अनाज का उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता

किसान बड़ी मुश्किल में हैं। पहले बाढ़ की मार पड़ी, अब शुष्क अगस्त-सितम्बर से धान की फसल प्रभावित हो रही है, चाहे किसानों ने ट्यूबवैलों व नहरों के पानी से फसल को बचाने का यत्न किया। किसानों ने 27.50 लाख हैक्टेयर पर धान तथा बासमती किस्मों की बिजाई कर ली थी और 31.67 लाख हैक्टेयर पर बिजाई किये जाने की सम्भावना थी, जब बाढ़ ने 6.25 लाख एकड़ पर धान की फसल को बुरी तरह प्रभावित कर दिया। किसानों ने कम समय में पकने वाली बासमती (पी.बी.-1509 व पी.बी.-1847) तथा धान (पी.आर.-126) किस्मों की पौध लगा कर तथा इधर-उधर से पौध का प्रबंध करके धान दोबारा लगा लिया। इसका उत्पादन पूरा हो जाता है या उसमें कितनी कमी रहती है, अभी इसका सही अनुमान लगाना कठिन है, क्योंकि धान की फसल को बीमारियां भी घेर रही हैं। पत्ता लपेट, गोभ की सुंडी, बकाने तथा छोटेपन की बीमारियों पर काबू पाने के लिए किसान प्रयास कर रहे हैं। 
देश को प्रतिदिन बढ़ रही आबादी के दृष्टिगत अनाज के अधिक उत्पादन की आवश्यकता है। अब तक की उपलब्धि के दृष्टिगत बढ़ रही आबादी की ज़रूरत को पूरा करना कोई असंभव नहीं। आज भारत ज़रूरत से अधिक अनाज पैदा कर रहा है और गेहूं व चावल का निर्यात करने में समर्थ है। पिछले वर्षों में तो भंडार करने की भी समस्याएं आ रही थीं, जो कोविड के वर्षों में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एक्ट (नेफसा) के तहत 140 करोड़ में से 80 करोड़ से अधिक आबादी को अनाज मुफ्त या रियायती दर पर देने के उपरान्त भंडारण की आ रही समस्याएं मंद पड़ गई हैं। अब स्थिति यह हो गई है कि चाहे अनाज का उत्पादन शीर्ष पर पहुंच गया, परन्तु केन्द्र सरकार ने इसके निर्यात पर पाबंदी लगा दी ताकि घरेलू खपत के लिए अनाज की कमी न आ जाए। मई 2022 में भारत से गेहूं के निर्यात पर रोक लगा दी गई। फिर इस वर्ष जून में भंडारण की सीमा निर्धारित कर दी कि थोक व्यापारी व परचून का बड़ा व्यापारी 3000 टन से अधिक गेहूं का भंडार नहीं कर सकता। अब जुलाई में सफेद चावल (पारबॉयल्ड के बिना) का निर्यात बंद कर दिया गया है। फिर अगस्त में गैर-बासमती पारबॉयल्ड चावल के निर्यात पर 20 प्रतिशत कर लगा दिया। अंत में बासमती पर भी शर्त लगा दी कि 1200 डालर प्रति टन से कम कीमत पर बेची जाने वाली बासमती का निर्यात न किया जाए। 
बढ़े उत्पादन के बावजूद भविष्य में अनाज का उत्पादन और बढ़ाने की आवश्यकता है, परन्तु इसमें मुश्किल यह है कि ज़मीन सीमित है, पानी की कमी है (विशेष कर पंजाब में पानी का स्तर तेज़ी से नीचे जा रहा है) और कृषि सामग्री की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं। किसानों पर ऋण बढ़ता जा रहा है। फिर यह भी ज़ोर दिया जा रहा है कि भविष्य में ऐसी किस्में अपनाई जाएं जो पर्यावरण को प्रदूषित न करें और स्वास्थ्य के पक्ष से पौष्टिक हों। ज़रूरत है कि अनुसंधान संस्थाएं किसानों को फसलों की ऐसी किस्में उपलब्ध करें जो मौसम के इस परिवर्तन का मुकाबला कर सकें। आई.सी.ए.आर.-इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीच्यूट के डायरैक्टर व उप-कुलपति डा. अशोक कुमार सिंह तथा पी.ए.यू. के उप-कुलपति डा. सतबीर सिंह गोसल के अनुसार ऐसी किस्में विकसित करने की खोज अब तेज़ कर दी गई है और हाल ही में एक ऐसी किस्म जो मोटापा व शुगर को नियंत्रित करती है, पंजाब में तैयार कर ली गई है। आई.सी.ए.आर.-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने विश्व में मान्यता प्राप्त करने वाली बासमती की पूसा बासमती-1121 किस्म के स्थान पर नई किस्म पूसा बासमती-1885 तथा कम समय में पकने वाली पूसा बासमती-1509 के स्थान पर पूसा बासमती-1847 किस्में विकसित करके रिलीज़ कर दी हैं, जो भुरड़ व झुलस रोग से मुक्त हैं और इन्हें सिंचाई की कम आवश्यकता है। गेहूं की भी ऐसी किस्में जो अवशेष की समस्याओं के बिना उग जाएं, विकसित किये जाने की ज़रूरत है। 
उत्पादन बढ़ाने में आ रही समस्याओं पर काबू पाने के लिए किसानों, कृषि अनुसंधानकर्ताओं तथा सरकार को कंधे से कंधा मिला कर कार्य करना चाहिए ताकि नई कृषि खोज अपना कर दीर्घकालिक कृषि की प्राप्ति हो सके। किसानों को केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा जारी की गईं किसान-हित योजनाओं से लाभ उठाने संबंधी पूरी जानकारी होनी चाहिए, जिसके लिए कृषि प्रसार सेवा मज़बूत करने की आवश्यकता है। किसानों का सम्पर्क कृषि विशेषज्ञों तथा वैज्ञानिकों के साथ बढ़ाने की ज़रूरत है ताकि वे नई तकनीकों व अनुसंधान को अपना सकें। ऐसा करके ही उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।