आदर्श संस्कार

सुशील, रमेश, रामेश्वर, चांद मोहम्मद, सभी एक ही स्कूल में पढ़ते थे। पढ़ाई के साथ ही साथ उनकी खेलकूद, लेखन, वाद-विवाद प्रतियोगिता, पेंटिग में भी रूचि थी और वे समय-समय पर इन प्रतियोगिताओं में भाग लेकर सम्मानित भी हुआ करते थे। रमेश एक साधारण परिवार से था जबकि बाकी बच्चे साधन सम्पन्न परिवार से थे। उन बच्चों की माताएं हर रोज किसी न किसी पार्टी में जाती। बाज़ार, क्लबों में, गोष्ठियों व विभिन्न समारोहों में जाती और लोक दिखावा करती थी जिसकी वजह से उनके बच्चे आदर्श संस्कारों से वंचित थे। अपनी सम्पन्नता के आगे ये बच्चे रमेश की हंसी उड़ाते, उसकी मां को गंवार कहते थे, चूंकि वह साधारण परिवार की महिला थी।
रमेश ने अनेक बार मां से कहा कि मां मेरे मित्र हमारी आर्थिक स्थिति पर हंसते हैं। हम गरीब क्यों हैं? हम धनवान व पैसे वाले कब होंगे। तब मां रमेश से कहती बेटा, ये आदर्श संस्कार ही हमारी धन दौलत हैं। हम धन से भौतिक सुख सुविधाओं को तो खरीद सकते हैं लेकिन आदर्श संस्कार व बड़ों के आशीर्वाद को नहीं खरीद सकते। रमेश मां के इस जवाब से बहुत कुछ समझ गया।
हर शनिवार को स्कूल में बाल-सभा होती। इस बार  वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। सभी बच्चों ने अपने-अपने विचार रखें। जब रमेश की बारी आई तब उसने अपने उद्बोधन में कहा कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति दुनिया की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति हैं। हमें पाश्चात्य संस्कृति से दूर रहना चाहिए। 
लोक दिखावा, फटे वस्त्र पहनना, क्लब संस्कृति के नाम पर शराब का सेवन करना, मनोरंजन के नाम पर जुआं खेलना यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति नहीं हैं। हमें लोक दिखावा और पाश्चात्य संस्कृति से दूर रहना होगा। हम सादा जीवन और उच्च विचारों के धनी हैं। हमारी संस्कृति हमें ज्ञानवान, संस्कारवान और चरित्रवान बनाती हैं। जीवन में पैसा ही सब कुछ नहीं हैं। अगर आदर्श जीवन जीना चाहते हो तो सादगी को अपनाइये।
रमेश का भाषण समाप्त होते ही चेतन सर ने रमेश की पीठ थपथपाते हुए कहा, रमेश बेटा, तुम्हारे विचार सुनकर हृदय गद्-गद् हो गया। उन्होंने सभी बच्चों से अपील की कि वे जीवन में आगे बढ़ना चाहते है तो किसी को भी कमजोर न समझे अपितु अपनी मेहनत व अपने आदर्श विचारों से आगे बढें़ जहां आदर्श विचार होते हैं, वहीं मां सरस्वती का वास होता हैं।
 (सुमन सागर)