पुलिस अफसर की नौकरी छोड़ सुपर स्टार बने थे  राजकुमार

यह साल 1952 था और एक 25 वर्षीय नवयुवक अपना नाम व नौकरी छोड़कर अपनी पहली हिंदी फीचर फिल्म ‘रंगीली’ के रिलीज़ की प्रतीक्षा कर रहा था, जिसका निर्देशन नजम ऩकवी ने किया था। लोरालाई, बलोचिस्तान के कश्मीरी पंडित परिवार में जन्मे कुलभूषण पंडित ने बॉम्बे (अब मुंबई) के माहिम पुलिस स्टेशन में सब-इंस्पेक्टर की नौकरी छोड़ दी थी और राजकुमार नाम रखकर बॉलीवुड के प्रिंस बनने की कोशिश में थे; क्योंकि उनके दोस्तों और कुछ फिल्मी लोगों (जो पुलिस स्टेशन में आया जाया करते थे) का ख्याल था कि उनके बोलने और चलने फिरने के अंदाज़ से एक हीरो की झलक आती है। लेकिन उनकी पहली फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर खामोश स्वागत हुआ। बात यहीं नहीं खत्म हुई, अगले पांच सालों तक राजकुमार का संघर्ष जारी रहा। लेकिन इसके बाद 1957 में वह सोहराब मोदी की ‘नौशेरवान-ए-आदिल’ में प्रिंस की भूमिका में आये व हिंदी फिल्मोद्योग के ‘प्रिंस’ का जन्म हो गया।
उसी साल महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ भी आयी, जिसमें वह नर्गिस के पति की भूमिका में थे। यह रोल छोटा किंतु प्रभावपूर्ण था, जिससे फिल्मोद्योग में राजकुमार के पैर पूरी तरह से जम गये, विशेषकर इसलिए कि इस कालजयी फिल्म को ऑस्कर नामांकन के साथ दुनियाभर में पहचान मिली। फिल्म ‘बुलंदी’ (1981) में राजकुमार का एक डायलाग है- ‘हम तुम्हें मारेंगे और ज़रूर मारेंगे ...लेकिन वो बंदूक भी हमारी होगी, गोली भी हमारी होगी और व़कत भी हमारा होगा’- जो राजकुमार के तेवर व अंदाज़ को पूर्णत: व्यक्त करता है। फिल्मी परिवार से न होने के बावजूद वह हमेशा अपने नियमों के अनुसार खेलते व अपनी शर्तों पर काम करते थे। उन्हें खुद पर सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का गुमान या भ्रम इतना अधिक था कि ‘गंगा जमुना’ फिल्म देखने के बाद दिलीप कुमार को रात में 12 बजे फोन किया, ‘जानी! हिंदुस्तान में सिर्फ दो ही अदाकार हैं, एक हम और एक तुम।’ ‘जानी’ उनका तकियाकलाम था। लेकिन जब ‘पैगाम’ के कई दशक बाद यह दोनों कलाकार ‘सौदागर’ में एक साथ फिर आये तो निर्देशक सुभाष घई को राजकुमार की ईगो को संतुष्ट करने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। वह सिर्फ सीन के दौरान ही दिलीप कुमार से बात किया करते थे।
राजकुमार ने चार दशक के अपने करियर में लगभग 70 फिल्मों में काम किया, जिनमें से अधिकतर बहुत सफल रहीं, जैसे ‘व़कत’ (1965), ‘हमराज़’ (1967), ‘हीर रांझा’ (1970) व ‘पाकीज़ा’ (1972), लेकिन जब उनकी कोई फिल्म फ्लॉप हो जाया करती थी तो वह अपनी फीस में एक लाख रूपये की वृद्धि कर देते थे, यह कहते हुए, ‘जानी! हम तो फ्लॉप नहीं हुए, हमने तो अपना काम शानदार किया।’ लेकिन इस वजह से उन्हें फिल्में कम ऑफर की जाती थीं। फिल्में कम मिलने का दूसरा कारण यह था कि वह इतने मुंहफट थे कि जो मन में आता वह कह देते। प्रकाश मेहरा ‘ज़ंजीर’ की स्क्रिप्ट उनके पास लेकर गये तो फिल्म ठुकराते हुए वह बोले, ‘जानी! तुम्हारे अंदर से बिजनौरी तेल की बदबू आती है। हम तुम्हारे साथ एक मिनट नहीं बैठ सकते तुम साथ फिल्म करने की बात कर रहे हो।’ इसी तरह जब रामानंद सागर ने राजकुमार को एक फिल्म की कहानी सुनायी तो उन्होंने अपने पालतू कुत्ते को बुलाकर उससे मालूम किया कि क्या वह इस फिल्म में काम करेगा? कुत्ते ने ‘न’ में सिर हिलाया तो राजकुमार ने रामानंद सागर से कहा, ‘जानी! तुम्हारी फिल्म में तो हमारा कुत्ता भी काम नहीं करना चाहता।’ ऐसी बेइज्ज़ती से बचने के लिए अधिकतर निर्माता निर्देशक उनसे कतराते थे।
