मां-बाप से भी महान है पीढ़ियों का जन्मदाता शिक्षक...! 5 सितम्बर शिक्षक दिवस पर विशेष

सिकंदर महान ने कहा था, ‘मैं जिंदा रहने के लिए अपने पिता का, लेकिन अच्छी तरह से जिंदा रहने के लिए अपने शिक्षक का कर्जदार हूं।’ शायद इस बात को महात्मा गांधी ने और भी अच्छे तरीके से कहा है, जो लोग बच्चों को अच्छी शिक्षा देते हैं, वे उन बच्चों के मां-बाप से भी ज्यादा सम्मान के हकदार हैं। मां-बाप तो बच्चों को सिर्फ पैदा करते हैं, उन्हें वाकई इंसान तो शिक्षक ही बनाते हैं। वही उन्हें अच्छे से जीना सिखाते हैं, वहीं उन्हें हर तरह के अंधकार से आगे बढ़ना सिखाता हैं।’ मां-बाप सिर्फ अपने बच्चों को जन्म देते हैं और शिक्षक एक पूरे युग का निर्माण करते हैं, क्योंकि वे पीढ़ियां पैदा करते हैं। इसीलिए शिक्षक समाज में सबसे ज्यादा सम्मान का पात्र है। लेकिन आज के दौर में जब शिक्षा एक कारोबार बन चुकी है, शिक्षक भी महज एक पेशेवर कारोबारी बन चुका है। लेकिन वह इस स्थिति में क्यों पहुंचा? शायद इसके बारे में भी समाज को गंभीरता से सोचना चाहिए, क्योंकि किसी भी समाज में सरकारें हर चीज समाज के अनुकूल नहीं सोचतीं। उनकी ज्यादातर गतिविधियां, अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए होती हैं। अपने को प्रासंगिक और लगातार सत्ता में बनाये रहने के लिए सरकारें सिर्फ वही करती हैं, जो उनके लिए फायदेमंद होता है। उन्हें इस बात से कोई लेना देना नहीं होता कि समाज शिक्षकों का सम्मान करता है या नहीं और न ही इस बात से सरकारों को कोई फर्क पड़ता है कि आखिरकार शिक्षक की नौकरी एक सामान्य कर्मचारी की नौकरी से कहीं ज्यादा है।
हिंदुस्तान में शिक्षक सरकारी नौकरों में सबसे निरीह प्राणी है। विभिन्न राज्य सरकारों के करीब 34 किस्म के काम शिक्षकों से कराए जाते हैं। चाहे पोलियो ड्रॉप देने की बात हो, चाहे जनगणना की बात हो, चाहे चुनाव की बात हो, चाहे किसी आपदा प्रबंधन में सहायकों की जिम्मेदारी निभाने की बात हो, हर जगह सरकारें शिक्षकों को आगे कर देती हैं। एक तरह से देखा जाए तो सरकारों ने ही यह माहौल नहीं बनाया कि शिक्षक समाज में विशेष है या कि उसका काम बाकी सब लोगों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर विभिन्न सरकारें ही शिक्षकों को एक बहुधंधी सामान्य कर्मचारी मानकर चलेंगी  तो भला उनमें यह भाव कैसे आयेगा कि वह पीढ़ियों के निर्माता हैं? इसलिए हम जैसे शिक्षक चाहते हैं हमें वैसा समाज बनाना पड़ेगा, तभी वह पीढ़ियों के सृजन का काम करेंगे।
दरअसल हमारे यहां बहुत सारे प्रतीक अपना मूल्य खो चुके हैं, शिक्षक भी उनमें से एक है। देश में रोज़गार की जो स्थिति है, उसके चलते यह बात किसी से छिपी नहीं है कि शिक्षक की नौकरी कितने दंदफंद करके और कितना चढ़ावा चढ़ाने के बाद हासिल होती है। जब किसी को नौकरी इस प्रक्रिया से मिलती है, तो भला उसमें यह संवेदना, यह जिम्मेदारी का भाव कहां से पैदा होगा कि वह पीढ़ियों के निर्माण के लिए जी जान लड़ा दें? डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम कहा करते थे, ‘शिक्षक वह शख्स होता है जो हमें खुद के बारे में सोचना सिखाता है।’ लेकिन इस तरह की संवेदना वाकई उसकी शख्स में होगी, जिसे समाज रह रहकर बताए कि वह उसके लिए खास है। अमरीका में जब किसी अदालत में शिक्षक पहुंचता है तो न्यायाधीश अपनी सीट से उठकर खड़े हो जाते हैं, शिक्षक के सम्मान के लिए। लेकिन हमारे यहां अकसर ऐसे वीडियो वायरल होते रहते हैं, जब शिक्षा विभाग के अदने से अधिकारी भी किसी स्कूल के प्रधानाध्यापक को डांट रहे होते हैं और प्रधानाध्यापक महोदय हाथ बांधे खड़े रहते हैं।
