आत्महत्या नहीं है हताशा या निराशा का समाधान

विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष विश्वभर में करीब 7.3 लाख लोग आत्महत्या कर लेते हैं। इसके अलावा लगभग 20 लाख लोग आत्महत्या का प्रयास करते हैं। यह स्थिति बेहद परेशान करने वाली है, जिससे पता चलता है कि आज के दौर में लोग विभिन्न कारणों से किस कदर मानसिक तनाव में जी रहे हैं। डब्ल्यूएचओ का मानना है कि आत्मघाती प्रवृत्ति सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए चिंता का विषय है। कोई व्यक्ति जब बहुत बुरी मानसिक स्थिति से गुजरता है तो वह गहरे अवसाद में चला जाता है और यही अवसाद कई बार आत्महत्या का कारण बनता है। डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में 60 प्रतिशत आत्महत्याएं निम्न और मध्यवर्ग वाले देशों के लोग करते हैं।
आत्महत्या की प्रवृत्ति पर रोक लगाने और लोगों में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 10 सितम्बर को ‘विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस’ मनाया जाता है, जिसकी शुरुआत 2003 में ‘इंटरनेशनल एसोसिएशन आफ सुसाइड प्रिवेंशन’ (आई.ए.एस.पी.) द्वारा की गई थी, जिसे अब विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा मानसिक स्वास्थ्य फेडरेशन द्वारा सह-प्रायोजित किया जाता है। विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस के लिए डब्लूएचओ प्रतिवर्ष एक ‘थीम’ निर्धारित करता है। 2021-2023 के लिए त्रैवार्षिक विषय ‘क्रिएटिंग होप थ्रू एक्शन’ (कार्रवाई के माध्यम से आशा बनाना) निर्धारित है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र का लक्ष्य 2030 तक दुनियाभर में होने वाली आत्महत्याओं को एक तिहाई तक कम करना है लेकिन इसे यदि भारत के संदर्भ में देखें तो केवल एक वर्ष के भीतर ही आत्महत्या दर करीब 10 प्रतिशत बढ़ गई है, ऐसे में संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्य को हासिल करना भारत में तो फिलहाल एक सपने जैसा ही लगता है। अधिकांश विशेषज्ञों का मानना है कि समाज में आत्महत्या पर खुलकर बात नहीं होती और इसे आज भी एक कलंक के तौर पर देखा जाता है, अधिकांश परिवार इसे छिपाने का प्रयास करते हैं।
देश में छात्रों की आत्महत्या के मामले तो बेहद चिंताजनक हैं। एनसीआरबी के अनुसार जहां 2020 में देशभर में कुल 12526 छात्रों ने आत्महत्या की, वहीं 2021 में यह आंकड़ा बढ़कर 13089 हो गया। आत्महत्या करने वाले इन छात्रों में 56.54 प्रतिशत लड़के और 43.49 प्रतिशत लड़कियां थी। 18 साल से कम आयु के 10732 किशोरों में से 864 छात्रों ने तो परीक्षा में विफलता के कारण मौत को गले लगा लिया था। 2021 के एनसीआरबी के आंकड़ों से स्पष्ट है कि मृतक छात्रों का प्रतिदिन का औसत 35 था, जो समाज को झकझोरने के लिए पर्याप्त है। एनसीआरबी के मुताबिक आत्महत्या करने वाले छात्रों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। 1995 में कुल आत्महत्याओं में छात्रों की संख्या 7 प्रतिशत से भी कम थी लेकिन 2020 और 2021 में यह बढ़कर 8 प्रतिशत से भी ज्यादा हो गई। यही नहीं, 2011 की तुलना में जहां कुल आत्महत्याएं करीब 21 प्रतिशत बड़ी, वहीं छात्र आत्महत्याओं की घटनाओं में करीब 70 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। निश्चित रूप से ये आंकड़े काफी डराने वाले हैं। एनसीआरबी के मुताबिक 2011 में प्रतिदिन औसतन 21 छात्रों ने आत्महत्या की, जो 2021 में बढ़कर 35 हो गई यानी हर दो घंटे में तीन छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। अब देश के प्रमुख कोचिंग हब बने राजस्थान के कोटा में तो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी को लेकर अत्याधिक मानसिक दबाव के कारण जब-तब छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं सामने आती ही रहती हैं, अब 10वीं-12वीं कक्षा के छात्र भी परीक्षा परिणाम अनुकूल नहीं आने पर आत्मघाती कदम उठाने लगे हैं। यही नहीं, कुछ समय से आईआईटी जैसे भारत के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग संस्थानों और कुछ अन्य प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थानों में भी छात्रों द्वारा आत्महत्या करने के मामले समाज को झकझोरने लगे हैं। कोटा में तो इस साल अभी तक 25 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं जबकि 2022 में यह आंकड़ा 15 था।
राष्ट्रीय आत्महत्या के आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में सभी आत्महत्याओं में भारत का हिस्सा करीब 25 प्रतिशत है। पिछले साल राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) द्वारा जारी रिपोर्ट में 2021 में भारत में आत्महत्या की दर में 7.14 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई थी। भारत में पिछले 5.6 वर्षों में आत्महत्या की दर बढ़ने के कारणों को लेकर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि लोग ज्यादा से ज्यादा आत्म केंद्रित होते जा रहे हैं। उनके प्रत्यक्ष मित्र कम और सोशल मीडिया पर मित्र अधिक हैं। ऐसे लोग अपने परिवार के सदस्यों से कट रहे हैं और अपने फोन या सोशल मीडिया घेरे तक ज्यादा सीमित हो गए हैं। एनसीआरबी द्वारा जारी 2017 से 2021 तक के पांच वर्षों के आत्महत्या के आंकड़ों पर नज़र डालें तो स्पष्ट है कि आत्महत्या की घटनाओं का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। एनसीआरबी के मुताबिक देश में 2017 में आत्महत्या के 129887 मामले दर्ज हुए थे, जिसकी दर प्रति लाख आबादी पर 9.9 थी, 2018 में यह दर बढ़कर 10.2 पर पहुंच गई, 2019 में कुल 139123 लोगों ने और 2020 में 153052 लोगों ने आत्महत्या की। 2021 में एन.सी.आर.बी. के मुताबिक कुल 164033 लोगों ने आत्महत्या कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। 2017 से 2021 तक इन मामलों में 26 प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ोतरी हुई। 2021 में आत्महत्या करने वाले लोगों में एक बड़ा वर्ग उन लोगों का था, जिनका स्वयं का रोज़गार था। इसी प्रकार पेशेवर या वेतनभोगी श्रेणी के लोगों की संख्या 15870, और बेरोजगारों की संख्या 13714 रही। वर्ष 2021 में आत्महत्या करने वालों में 23179 गृहणियां भी शामिल थी। मनोचिकित्सकों का मानना है कि अवसाद से ग्रस्त लोगों की मानसिक चिकित्सा के जरिये उन्हें स्वस्थ बनाया जा सकता है। इसके अलावा परिवार और समाज का भावनात्मक संबल भी अवसाद में जाने से बचाने में मददगार हो सकता है। इस प्रकार देश में लगातार आत्महत्याओं के बढ़ते ग्राफ को तेज़ी से नीचे लाने में काफी मदद मिल सकती है।


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