आजीविका का मूल्यांकन

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका है। भीष्म पितामह शरशैया से धर्मोपदेश दे रहे हैं। युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ पितामह के चरणों के समीप बैठे हैं और उनके उपदेश ध्यानपूर्वक सुन रहे हैं। तभी द्रौपदी वहां उपस्थित होती है और भीष्म पितामह से प्रश्न करती है, ‘पितामह! जब भरी सभा में दुशासन मेरा चीरहरण कर रहा था उस समय आपने कौरवों को धर्मोपदेश क्यों नहीं दिया? उस समय आपने मेरी सहायता क्यों नहीं की? उस समय आपका ज्ञान और विवेक कहां चला गया था?’ इस प्रश्न के उत्तर में भीष्म पितामह ने जो कहा वह सम्यक् आजीविका के महत्त्व को ही स्पष्ट करता है। उन्होंने कहा, ‘पुत्री, तुम ठीक कहती हो कि मैंने कौरवों को धर्मोपदेश नहीं दिया और न ही तुम्हारी सहायता की। मैंने विवेक और ज्ञान का उपयोग नहीं किया लेकिन इसका असली कारण है पापपूर्ण अन्न का उपभोग। मैं उस समय दुर्योधन के पापपूर्ण अन्न को खा रहा था। उसी अन्न का प्रभाव मेरे मन और मस्तिष्क पर छाया हुआ था इसीलिए मैं अपने ज्ञान और विवेक का प्रयोग कर तुम्हारी सहायता नहीं कर पाया।’
द्रौपदी ने फिर प्रश्न किया, ‘लेकिन पितामह फिर आज कैसे यह ज्ञान और विवेक प्रकट हो रहा है?’ ‘पुत्री, आज अर्जुन ने अपने बाणों से मेरे शरीर का सारा कलुषित रक्त बाहर निकाल दिया है जो पाप के अन्न से निर्मित हुआ था। पापमय अन्न से निर्मित रक्त के निकल जाने से मेरी बुद्धि सजग और विवेक जागृत हो गए हैं,’ पितामह ने समझाते हुए कहा। यदि हम भी चाहते हैं कि हमारी बुद्धि सजग और सचेष्ट रहे, विवेक जागृत हो तथा मन सदैव सकारात्मक सोच की ओर अग्रसर हो तो हमें अपनी आजीविका का मूल्यांकन कर उसमें अपेक्षित सुधार करना ही होगा और नई आजीविका को ग्रहण करने से पूर्व यह सुनिश्चित करना होगा कि यह सम्यक् अर्थात् हर प्रकार से उचित आजीविका ही है। ऐसी जीवनवृत्ति जिससे स्वयं की सकारात्मकता व समाज के किसी भी अंग पर दुष्प्रभाव न पड़े सम्यक् आजीविका है।


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