राजकुमार अपने कटाक्षों से किसी को भी नहीं बख्शते थे। एक फिल्म की शूटिंग के दौरान गोविंदा की शर्ट की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा, ‘जानी! तुम्हारी कमीज़ बहुत शानदार है।’ गोविंदा ने शर्ट राजकुमार को दे दी, वह अगले दिन उसका रुमाल ही बनवाकर ले आये। एक बार अमिताभ बच्चन के विदेशी सूट की तारीफ की। अमिताभ ने दुकान का पता बता दिया तो राजकुमार ने कहा कि इस कपड़े के घर के लिए पर्दे सिलवाने हैं। ज़ीनत अमान जब टॉप हीरोइन थीं, तो एक जगह राजकुमार से टकरा गईं। उन्हें देखकर राजकुमार बोले, अच्छा फिगर है, फिल्मों में कोशिश करो, एक्स्ट्रा का रोल तो मिल ही जायेगा। लेकिन दर्शक उनके दीवाने थे, उन्हें पर्दे पर देखना चाहते थे। दर्शकों के लिए राजकुमार, जबरदस्त डायलाग डिलीवरी व स्टाइल स्टेटमेंट पर्यायवाची थे। उनका तकियाकलाम ‘जानी’ व सफेद जूते (जो पहली बार फिल्म ‘व़कत’ में फीचर हुए) उनके व्यक्तित्व का विस्तार थे। स्क्रीन पर किसी चरित्र को सफेद जूतों की ज़रूरत हो या न हो, राजकुमार हर शॉट में उन्हें पहनने का दबाव डालते थे। कमाल अमरोही के निर्देशन में बनी क्लासिक ‘पाकीज़ा’ के कालजयी डायलाग- ‘आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं, इन्हें ज़मीन पर मत उतारियेगा, मैले हो जायेंगे’- के अपने ही विशिष्ट चाहने वाले हैं। राजकुमार व मीना कुमारी की स्क्रीन पर रोमांटिक जोड़ी को हिंदी फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ के तौर पर याद किया जाता है। राजकुमार अपने काम में भी अनुशासित थे और कभी सामान्य ‘कार्य समय’ के बाहर काम नहीं करते थे। अक्सर समय उनकी मौजूदगी फिल्म की सफलता की गारंटी होती थी। इन्हीं सभी कारणों से निर्माता न चाहते हुए भी उन्हें अपनी फिल्मों का हिस्सा बनाते थे। पैसा इज्जत से भी वज़नी होता है।
एक बार सफर करते हुए राजकुमार ने फ्लाइट अटेंडेंट जेऩिफर को देखा, उन्हें दिल दे बैठे, शादी कर ली। जेनिफर ने अपना नाम बदलकर गायत्री रख लिया। दोनों के तीन बच्चे हुए- दो लड़के पुरु व पाणिनी और एक बेटी वास्तविकता। ‘दिल एक मंदिर’ (1963) में राजकुमार कैंसर रोगी की भूमिका में थे, जिसके लिए उन्हें फिल्मफेयर का बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवार्ड भी मिला था। विडम्बना देखिये कि 3 जुलाई 1996 को उनकी मौत गले के कैंसर के कारण ही हुई। बीमारी के दौरान जब सुभाष घई उनसे मिलने के लिए गये तो वह बोले, ‘जानी! राजकुमार को बीमारी होगी तो बड़ी होगी न, कोई ज़ुकाम से थोड़ा मरेगा राजकुमार।’ राजकुमार का मानना था कि ‘शमशान यात्रा को तमाशा बना देते हैं फिल्म लाइन में’। ‘मरते दम तक’ (1987) फिल्म में एक मृत्यु का सीन था, जिसमें राजकुमार के ‘शव’ पर हार डालना था, तब उन्होंने निर्देशक मेहुल कुमार से कहा था, ‘जानी! अभी पहना लो हार, जब जायेंगे तब तुम्हें पता भी नहीं चलेगा।’ सच में यही हुआ। राजकुमार के अंतिम संस्कार में उनके परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त कोई नहीं था, किसी को उनके निधन की खबर नहीं दी गई थी। उनकी मौत के तीन दिन बाद दुनिया को उनके जाने के बारे में मालूम हुआ। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर