राजा से रंक हुए भारत भूषण के अनसुने किस्से

अमिताभ बच्चन ने एक दिन काम पर जाते हुए एक हृदयविदारक मंज़र देखा, जिसे उन्होंने अपने ब्लॉग में इस तरह से लिखा, ‘एक सुबह काम पर जाते हुए मैंने भारत भूषण को देखा, जो 50 के दशक में महान रोमांटिक हार्ट थ्रोब थे, अपने समय की कुछ अति सफल म्यूजिकल्स के हीरो थे, वह बस स्टॉप पर लाइन में खड़े हुए थे (बस पकड़ने के लिए)! एक आम नागरिक की तरह। भीड़ का हिस्सा। अकेले, अनजान। कोई उन्हें पहचान नहीं रहा था। कोई नहीं जानता था कि वह कौन थे।’ इन पंक्तियों से यह तो अंदाज़ा हो जाता है कि भारत भूषण राजा से रंक हो गये थे, लेकिन इनसे कई सवाल भी पैदा होते हैं। भारत भूषण को पहचानने के बावजूद अमिताभ बच्चन ने उनकी मदद क्यों नहीं की? अमिताभ बच्चन को यह तो याद होगा कि उनकी फिल्म ‘रोटी कपड़ा और मकान’ में भारत भूषण एक ऐसे एक्स्ट्रा की भूमिका में थे जो रोटी चुराकर भागता है, तब एक हीरो के एक्स्ट्रा तक के पतन को जानते हुए उन्होंने कोई आवाज़ क्यों नहीं उठायी, अपने साथी कलाकार का सहारा क्यों नहीं बने?
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि भारत भूषण हिंदी सिनेमा के सबसे बेहतरीन अदाकारों में से एक थे, जो अपनी कला में पूरी तरह से डूबे हुए थे। उन्होंने दिलीप कुमार, राज कपूर व देवानंद के दौर में भी अपने लिए विशेष स्थान बनाने में सफलता हासिल की थी और 1950 के दशक में अपनी गुड लुक्स व प्रभावी शख्सियत से युवाओं, विशेषकर लड़कियों के दिल की धड़कन बन गये थे। उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को स्थापित करने में उनकी गुड लुक्स के साथ ही उनका शांत, शाही वैभव तो शामिल ही थे, लेकिन ट्रैजिक चरित्र अदा करने से उनका आकर्षण अधिक बढ़ गया था। भारत भूषण ने 30 से अधिक फिल्मों में अदाकारी की और वह अनेक असाधारण व कालजयी फिल्मों का हिस्सा रहे, जैसे ‘बैजू बावरा’ (1952), ‘आनंद मठ’ (1952), ‘मिज़र्ा ़गालिब’ (1954) और ‘मुड़ मुड़ के न देख’ (1960) आदि। इस सफलता से वह अपने दौर के सबसे रईस एक्टर बन गये थे; उनकी शानोशौकत के कोई बराबर भी नहीं था। लेकिन उनका जीवन इस तथ्य का भी आईना है कि रईसी और शुहरत अस्थायी होती हैं कि उनके स्तर का स्टार भी बाद में दो जून की रोटी के लिए फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं बल्कि एक्स्ट्रा का काम करने के लिए मज़बूर हो गया था। 
भारत भूषण गुप्ता का जन्म 14 जून 1920 में मेरठ में हुआ था, लेकिन उनकी परवरिश अलीगढ़ में हुई है। उनके पिता रायबहादुर मोतीलाल गुप्ता वकील थे और उम्मीद की जा रही थी कि वह भी वकालत का पेशा ही अपनायेंगे। लेकिन अलीगढ़ से अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वह बॉम्बे (अब मुंबई) आ गये, एक्टर बनने के लिए। उनकी पहली फिल्म 1941 में ‘चित्रलेखा’ आयी थी और इसके बाद कमर्शियल सफलता के लिए उन्हें दस साल का लम्बा संघर्ष करना पड़ा। विजय भट की पैसों को लेकर दिलीप कुमार से बात न बन सकी और उन्होंने अपनी फिल्म ‘बैजू बावरा’ में मीना कुमारी के साथ भारत भूषण को ले लिया। यह फिल्म भारत भूषण को एक दशक की ज़बरदस्त प्रोफेशनल सफलता की ओर ले गयी, जिस दौरान उन्होंने ‘श्री चैतन्य महाप्रभु’ (1954), जिसके लिए उन्हें 1955 में फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया और ‘बरसात की रात’ (1960), जिसके लिए वह आज तक पहचाने जाते हैं, जैसी हिट फिल्में दीं। वह अपनी फिल्मों में बदकिस्मत शायर या संगीतकार की भूमिका करने के लिए अधिक विख्यात थे। ‘बैजू बावरा’ में वह संगीतकार थे, जो अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए तानसेन को ‘संगीत युद्ध’ की चुनौती देते हैं और राग मालकौंस में ‘मन तडपत’ से स्वामी हरिदास को प्रभावित करते हैं और राग भैरवी में ‘तू गंगा की मौज’ से मीना कुमारी से रोमांस करते हैं। उन्होंने ‘ओ दुनिया के रखवाले’ से चरित्र के दर्द को पर्दे पर बाखूबी व्यक्त किया है। ‘बरसात की रात’ में भारत भूषण शायर की भूमिका में थे और यह फिल्म दो कारणों से उनके लिए विशेष थी। एक, हिंदी फिल्मों की आज तक की सर्वश्रेष्ठ कव्वाली ‘न तो कारवां की तलाश है’ उन पर फिल्मायी गयी थी और इसी फिल्म के सेट पर उनकी मुलाकात अपनी दूसरी पत्नी रत्ना से पहली बार हुई थी। दोनों की बेटी अपराजिता भी एक्टर है, जिसने 1986 के चर्चित टीवी शो ‘रामायण’ में मंदोदरी की भूमिका निभायी थी। 
बहरहाल, भारत भूषण को जो जबरदस्त कामयाबी मिली उसे वह बरकरार न रख सके। अपनी सफलता के चरम पर उन्होंने अपने भाई के कहने में आकर फिल्म निर्माण में कदम रखा, इससे उन्हें इतना नुकसान हुआ कि उनका दिवालिया निकल गया। अपने समय का सबसे रईस एक्टर अब रोटी के लिए मोहताज हो गया था। उन्हें जीवित रहने के लिए छोटे-छोटे रोल करने पड़े। वह हीरो से जूनियर आर्टिस्ट की श्रेणी में आ गये थे। और 27 जनवरी 1992 को 72 वर्ष की आयु में भारत भूषण गुमनामी और आर्थिक तंगी की स्थिति में हमेशा के लिए इस दुनिया से चले गये।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर