लघु कथाएं-उजाले की परम्परा

दीपों की झिलमिलाहट से मुहल्ले का प्रत्येक घर दमक रहा था। दीपावली की चहल पहल जोरों पर थी। नये कपड़े पहन सभी आतिशबाजी और पकवानों का मजा ले रहे थे। लेकिन निखिल का घर अंधेरे में डूबा किसी दुखद घटना का परिचय दे रहा था। तीन महीने पहले ही निखिल के माताजी का देहांत हो गया था। इसलिए शोकसंतप्त परिवार इस वर्ष दीपावली नहीं मना रहा था। घर के दोनों बच्चे अपनी समझदारी दिखाते हुए हर साल की तरह कपड़े और पटाखों की जिद छोड़कर गुमसुम बैठे थे। एक अंधेरे कमरे में लेटा निखिल यादों के ताने बाने बुन रहा था। उसे मां के साथ बिताये हर पल याद आ रहे थे, उसकी आंखों में आंसुओं का समंदर लहरा रहा था। बचपन से अभी तक मां के साथ मनाई प्रत्येक दीवाली उसे याद आ रहे थे। ‘मां दीपावली की तैयारी में पंद्रह दिन पहले से जुट जाती थी। पांचों पर्वों की विधियों और दीपावली के संदेश को मां हमें ध्यान से समझाती।’ सोचते-सोचते निखिल की आंखें लग गई। नींद में उसे लगा जैसे मां वहां आकर उससे कह रही हो-‘बेटा निखिल आज दीपावली है और तुम अंधेरे में! यह अंधेरा कैसा? क्या मेरे बताएं अंधेरे से उजाले की ओर बढ़ने की परंपरा को तुम भूल गए? बेटा-उठ! और घर को उजाले से भरकर प्रकाश पर्व की परंपरा को आगे बढ़ा।’
निखिल हड़बड़ा कर उठ बैठा और थोड़ी देर सोचकर पत्नी सुचिता एवं बच्चों को आवाज देकर बुलाया और कहा, ‘चलो, हम सब मिलकर घर के कोने-कोने को प्रकाश से भर दें। कोई भी कोना अंधेरे में नहीं रहना चाहिए। आज हम दीपपर्व को एक नया आयाम देकर उजाले की परंपरा को आगे बढाएंगे। तभी मां की आत्मा को शांति मिलेगी। कहते कहते निखिल को अपने अंदर एक आत्म उजास की अनुभूति होने लगी। उसने मां की तस्वीर को निहारा, उसे लगा जैसे मां मुस्कराकर आशीर्वाद दे रही है। (सुमन सागर)