निरन्तर प्रतिरोधी होते जा रहे हैं मच्छर

हमारे देश में कई दशक से मलेरिया उन्मूलन अभियान चल रहा है, लेकिन दूरगामी योजना के अभाव में न मच्छर कम हो रहे है, न ही मलेरिया। उलटे मच्छर  अधिक ताकतवर बन कर अलग-अलग किस्म के रोगों के संचारक बन रहे हैं। मलेरिया, डेंगू, जापानी बुखार और चिकनगुनिया जैसे नए-नए संहारक शस्त्रों से लैस हो कर जनता पर टूट रहा है मच्छर। 
यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि हमारे यहां मलेरिया निवारण के लिए इस्तेमाल हो रही दवाएं असल में मच्छरों को ही ताकतवर बना रही हैं। विशेषरूप से राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों, जहां हाल के वर्षों में अप्रत्याशित रूप से घनघोर पानी बरसा है, बिहार के सदानीरा बाढ़ग्रस्त जिलों मध्य प्रदेश, पूर्वोत्तर राज्यों व नगरीय-स्लम में बदल रहे दिल्ली-कोलकाता जैसे महानगरों में जिस तरह मलेरिया का आतंक बढ़ा है, वह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए चुनौती है। आज के मच्छर  मलेरिया की प्रचलित दवाओं को आसानी से हज़्म कर जाते हैं। दूसरी ओर घर-घर में इस्तेमाल हो रही मच्छर-मार दवाओं के बढ़ते प्रभाव के कारण मच्छर अब और ज़हरीला हो गया है। देश के पहाड़ी इलाकों में अभी कुछ साल पहले तक मच्छर देखने को नहीं मिलता था।
एक वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि डेंगू का संक्रमण रोकने में हमारी दवाएं निष्प्रभावी हैं।  यूनिवर्सिटी ऑफ  नॉर्थ बंगाल, दार्जीलिंग ने बंगाल के मलेरिया ग्रस्त इलाकों में इससे निबटने के लिए इस्तेमाल हो रही दवाओं—डीडीटी, मैलाथिओन परमेथ्रिन और प्रोपोक्सर को ले कर प्रयोग किए और पाया कि प्रतिरोध पैदा करने वाली जैव-रासायनिक प्रक्रिया के तहत मच्छरों में प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हुई है। इस अध्ययन से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. धीरज साहा ने बताया, ‘कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण मच्छरों ने अपने शरीर में कीटनाशकों के नियोजित कार्यों का प्रतिरोध करने के लिए रणनीतियों का विकास कर लिया है। इसी प्रक्रिया को कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी क्षमता के विकास रूप में जाना जाता है।’
शुरुआती दिनों में शहरों को मलेरिया के मामले में निरापद माना जाता था और तभी शहरों में मलेरिया उन्मूलन पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया। 90 के दशक में भारत में औद्योगिकीकरण के विकास के साथ नए कारखाने लगाने के लिए ऐसे इलाकों के जंगल काटे गए, जिन्हें मलेरिया प्रभावित वन कहा जाता था। ऐसे जंगलों पर बसे शहरों में मच्छरों को बना बनाया घर मिल गया। जर्जर जल निकास व्यवस्था, बारिश के पानी के जमा होने के आधिक्य और कम क्षेत्रफल में अधिक जनसंख्या के कारण नगरों में मलेरिया के जीवाणु तेजी से फल-फूल रहे हैं। भारत में मलेरिया से बचाव के लिए सन् 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था। गांव-गांव में डी.डी.टी. का छिड़काव और क्लोक्वीन की गोलियां बांटने के ढर्रे में सरकारी महकमे भूल गए कि समय के साथ कार्यक्रम में भी बदलाव ज़रूरी है। धीरे-धीरे इन दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता मच्छरों में आ गई। तभी यह छोटा सा जीव अब ताकतवर हो कर निरंकुश बन गया है । 
हालांकि ब्रिटिश गवर्नमेंट पब्लिक हेल्थ लेबोरेट्री सर्विस (पीएचएलसी) की एक अप्रकाशित रिपोर्ट में बीस साल पहले ही चेता दिया गया था कि दुनिया के गर्म होने के कारण मलेरिया प्रचंड रूप ले सकता है। गर्मी और उमस में हो रहा इज़ाफा खतरनाक बीमारियों को फैलाने वाले कीटाण्ुओं व विषाणुओं के लिए संवाहक के माकूल हालात बना रहा है। रिपोर्ट में कहा गया था कि एशिया में तापमान की अधिकता और ठहरे हुए पानी के कारण मलेरिया के परजीवियों को फलने-फूलने का अनुकूल अवसर मिल रहा है। कहा तो यह भी जाता है कि घरों के भीतर अंधाधुंध शौचालयों के निर्माण व शैचालयों के लिए घर के नीचे ही टेंक खोदने के कारण मच्छरों की आबादी उन इलाकों में भी ताबड़तोड़ हो गई है, जहां अभी एक दशक पहले तक मच्छर होते ही नहीं थे।
अधिक फसल के लोभ में सिंचाई के साधन बढ़ाने और कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल ने भी मलेरिया को पाला-पोसा है। बड़ी संख्या में बने बांध और नहरों के करीब विकसित हुए दलदलों ने मच्छरों की संख्या बढ़ाई है। खाने के पदार्थों में डीडीटी का मात्रा ज़हर के स्तर तक बढ़ी है जिस कारण मच्छरों ने डीडीटी को डकार लेने की क्षमता विकसित कर ली है। बढ़ती आबादी के लिए मकान, खेत और कारखाने मुहैया करवाने के नाम पर विगत पांच दशकों के दौरान देश के जंगलों की निर्ममता से कटाई की जाती रही है। घने जंगल मच्छर व मलेरिया के माकूल आवास होते हैं और जंगलों में रहने वाले आदिवासी मलेरिया के बड़े शिकार होते रहे हैं।