ज़रूरी है संसदीय परम्पराओं की मज़बूती

इस समय देश में बहुत कुछ विकसित हो रहा है परन्तु इसके साथ-साथ बहुत कुछ उखड़ भी रहा है। देश विकास की ओर कदम बढ़ा रहा है परन्तु इसके साथ-साथ माहौल में अधिक तनाव भी बना हुआ है। राजनीति के क्षेत्र में बड़ी उथल-पुथल होती दिखाई दे रही है। इसके साथ ही राजनीतिक  विरोध दुश्मनियों में भी बदलते दिखाई दे रहा है। संसद भवन के नव-निर्माण के शुरू होने के समय से लेकर अब तक इस पर भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रश्न-चिन्ह उठते रहे हैं। विगत दिवस केन्द्रीय संसदीय मामलों के मंत्री प्रह्लाद जोशी ने 18 से 22 सितम्बर तक संसद का पांच दिवसीय विशेष अधिवेशन बुलाये जाने की घोषणा की थी। इन दिनों में ही पुराने संसद  भवन में यह अधिवेशन शुरू होकर नये संसद भवन में परिवर्तित हो जाएगा। इस समय देश की राजधानी नई दिल्ली में जी-20 देशों के प्रतिनिधियों की हो रही कान्फ्रैंस की व्यापक स्तर पर चर्चा हो रही है। इससे जहां भारत का सम्मान बढ़ेगा, वहीं इसके साथ अधिक विकास के द्वार खुलने की भी उम्मीद की जाती है।
संसद के पांच दिवसीय होने वाले अधिवेशन के सन्दर्भ में कांग्रेस के संसदीय दल की नेता तथा पार्टी की पूर्व अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक बड़ा ही भावपूर्ण पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने विशेष तौर पर यह मामला उठाया है कि संसद के बुलाये गये इस विशेष अधिवेशन  के संबंध में सदस्यों को कोई एजेंडा नहीं भेजा गया। ऐसी स्थिति में अनुमान ही लगाये जा सकते हैं कि इस विशेष अधिवेशन में कौन-से महत्त्वपूर्ण मुद्दों या बिलों पर चर्चा होगी। एक अनुमान यह भी लगाया जा रहा है कि केन्द्र सरकार पांच राज्यों के चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनावों की भी घोषणा कर सकती है, तथा दूसरा सरकारी दस्तावेज़ों में देश का नाम ‘इंडिया’ उपयोग किये जाने के स्थान पर ‘भारत’ रख दिये जाने के भी अनुमान लगाये जा रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि महिलाओं के लिए संसद तथा प्रदेश विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण का बिल भी पेश किया जा सकता है। किसी भी एजेंडे के न होने की स्थिति में ऐसे अनुमान लगना स्वाभाविक है तथा इसे संसदीय परम्पराओं का अपमान भी कहा जा सकता है जबकि आम तौर पर परम्परा यह रही है कि अधिवेशन से पहले एजेंडा जारी किया जाता है। फिर भिन्न-भिन्न पार्टियों के संसदीय प्रतिनिधियों को बुला कर विचार-विमर्श किये जाने वाले मामलों पर कोई आम सहमति बनाये जाने का यत्न किया जाता है परन्तु इस बार ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा।
विगत अवधि में इस बात को महसूस किया जाता रहा है कि केन्द्र सरकार संसद में अपने बहुमत के दम पर संसदीय परम्पराओं को दृष्टिविगत करती रही है। उसकी ओर से पेश किये गये बिल विपक्षी दलों के साथ कोई सहमति बनाने की अपेक्षा बहुमत के दम पर पारित करवा लिए जाते हैं। ऐसी कारगुज़ारी से लोकतंत्र पर प्रभाव पड़ता है। सोनिया गांधी ने अपने पत्र में देश को दरपेश कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण समस्याओं का भी ज़िक्र किया है, जिन्हें इस अधिवेशन में उठाया जाना चाहिए। इनमें बढ़ती हुई महंगाई, किसानों के मामले, साम्प्रदायिक तनाव तथा मणिपुर में घटित हो रहे घटनाक्रम पर चर्चा करवाया जाना आदि शामिल हैं। इसके अलावा लगातार बढ़ती बेरोज़गारी संबंधी भी विस्तारपूर्वक चर्चा करवाये जाने के बारे में कहा गया है। इस पत्र के जवाब में चाहे केन्द्रीय संसदीय मामलों के मंत्री ने अपना स्पष्टीकरण देते हुये यह कहा है कि विशेष अधिवेशन शुरू होने से पहले सभी पार्टियों के नेताओं की बैठक बुलाई जाती है। वहां एजेंडा पेश किये जाने के साथ-साथ बहस के लिए भिन्न-भिन्न विषयों  पर विचार भी किया जाता है परन्तु मौजूदा स्थितियों के दृष्टिगत ऐसे स्पष्टीकरण को सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता।
नि:संदेह प्रतिनिधित्व के पक्ष से लोकसभा में सरकार बहुमत में है परन्तु समय के साथ प्रतिनिधित्व के ऐसे आंकड़े बदलते रहते हैं। किसी भी सरकार के लिए जहां लोकतांत्रिक परम्पराओं का पालन ज़रूरी है, वहीं देश के लोगों तथा विशेष रूप से अन्य राजनीतिक पार्टियों के साथ अधिक से अधिक सहमति बनाने के यत्न भी ज़रूर किये जाने चाहिएं। ऐसे यत्न देश के लिए अधिक सार्थक सिद्ध होने के साथ-साथ लोकतांत्रिक भावना को भी और मज़बूत करने में सहायक हो सकते हैं।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द