भूकम्प: प्रकृति की विनाश लीला

आधुनिक भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है और यह अपने निर्माण काल में आग का धधकता हुआ गोला था परन्तु सूर्य से दूरी के कारण इसकी सतह ठंडी होती गई, सिकुड़ती, सिमटती गई। कालांतर में इस पर सागर, पर्वत, नदी, रेगिस्तान एवं मैदान बने लेकिन सतह के नीचे कठोर चट्टानों की परत बन गई। कठोर चट्टानों के नीचे नरम चट्टान है, एवं उसके नीचे खोखला ‘मैग्मा’। बीच में लोहा, निकेल और अन्य धातुओं का ठोस दहकता हुआ गोला है जो पृथ्वी सतह से लगभग 5000 कि.मी. नीचे है और इसका व्यास 4800 कि.मी. है।
पृथ्वी के अंदर सदैव हलचल मचने के कारण विशाल शिलाखंड दबते और धंसते रहते हैं जिससे उनकी परत में धक्का लगता है। इनसे तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो धरती को कंपा कर रख देती हैं। फलस्वरूप पृथ्वी पर तबाही का आलम आ जाता है। ज्वालामुखी पर्वतों के कारण भी भूकम्प आते हैं। 
टैक्टोनिक प्लेटों के टकराने के कारण भी भूकम्प आते हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी लगभग एक दर्जन ऐसे विशाल प्लेटों के मिलने से बनी है। ये प्लेटें 8० किलोमीटर तक मोटी होती हैं और प्रतिवर्ष 1 से 1० सेंटीमीटर तक डोलती रहती हैं। इनकी आपसी टक्कर के कारण चट्टानों में उथल-पुथल मचती है और भूकम्प आता है। इनके अलावा पहाड़ों में विस्फोट, उनमें सुरंग बनाने तथा बांधों के निर्माण से भी भूकम्प आते हैं।  भूकम्प की तीव्रता का मान रिएक्टर पैमाने पर मापा जाता है। इस पद्धति का विकास संयुक्त राज्य अमेरिकी भूकम्प वैज्ञानिक चार्ल्स एफ. रिक्टर ने 1935 में किया था। माकौली पैमाने के अनुसार भूकम्प तीव्रता को बारह श्रेणियों में बांट दिया गया है। भूकम्प आने पर अनेक तरह के परिवर्तन होते हैं। भवन, सड़क, रेल की पटरियां, सभी क्षतिग्रस्त हो जाते हैं जिससे यातायात में असुविधा उत्पन्न हो जाती है और राहत एवं बचाव कार्य में काफी दिक्कत का सामना करना पड़ता है।   जब तक हम भूकम्प से संबंधित सही भविष्यवाणी करने का तरीका ईजाद नहीं कर लेते, हम कम से कम ऐसे कार्य न करें, जिससे इस विनाशलीला में बढ़ोतरी होती हो। (उर्वशी)