आज़ादी को आज़ादी ही रहने दो! 

इस वर्ष हम आज़ादी का 76वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। यह वर्ष बुलंद हौसलों की वो आवाज़ है जो अंग्रेजी हुकूमत के समय कुचले जाने के कारण भी, न दबी, न मरी बल्कि कई जुल्मों को चीरते हुए स्वच्छंद हवा के रूप में आज भी हमारी रगों में बह रही है। लेकिन यह हवा लगातार विषाक्त होती जा रही है ? शायद इस हवा में सांस लेने वाले लोग उन हजारों बलिदानियों की शहादत को भूल गए हैं जिन्होंने आज़ादी के लिए अपना तन-मन, अपना परिवार, अपना बचपन, अपनी जवानी और अपनी जान तक को न्योछावर कर दिया। आखिर क्यों भूल गए हम कि उन बलिदानियों का कर्ज उतारने की जगह हम वर्तमान में ऐसे कर्ज लेते जा रहे हैं जिसके लिए हमारी भावी संतति हमें कभी माफ नहीं करेगी। 
इस गूंगे बहरे समाज में हमारे देश की आज़ादी के लिए अपनी कोख सूनी करने वाली माताओं के लिए शब्द तो अभी भी छन-छन कर ही आते हैं। तभी मणिपुर में निर्वस्त्र की गई उन महिलाओं की कराहना के लिए भी हमारे समाज के कान बहरे हो गए। हालांकि मणिपुर तो एक बहाना है। रोज़ सड़क, चौराहे यहां तक कि घर की चारदीवारी में लाखों बेटियों को पराधीन करके रखा जाता है और यह मजाक आज़ादी के नाम पर बड़े-बड़े समारोह की शान बनता हुआ अक्सर देखा जाता है। लेकिन हम शांत हैं क्योंकि हमारी खामोशी, हमारी आज़ादी को मनाने के लए बहुत ज़रूरी है। यह मसला किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं। घर से निकलते ही सड़क पर हज़ारों गाड़ियां इस तरह आज़ादी मना रही होती हैं कि पैदल चलने वाले और पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करने वाले स्वयं उनसे अपनी आज़ादी की भीख मांग रहे होते हैं। वहीं सड़क के दोनों तरफ अपनी खुशी को ढ़ूंढने निकले फल, सब्ज़ी व चाय का ठेला लगाने वाले विक्रेता, स्वयं बड़े-बड़े मॉल से प्रतियोगिता करने के लिए आतुर दिखने लगते हैं। अगर कोई मॉल से निकल कर उन ठेलों से खरीददारी कर लेता है, तो वे स्वयं आज़ादी को अनुभव करने लग जाते हैं। उनकी वही खुशी उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और रोटी कपड़ा जैसी ज़रूरतों के लिए मार्ग दिखाती है।
इन्हीं लोगों का कोई होनहार बच्चा स्कूल या कॉलेज तक पहुंच भी जाता है तो दिखावटी स्टेट्स के चलते स्वयं को उन लोगों के बीच परतंत्र सा महसूस करने लगता है। यही बच्चे जब अपने अध्यापकों से सहमे से और अकेले में पढ़ने के लिए पुस्तकों का खर्च पूछते हैं तो उनकी आज़ादी के मायने सिस्टम के सामने फेल से नज़र आते हैं, क्योंकि शायद स्कूली दरवाज़ा सरकारी खर्च पर खुला भी मिल जाए लेकिन आगे की पढ़ाई का खर्च स्वयं ही उठाना पड़ता है। वहीं खुदा न करे उनके परिवार का कोई सदस्य बीमार पड़ जाए तो पुस्तकों के लिए जमा की गई पूंजी अस्पतालों में इलाज पर खर्च हो जाती है। शायद सरकारी अस्पताल में भी एक बिस्तर मिल भी जाए लेकिन दवाईयों का भारी खर्च स्वयं ही सहन करना पड़ता है। उस समय उनकी मज़बूरी कहती है कि हमें मंजूर है उनकी परतंत्रता जो हमें समय पर हमारी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए धन उपलब्ध करवा दे। धन देने वाले साहूकार उस समय तो देवदूत बन जाते हैं लेकिन समय पर धन ब्याज सहित न चुकाये जाने के कारण यमदूत भी बन जाते हैं। उस समय यह समझ नहीं आता कि आज़ाद मुल्क में लंबी-लंबी सांस लें या एक ही झटके में स्वयं को खत्म कर लें।
यह सूची इतनी लंबी है कि आज़ादी के 76 वर्ष बीत जाने के बाद भी खत्म ही नहीं हो रही। कोई सिर्फ चंद रुपयों के लिए किसी अपने की हत्या कर देता है तो कोई अपनी ही बहू-बेटियों को कुर्बान कर देता है। लेकिन एक अन्य पहलू यह भी है कि आज़ादी मिलने के नाम पर कुछ तत्व अपनी जिंदगी का ऐसा वीभत्स दिखाते हैं जिसके कारण सभी को एक ही लाइन में खड़ा कर दिया जाता है। खुलेपन को आज़ादी का नाम देकर, बेखौफ अपनी जिंदगी जीना चाहते हैं। आज की कुछ युवा पीढ़ी अपने देश के पारिवारिक मूल्यों को भूलकर उस आज़ादी के पीछे भाग रही है जिसे पकड़कर शायद वे खुद तो बर्बाद होंगे ही और उन युवाओं के लिए भी अवरोध खड़ा करेंगे जिन्होंने अभी-अभी उड़ना ही सीखा है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि आज़ादी को सिर्फ आज़ादी ही रहने दो क्योंकि अंग्रेजों की दासतां में 200 साल रही यह आज़ादी, स्वतंत्र सोच व उज्ज्वल भारत की वो सोच है जिसमें सभी वर्गों के लिए समान व्यवहार, समाज अवसर व समान प्रशस्त मार्ग हो जिस पर चलकर हम सब आज़ादी का आनन्द उठा सकें।     


सहायक प्रोफेसर,
गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी कॉलेज, जालन्धर, पंजाब।