भव्यता और दिव्यता का पर्याय काशी की देव दीवाली

दुनिया के हर महान और ऐतिहासिक शहर की अपनी एक अलग पहचान होती है। काशी उर्फ वाराणसी की भी अपनी एक ऐसी ही भिन्न पहचान है। वह है यहां से होकर बहने वाली भारत की सबसे पवित्र नदी गंगा पर बने दर्जनों घाट और इस शहर का आध्यात्मिक मिजाज, लेकिन इसी काशी की एक और भव्य पहचान है यहां होने वाला देव दीवाली का आयोजन। यह आयोजन वास्तव में काशी को भव्यता और दिव्यता की नगरी में तब्दील कर देता है। काशी के गंगा घाटों पर कार्तिक पूर्णिमा की रात मानो ब्रह्मांड के सारे तारे सितारे उतर आते हैं। जहां तक नज़र जाती है, दीयों की जगमग जगमग ही नज़र आती है। यह खास काशी की देव दीवाली का नज़ारा होता है। इस दिन काशी की महाआरती से लेकर सभी घाटों पर कतारबद्ध लाखों दीये जलाये जाते हैं, जिनकी रोशनी से पूरा शहर जगमगा उठता है। रोशनी के इस पर्व के साक्षी और साझीदार बनने के लिए कार्तिक पूर्णिमा के समय काशी में पूरी दुनिया से पर्यटक आते हैं और वे यहां के आम लोगों के साथ काशी की देव दीवाली में भारतीय पोशाक पहनकर पूरे उल्लास के साथ हिस्सेदारी करते हैं।
यूं तो पूरे देश में देव दीवाली का पर्व मनाया जाता है, लेकिन देश की सांस्कृतिक राजधानी काशी में इसका नज़ारा ही कुछ ओर होता है। इस साल 27 नवम्बर 2023 को देव दीवाली मनायी जायेगी। शुभ मुहूर्त की बात करें तो यह शाम 5 बजकर 08 मिनट से 7 बजकर 47 मिनट तक है यानी 2 घंटे 39 मिनट का मुहूर्त है। वैसे इस बार देव दीवाली को लेकर भ्रम की स्थिति थी, क्योंकि पहले यह 26 नवम्बर को बतायी जा रही थी। फिर उदय-तिथि के आधार पर काशी की देव दीवाली आयोजन समिति और कई अन्य समितियों ने मिलकर इसे 27 नवम्बर की रात मनाने का फैसला किया। शरद पूर्णिमा से शुरू होने वाला आकाशदीप कार्यक्रम का समापन भी कार्तिक पूर्णिमा यानी देव दीवाली के दिन होता है। इस वजह से यह पर्व और भी भव्य हो जाता है। 
देव दीवाली कब से मनायी जा रही है, इसका कोई लिखित इतिहास नहीं है। माना जाता है कि पौराणिक काल से ही यह देवताओं की प्रसन्नता का पर्व काशी में धूमधाम से मनाया जाता रहा है। इसके पीछे एक पौराणिक कहानी है। एक बार त्रिपुरासुर नामक एक असुर ने देवताओं और मनुष्यों को अपने आतंक से खूब परेशान किया। उसने ऋषि, मुनियों का जीना भी मुश्किल कर दिया। सब उसके आतंक से त्राहि-त्राहि कर रहे थे। तब देवों के देव महादेव भगवान शिव ने देवताओं के निवेदन पर त्रिपुरासुर का वध किया, जिसकी खुशी में देवताओं ने स्वर्गलोक से भगवान शिव की नगरी काशी में आकर खुशी के दीये जलाये थे। तभी से यहां देव दीवाली मनायी जाती है। कार्तिक अमावस्या को भगवान राम के अयोध्या आगमन पर जिस तरह अयोध्यावासियों ने खुशी के दीप जलाकर दीपावाली की शुरुआत की थी, उसी तरह त्रिपुरासुर का वध किए जाने पर देवताओं ने खुश होकर काशी में भगवान शिव के सम्मान में दीये जलाये थे। तब से यह देव दीवाली निरंतर मनायी जा रही है। 
कार्तिक पूर्णिमा की रात बनारस एक अलग ही अलौकिक शहर में तब्दील हो जाता है, क्योंकि इस दिन एक साथ देव दीवाली, कार्तिक पूर्णिमा और गुरु नानक जयंती पर्व पड़ते हैं। ये तीनों उल्लास के पर्व, काशी को खुशियों से सराबोर कर देते हैं। देव दीवाली को देखकर ही अयोध्या में दीपोत्सव की रूपरेखा बनायी गई थी और अब हर साल काशी की तरह दीपावली के मौके पर अयोध्या में होने वाले भव्य दीपोत्सव को देखने के लिए और इसका हिस्सा बनने के लिए भी लोग दूर-दूर से आते हैं। देव दीवाली के मौके पर पूरा वाराणसी शहर एक इकाई में तब्दील हो जाता है। चाहे पर्यटक हों, चाहे विदेशी मेहमान हों, जो इसे देखने यहां आये होते हैं, चाहे स्थानीय लोग हों या फिर काशी के आसपास के गांवों से इस भव्य आयोजन के देखने आये गांव के लोग हों-देव दीवाली की रात सब एक अदृश्य आध्यात्मिक मन:स्थिति में आ जाते हैं और ऐसे लगता है, जैसे पूरा शहर रात को जगमगाती गंगा के किनारे उमड़ आया है। देव दीवाली का नज़ारा बेहद भव्य होता है। यह काशी की विशिष्ट पहचानों में से एक है।
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