पढ़ाई छोड़ने की प्रवृत्ति नीतिगत स्तर पर उदासीनता का ही सूचक है। इस समस्या के समाधान के लिए सभी बिंदुओं पर विचार करने की ज़रूरत है।