दरअसल पीढ़ियों का निर्माण सिर्फ भले समाज की निशानी भर नहीं है, यह लोकतांत्रिक समाज की अनिवार्य मांग भी है। हमने आज़ादी के बाद लोकतंत्र तो हासिल कर लिया, लेकिन वह लोकतंत्र कैसे परिपक्व हो, मजबूत हो, संवेदनशील बने, इसके लिए कुछ नहीं किया। आज भी देश में नौकरशाही सबसे ऊपर है। हर शिक्षक के प्रोफेशनल जीवन में जल्द ही यह मुकाम आ जाता है कि उसके पढ़ाये गये छात्र उससे बहुत दूर आगे निकल जाते हैं और वे वहीं के वहीं पर रहते हैं। ऐसा नहीं है कि जिन समाजों में शिक्षकों की गरिमा है, उनके प्रति संवेदन है, वहां शिक्षक अपने छात्रों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कीर्तिमान स्थपित करते हैं। लेकिन ऐसे समाजों में जहां महिलाओं को बराबरी का हक है, जहां आम व्यक्ति को अपनी पसंद का जीवन चुनने का हक है, जहां सरकारें लोगों के रोज़गारों की जिम्मेदारी लेती हैं, वहां शिक्षक वास्तव में समाज के निर्माण की भूमिका निभाता है। लेकिन इसकी शुरुआत घर से होनी चाहिए। महान् शिक्षक और भारत के दूसरे राष्ट्रपति एस राधाकृष्ण कहा करते थे, ‘हर घर एक यूनिवर्सिटी है और पैरेंट्स उसके शिक्षक हैं।’ हम अपने बच्चों को उनके व्यक्तित्व विकास के लिए महंगे-महंगे वर्कशॉप में तो भेज देते हैं, उन्हें आगे बढ़ने के लिए कई तरह के डिप्लोमा और डिग्रियों के लिए दबाव बनाते हैं, लेकिन भारतीय मां-बाप अपने बच्चों के उन आचरणों की अनदेखी करते हैं, जो वास्तव में उन्हें इंसान बनाते हैं। शिक्षक महान है, शिक्षक की इज्जत होनी चाहिए। इसकी पहली सीख बच्चों को अपने घर से ही मिले, उन्हें शिक्षकों के सम्मान का पाठ पढ़ाया जाए तभी वे अपने शिक्षकों का आदर करेंगे। उनके प्रति संवेदनशील होंगे और बदले में शिक्षक भी यही सब प्रतिदान करेंगे।
जब तक हम मां-बाप के रूप में अपने बच्चों को यह नहीं सिखाएंगे कि उन्हें अपने टीचर की इज्जत करनी चाहिए, तब तक बच्चों में यह भाव नहीं आयेगा और न ही अरस्तू के कथन के मुताबिक, ‘शिक्षक खुद जलकर अपने छात्रों के लिए उजाला करेगा।’ निश्चित रूप से एक शिक्षक बेहद दृढ़ निष्चयी व्यक्ति होता है। क्योंकि वही अतीत को जिंदा रखता है और वर्तमान को समझता है। लेकिन एक शिक्षक कितना संवेदनशील रहे, इसकी चिंता और इसका वातावरण दोनों ही समाज को तैयार करना होगा। तभी शिक्षक पीढ़ियों के निर्माता बन सकेंगे। सिकंदर को बचपन में ही यह बात उनके योद्धा पिता ने समझा दी थी कि मैं सिर्फ तुम्हें युद्ध करना सिखा सकता हूं। जीवन जीने की कला और जीवन जीने की महत्ता गुरु ही सिखाएंगे। इसलिए सिकंदर हमेशा अरस्तू का बहुत सम्मान करते थे। दरअसल कोई भी बच्चा चाहे बाद में वह जितना बड़ा जीनियस बने, बचपन में वह भी मिट्टी का एक सामान्य लोंदा ही होता है। उसे किसी आकार में, उसे बुनियादी ज्ञान देने वाला शिक्षक ही ढालता है। इसीलिए अल्बर्ट आईस्टाइन ने कहा था, ‘रचनात्मक अभिव्यक्ति और ज्ञान में प्रसन्नता जगाना शिक्षक की सर्वोत्तम कला है।’ अगर हम चाहते हैं कि शिक्षक इस कला को सिखाने वाले बनें तो पहले हमें उन्हें एहसास दिलाना होगा कि वो खास हैं। उनका काम बहुत बड़ा और बहुत महान है, उन्हें पीढ़ियों को शिक्षित करना है।

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