सर्वोच्च् न्यायालय की नसीहत

पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित तथा मुख्यमंत्री भगवंत मान के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार के मध्य चल रहे टकराव के सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि राज्यपालों को जानकारी होनी चाहिए कि वे चुने हुये प्रतिनिधि नहीं हैं, इसलिए उन्हें विधानसभाओं द्वारा पारित किये गये विधेयकों पर समय रहते आवश्यक फैसले लेने चाहिएं। प्रदेश सरकारों को इस संबंधी शिकायतें लेकर  बार-बार सर्वोच्च न्यायालय तक आने की स्थिति पैदा नहीं होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि अक्सर यह देखा गया है कि जब कोई प्रदेश सरकार संबंधित राज्यपाल द्वारा पारित किये गये  विधेयकों को स्वीकृति न देने का मामला लेकर सर्वोच्च न्यायालय आती हैं तो उससे एकाएक पहले ही राज्यपाल द्वारा विधेयकों को स्वीकृति दी जाती है। ऐसा नहीं होना चाहिए। दूसरे, इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब विधानसभा के स्पीकर कुलतार सिंह संधवां की कारगुज़ारी पर भी सवाल उठाये हैं। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि क्या राज्यपाल की स्वीकृति से एक बार विधानसभा अधिवेशन बुला कर उसे स्थायी तौर पर न उठा कर बार-बार राज्यपाल की स्वीकृति के बिना ही विधानसभा की बैठकें बुलाना उचित है? इससे बजट अधिवेशन तथा मानसून अधिवेशन में अन्तर ही समाप्त हो गया है। वर्णननीय है कि पहले मान सरकार द्वारा 3 मार्च, 2023 को विधानसभा का बजट अधिवेशन बुलाया गया था जो 22 मार्च को समाप्त हुआ था, परन्तु विधानसभा के स्पीकर ने 19-20 जून को विधानसभा का विशेष अधिवेशन पुन: बुला लिया तथा इसे पहले बजट अधिवेशन का ही दूसरा भाग कहा गया। इस अधिवेशन में चार विधेयक पारित किये गये, जिन्हें राज्यपाल ने स्वीकृति नहीं दी। स्पीकर ने फिर तीसरी बार 20 एवं 21 अक्तूबर को अधिवेशन बुला लिया, तथा इसे भी बजट अधिवेशन का ही तीसरा भाग कहा गया। इसे राज्यपाल ने असंवैधानिक करार दे दिया था तथा यह 20 अक्तूबर को ही चला और सरकार यह मुद्दा लेकर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गई। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ जिसमें मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ भी शामिल हैं, द्वारा उपरोक्त टिप्पणियां पंजाब सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए ही की गई हैं। इस याचिका में पंजाब सरकार ने शिकायत की कि राज्यपाल विधेयकों को स्वीकृति नहीं दे रहे, जिस कारण पंजाब का नुकसान हो रहा है तथा सरकार को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
हम इस बात के समर्थन में हैं कि राज्यपालों को बिना ज़रूरत प्रदेश सरकारों के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। किसी भी स्थिति में उन्हें संघीय ढांचे को कमज़ोर नहीं करना चाहिए, परन्तु इसके साथ ही यह भी बेहद ज़रूरी है कि निर्वाचित प्रदेश सरकारें राज्यपाल के पद का मान-सम्मान बना कर रखेें तथा सरकारों के कामकाज संबंधी समय-समय पर राज्यपाल को जानकारी भी देती रहें, क्योंकि सरकारों के कामकाज संबंधी तथा अनेक अन्य मुद्दों को लेकर लोग राज्यपाल से मिलते रहते हैं तथा राज्यपाल उन मुद्दों संबंधी मुख्यमंत्रियों को पत्र भी लिखते रहते हैं। इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि राज्यपालों द्वारा लिखे गये पत्रों का समय-समय पर मुख्यमंत्री जवाब देते रहें तथा राज्यपाल द्वारा मांगी गई जानकारियां भी उन्हें निरन्तर उपलब्ध करवाते रहें। इस तरह की संतुलित तथा सहयोगपूर्ण व्यवस्था से ही राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री बेहतर ढंग से अपने-अपने क्षेत्र में काम कर सकते हैं, परन्तु अक्सर यह देखा गया है कि कई बार केन्द्र सरकारों की शह पर राज्यपाल सरकारों के कामकाज में अनावश्यक हस्तक्षेप करते हैं, जिस कारण प्रदेश सरकारों तथा राज्यपालों के मध्य टकराव पैदा हो जाते हैं। पहले केन्द्र में कांग्रेस के लम्बे शासन तथा अब नरेन्द्र मोदी की सरकार के समय में भी ऐसा ही हो रहा है।
परन्तु जहां तक पंजाब के राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री के मध्य टकराव का संबंध है, हम इसके लिए अधिक ज़िम्मेदार प्रदेश के मुख्यमंत्री भगवंत मान तथा उनकी सरकार को मानते हैं। समय-समय पर मुख्यमंत्री भगवंत मान विधानसभा के भीतर तथा बाहर राज्यपाल के संबंध में बेहद निम्न- स्तरीय बयानबाज़ी करते रहे हैं तथा उन्हें ‘वेहलड़’ तक कहते रहे हैं। उनके द्वारा लिखे गये पत्रों का जवाब देने पर भी टालमटोल करते रहे हैं तथा उनके लिखे हुये पत्रों का ‘लव लैटर’ कह कर मज़ाक उड़ाते रहे हैं। इसके अलावा मान सरकार एक बार विधानसभा अधिवेशन बुला कर दिल्ली की तरह उसे पूर्ण रूप से नहीं उठाती, अपितु अधिवेशन को अस्थायी तौर पर उठा कर पुन: राज्यपाल की स्वीकृति के बिना ही दिल्ली की भांति विधानसभा की बैठक बुला लेती रही है। राज्यपाल तथा विपक्ष को मान सरकार सही समय पर विधानसभा के अधिवेशनों का एजेंडा भी नहीं भेजती रही। इसी कारण राज्यपाल सरकार की इस कार्यशैली की आलोचना करते रहे हैं तथा ऐसे अधिवेशनों को असंवैधानिक भी करार देते रहे हैं। उनके द्वारा विधेयकों को समय पर स्वीकृति न देने का एक कारण यह भी था। इन सभी मुद्दों पर अंतिम फैसला अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही किया जाएगा तथा इस संबंध में आगामी सुनवाई 10 नवम्बर को है, परन्तु इस समूचे सन्दर्भ में हम एक बार फिर यह कहना चाहेंगे कि राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री को आपस में सहयोग भी करना चाहिए तथा अपने-अपने पदों की गरिमा भी बना कर रखनी चाहिए। खास तौर पर यह बेहद ज़रूरी है कि मान सरकार संविधान की मान्यताओं में रह कर ही विधानसभा तथा सरकार का कामकाज चलाना सुनिश्चित बनाए।