बंधन (क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

 

‘मैं पाप नहीं करना चाहती हूं और न ही चरित्र से गिरना।’
‘क्या अपने आपको सुखी और खुश रखना पाप है, जबकि सच पूछिए तो यह आपका हक है।’
‘यह सब बातें आप समाज के ठेकेदारों से पूछें।’
‘जिन्दगी आपको जीनी है, उन्हें नहीं।’
‘पर यह जिन्दगी हमें इसी समाज में गुजारनी है।’  ‘आप समझती क्यों नहीं, आज इन सब बातों का कोई महत्व नहीं रह गया है। आप चाहें तो एक नयी जिंदगी शुरु कर सकती हैं। मैं आपकी मदद करुंगा।’
‘मदद के लिए धन्यवाद! अब मैं चलती हूं, बहुत देर हो रही है।’ यह कहकर वह घबरायी हुई नज़रों से इधर-उधर देखती हुई, अपने घर की ओर चल दी।
उसके इस जवाब से मुझे ऐसा लगा जैसे उसने ‘धन्यवाद’ के रुप में मेरे गाल पर एक तमाचा रसीद कर दिया हो। मैं चुपचाप घर लौट आया।
उस दिन के बाद रीना न जाने कितनी ही बार आयी, पर एक बार भी उसने मेरी ओर घूमकर देखा तक नहीं, पर मुझे न जाने क्या हो गया था कि उसकी ओर मैं खुद व खुद खिंचा चला जा रहा था। मुझे ऐसा लगता था कि उसे संस्कारों की जंजीर से जकड़ दिया गया हो। मुझे उस पर दया आती है और न जाने कब चुपके से मैं उससे प्यार भी करने लग गया था। उसका इंकार कितना कमजोर था। वह सब कुछ वैसे ही कहती है जैसे रटा-रटाया हुआ तोता।
रीना रात-रात भर सो नहीं पाती उसके मनोमस्तिष्क में हजारों विचार आते जाते थे। 
‘राजीव बाबू, से तो मेरा कोई रिश्ता भी नहीं है, फिर भी वे मुझे याद क्यों आते हैं, कहीं मुझे राजीव बाबू से प्यार...। नहीं-नहीं मुझे ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए। नहीं, अब नहीं सोचूंगी। क्या सचमुच मुझे खुश रहने का हक है। मैं तो खुश रहना ही चाहती थी और न जाने क्या-क्या सपने संजोए थे पर सब टूट गये। क्या अब वे सपने फिर से जिंदा हो पायेंगे। हां, मैं मानती हूं कि मैं आधी-आधी रात बिस्तर में करबटें बदलती रहती हूं, बिस्तर से उठकर चेहरे पर ठंडा पानी छिड़कती हूं। प्यार की बातें सुनना चाहती हूं। किसी की सहानुभूति चाहती हूं... हे भगवान मुझे माफ करना। मैंने अनजाने में ही न जाने क्या-क्या सोच लिया है?’
मैं सुबह घर से निकलने के लिए तैयार हो रहा था, भाभी की मां पड़ोस के घर में किसी काम से गयी हुई थी। इसी समय रीना आयी। मैं झट से समान छोड़ उसकी ओर हो लिया। रीना के हाथ में एक छोटी-सी पोटली थी। वह कुछ देर खामोश खड़ी रही। फिर उसने पोटली मेरी ओर बढ़ा दी, ‘मुझे रास्ते में खा लीजियेगा।’ वह झिझकतीं हुई बोली।
‘क्या तुम्हारी मां ने भेजी है?’
‘नहीं... हां... मैंने बनायी है।’ बौखला गयी थी वह।
‘क्यों?’ मैंने उसकी नज़रों में झांकते हुए पूछा। उसके होठ थर्रा गये, वह कोई जवाब न दे पायी और पैर की ऊंगली से जमीन खोदती रही।
‘मैं नहीं लेता किसी का खाना।’ मैंने रुखे स्वर में कह दिया।
‘ठीक है मैं जाती हूं।’ मैंने देखा उसकी आंखें छलछला आयी है।
मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और रीना इस तरह से सिहर उठी, जैसे उसके बदन में हजार वोल्ट की बिजली लग गयी हो। वह एकदम कांप सी गयी। आज कितने दिनों बाद उसे एक पुरुष ने स्पर्श किया था।
‘देखो रीना! तुम अपने आपसे कब तक लड़ती रहोगी। क्या अपने आपको दु:ख देना ही तुम्हारा धर्म है?’
‘मैं क्या करुं राजीव बाबू! मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। आखिर कौन थमेगा इस कुलक्षणी का हाथ! जो आप मुझे पाप-पुण्य की बातें समझा रहे हैं। मुझे अपने हाल पर छोड़ दीजिए। खुश रहना मेरे नसीब में लिखा ही नहीं है तो मैं फिर भला कैसे खुश रह सकती हूं।’
‘मैं थमूंगा तुम्हारा हाथ, मैं बनूंगा तुम्हारा सहारा। तुम कुलक्षणी नहीं हो रीना, तुम तो साक्षात् लक्ष्मी हो। क्या तुम मेरे साथ शादी करोगी?’
‘आप होश में तो हैं राजीव बाबू? आप जानते हैं क्या कह रहे हैं? आपके घर वाले और समाज क्या कहेगा इसकी आपको चिंता नहीं है?’
‘साथ मुझे तुम्हारे रहना है, न कि इस समाज और मेरे घरवालों को। आखिर किसी न किसी को तो आगे बढ़ना ही होगा ताकि लोग अंधविश्वास के भंवर से बाहर निकल सके। बस तुम ‘हां’ कह दो रीना। आगे जो होगा हम देख लेंगे।’
इतना सुनते ही रीना का सारा शरीर रोमांचित हो उठा। उसे लग रहा था जैसे जीने की राह मिल गयी हो। उसने खामोशी से ‘हां’ के इशारे में सिर हिला दिया। उसकी आंखों में एक जीत की भी चमक थी। समाज के अंध संस्कारों के बंधनों से मुक्ति पाने की जीत। आज वह अंध संस्कारों के बंधन से मुक्त हो गयी थी और प्यार के बंधन में फिर से बंध गयी थी और वह बंधन उसे सारे जीवन के लिए मंजूर था।

(समाप्त)