अविश्वास का विश्वास

 

देश में आम चुनाव का बिगुल बज चुका है। सो सभी राजनीतिक पार्टियों का लक्ष्य चुनाव में विजय प्राप्त करना है। इसके लिए चाहे एक-दूसरे की कमियां गिनवाई जाए या लांछित किया जाए निगाह मकसद पर ही रहेगी। विपक्ष ने पूरज़ोर तरीके से अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। अविश्वास प्रस्ताव गिर गया। लोग पूछते हैं कि क्या विपक्ष को पता नहीं था कि यही होने वाला है? पता था बिल्कुल पता था। लेकिन कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना वाला मामला ही था। प्रायोजन था कि मूल धारणा बदली जा सके। अपना पक्ष और मजबूत करने के लिए सत्ताधारी पार्टी पर हमला किया जाए। पी.एम. को संसद में घेरने का एक अवसर मिलेगा। उस अवसर का पूरा लाभ उठाया जाए। लेकिन उन्हें सत्ताधारी पार्टी का हमला सह जाने के लिए अपने को मज़बूत भी करना था। आप कुछ भी कह जाएं और जवाब में वैसा ही प्रतिवाद न हो, यह समझना तो भूल ही होगी। जोकि अक्सर जोश में हो जाती है। इस बार विपक्ष का प्रहार मूलत: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर ही था। 2014 के आम चुनाव से पूर्व यह विचार प्रबल था कि मोदी है तो मुमकिन है। गोया मोदी को टक्कर नहीं दी जा सकती। इस बात को पांच साल का समय गुज़र चुका है। लेकिन चीज़ें ज्यादा बदली नहीं हैं।  विपक्षी दल मोदी को निशाना बना रहा है। सत्ता पक्ष पूरी तरह से मोदी के इर्द-गिर्द ही है। कोई भी नेता मोदी को श्रेय दिए बिना बात ही नहीं करता। विपक्ष के बायकाट के समय भी जिस तरह प्रधानमंत्री के हक में नारे लगे, उससे पता चलता है कि राजनीति के दो भाग ही हैं। एक मोदी पक्ष का दूसरा विरोधी पक्ष का।
राहुल गांधी को लोग सुनना चाहते थे कि उनमें पहले से कुछ तो बदलाव आया होगा। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से प्रतिष्ठा पाकर आए थे। सांसदी निरस्त होने पर मोदी विरोधी ताकत का आभास दे रहे थे। 2018 के अविश्वास प्रस्ताव के दौरान राहुल ने राफेल मसले पर सरकार को घेरा था लेकिन फिर अचानक जाकर प्रधानमंत्री को गले लगा लिया था। इस बार सौहार्द त्याग कर सत्ताधारी पार्टी पर जमकर हमला किया, लेकिन भाषण में नियन्त्रण जो कुछ होता है, वह उन्होंने नहीं जाना। प्रधानमंत्री की तुलना रावण से करना और यह जाहिर करना कि मणिपुर में भारत माता की हत्या हो गई है से पता चला कि वह सचमुच दिल से बोल रहे हैं। अवसर था कि और संतुलित ढंग से बात को रखते ताकि ज्यादा असर होता। परन्तु निशाने पर आ गए। कुछ राजनीतिक अभी तक किसी एक गुट का हिस्सा नहीं बने हैं—बी.आर.एस., बीजद, वाई.एस.आर.सी.पी. तदेपा। उन पर किसी एक पक्ष में आने का दबाव बन रहा है। बीजद, वाई.एस.आर.सी.पी. और तदेपा सरकार के निकट हो रही हैं। तब मूल लड़ाई के दो पक्ष ही रहेंगे। बीजेपी और सहयोगी दल तथा ‘इंडिया।’ 
‘इंडिया’ की पक्षधारी पार्टियां आपसी सहयोग बढ़ा रही हैं, जिससे फिलहाल उनका गठबंधन मजबूत हो रहा है। आम आदमी पार्टी कांग्रेस के निकट हो रही है परन्तु पंजाब और दिल्ली में सीटों के बंटवारे को लेकर दिक्कत आ सकती है।
यदि आने वाले आम चुनाव का रुख अब भी भाजपा के पक्ष में है तो इसका कारण विपक्ष परिवर्तन के लिए सही आवाज़ अभी तलाश नहीं कर पाया जैसा ‘गरीबी हटाओ’ या फिर ‘जात पर न पात पर मुहर लगेगी हाथ पर’ जैसा भावोत्तेजक नारा जो खींच लाए अवाम को अपने पास। मणिपुर के मामले पर विपक्ष ने काफी ज़ोर दिया। हो सकता है कि इस पर तात्कालिक लाभ भी मिले लेकिन इससे कोई राष्ट्रीय एजेंडा सैट नहीं होने वाला। अविश्वास प्रस्ताव पर भी विपक्ष ने कहा कि प्रधानमंत्री सदन में आकर मणिपुर पर बोलें इसलिए अविश्वास प्रस्ताव लाया गया है, परन्तु बेरोज़गारी, महंगाई के मुद्दे जनता को व्यापक स्तर पर जोड़ने वाले मुद्दे हैं, जिन पर ज्यादा बात नहीं हुई। नौ साल सत्ता में रहकर अब सरकार मणिपुर में हुई कांग्रेस की भूलों को सामने लाकर अपने फज़र् से बच नहीं सकती। यह 2023 है आपको मौजूदा वक्त के बिगड़े हालात को संवारने का दायित्व मिला है। उसे संवारना नियोजित करना ज़रूरी है। 
विपक्ष अगर राहुल गांधी पर ही ज्यादा फोक्स करता है तो उसका मतलब है कि आपने ज्यादा कुछ नहीं सीखा। कांग्रेस  अन्य मजबूत नेताओं की प्रतिभा का लाभ नहीं उठा पा रही। अविश्वास प्रस्ताव पर कांग्रेस ने शशि थरूर को बहस का मौका ही नहीं दिया। मोदी-शाह ने दो-दो छोटे भाषण दिया और जमकर बहस की। मोदी का हमला व्यंग्य का पुट लिए हुए था। फिलहाल विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव हार चुका है।