बाल श्रम को रोकना सभी की ज़िम्मेदारी

आज भी भारी संख्या में बच्चे बाल श्रम की जद में हैं। इसमें कुछ तो मजबूरी की वजह से बाल श्रम करते हैं जबकि कुछ अपने परिवार वालों के साथ या उनके सहयोग में करते हैं। सरकार ने भी बाल श्रम को रोकने के लिए कुछ कानून बनाये हैं लेकिन इनका असर केवल नाममात्र होता है। 
 ईंट निर्माण उद्योग में कार्यशील अपने माता-पिता के साथ शामिल होने वाले बच्चों की संख्या में दोगुना वृद्धि हुई है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन और यूनिसेफ  की एक नई रिपोर्ट के अनुसार कोविड के बाद उसके प्रभावों के कारण बाल श्रम से संलग्न बच्चों की संख्या बढ़कर 160 मिलियन हो गई है और लाखों अन्य बच्चे इसके जोखिम में हैं जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र भारत में बाल श्रम के सबसे बड़े नियोक्ता राज्य हैं। सरकार के तमाम दावों, योजनाओं और कानूनों के बाद भी बाल श्रम में कोई खास कमी नहीं देखने को मिल रही है और इसकी सबसे प्रमुख वजह गरीबी है। 
गरीबी की वजह से कई परिवार जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं का वहन करने में असमर्थ होते हैं और अपने बच्चों को स्कूल के बजाय काम करने के लिये भेज देते हैं। गरीबी कुछ बच्चों को बंधुआ मज़दूर के रूप में काम करने या काम की तलाश में अन्य स्थानों की ओर पलायन करने के लिये भी मजबूर करती है। इसके परिवारों के परम्परागत कार्यों में संलिप्त रहने से भी इसमें वृद्धि होती है। 
 इसके अलावा समय-समय पर प्राकृतिक आपदाएं, संघर्ष और महामारी समाज के सामान्य कार्यकलाप को बाधित करती हैं। कुछ बच्चे अनाथ हो जाते हैं या घर एवं बुनियादी सेवाओं से वंचित हो जाते हैं। 
बाल श्रम बच्चों को उनके शिक्षा, स्वास्थ्य व सुरक्षा के अधिकारों से वंचित करता है जिससे उनके भविष्य के अवसर और सामाजिक गतिशीलता सीमित हो जाती है। बाल श्रम बच्चों के लिये विभिन्न खतरों, शारीरिक चोटों, बीमारियों, दुर्व्यवहार और शोषण का जोखिम उत्पन्न करता है जिससे उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस तरह अनेक समस्याएं बाल श्रम में देखने को मिलती हैैं। 
हालांकि सरकार ने बाल श्रम को रोकने के लिए कानून बनाया है जिसमें शिक्षा का अधिकार अधिनियम प्रमुख है। इसमें संविधान में अनुच्छेद 21। को शामिल किया है जो शिक्षा को प्रत्येक बच्चे के मूल अधिकार के रूप में मान्यता देता है और 6 से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिये नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का उपबंध करता है। साथ में बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम (1986) है। यह अधिनियम खतरनाक व्यवसायों एवं प्रक्रियाओं में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों और 18 वर्ष से कम आयु के किशोरों के नियोजन पर प्रतिबंध लगाता है और खतरनाक कार्य करने से रोकने के लिए कारखाना अधिनियम (1948) है जो किसी भी खतरनाक कार्य में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के नियोजन पर प्रतिबंध लगाता है और केवल गैर-खतरनाक प्रक्रियाओं में काम करने की अनुमति रखने वाले किशोरों के लिये कार्य घंटों एवं दशाओं को नियंत्रित करता है। बच्चों के साथ कार्य में मनमानी न हो, इसके लिए राष्ट्रीय बाल श्रम नीति (1987) बनी है जिसका उद्देश्य बाल श्रम पर प्रतिबंध एवं विनियमन के माध्यम से बाल श्रम का उन्मूलन करना, बच्चों एवं उनके परिवारों के लिये कल्याण एवं विकास कार्यक्रम प्रदान करना और कार्यशील बच्चों के लिये शिक्षा एवं पुनर्वास सुनिश्चित करना है। इसके साथ ही श्रम से मुक्त कराये गये बच्चों के लिए राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना का कानून है। यह कानून बाल श्रम से मुक्त कराए गए बच्चों को गैर-औपचारिक शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, भोजन, वजीफा और स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने तथा फिर उन्हें औपचारिक स्कूली शिक्षा प्रणाली में शामिल करते हुए मुख्यधारा में लाने पर केंद्रित है। 
इसके अलावा ‘पेंसिल पोर्टल’ मंच  है जिसका उद्देश्य बाल श्रम मुक्त समाज के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बाल श्रम का उन्मूलन करने में केंद्र सरकार, राज्य सरकार, ज़िला प्रशासन, नागरिक समाज और आम लोगों का सहयोग प्राप्त करना है। इसे श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय द्वारा लॉन्च किया गया था। इन सभी कानूनों और नियमों के बावजूद बाल श्रम में संतोषजनक कमी नहीं देखने को मिल रही है। श्रम कानूनों के उल्लंघन के लिये प्रदत्त दंड गंभीर और सुसंगत होना चाहिये। सरकार को सामाजिक संगठनों, मीडिया, निगमों और नागरिकों के सहयोग से बाल श्रम के हानिकारक प्रभावों तथा बाल अधिकारों के महत्व के बारे में जागरूकता का प्रसार करना चाहिए। देश का हर बच्चा बाल श्रम से मुक्त होकर अपने अधिकारों को प्राप्त करे, इसके लिए देश के हर एक व्यक्ति को सहयोगी और जागरुक होने की ज़रूरत है।