स्वप्नजीवी हैं हम

‘क्या आप हमें गारण्टी दे सकते हैं?’ छक्कन अच्छा जीवन देने का दिलासा देने वाले युग पुरुष के पास पूछने गये थे।
ज़माना गारण्टियों का है, बन्धु! जो पढ़-लिख नहीं पाये, उन्हें ऊंची डिग्री से आभूषित कर देने की गारण्टी, जो विदेश प्रस्थान नहीं कर पाये, उन्हें बाकायदा सही शर्तें पूरी करवा के विदेश भेज देने की गारण्टी चाहिये, और जहां दूसरों की गारण्टी खत्म हो जाती है, वहां हमारी गारण्टी शुरू हो जाने की गारण्टी देने वाले की बात चाहिये।अचानक माहौल गारण्टीशुदा हो गया है। हर व्यक्ति दूसरे को वायदा फरमोश और अपने आपको गारण्टी देने वाला और उसे पूरा कर दिखाने वाला बता रहा है। आखिर क्या ज़रूरत पड़ गई गारण्टी देने और उन्हें समय से पहले पूरा करके दिखा देने की?
रियायती अनाज बांट-बांट कर किसी को भूख से नहीं मरने देंगे। गारण्टी मिली थी, लेकिन यह क्या हुआ? सर्वेक्षण हुआ, तो पता चला कि लोग भूख से नहीं मरे, नौकरी और उचित काम न मिलने के अवसाद से मर गये। आपाधापी के युग में चतुर सुजान आपके साथ अन्धी दौड़ दौड़ते हुए विजय का सेहरा हो गये, ऊंचा प्रासाद हो गये, और आप पीछे छूट जाने, अकेले रह जाने के अवसाद में ग्रस्त होकर मर गये। नहीं, इन्हें आत्महत्याओं की तालिका में न गिनो। यह तो बीमारी से मरे हैं। मानसिक विक्षिप्तता की बीमारी से। अब बीमारी से, दुर्घटना से, दुर्भाग्य से कोई मर जाये, तो उसे गारण्टी का असफल हो जाना तो नहीं कह सकते न।
देश, राज्य और समाज के कायाकल्प के लिए बहुत-सी गारण्टियां देते हैं हम। एक नयी शिक्षा नीति ले कर आये हैं, उसे रोज़गार परक बना दिया है। अब गारण्टी है हमारी, कि जो काम मांगता है, उसे उचित काम दिया जायेगा। रोज़गार दफ्तरों के बाहर जो कतारें लगती थीं, उन्हें तो पहले ही रिकार्ड स्तर पर गेहूं रियायती दरों में बांट कर हमने खत्म कर दिया है। हर चुनावी एजेंडे में हम अनुकम्पाओं की बारात सजाते हैं, और आपको फील गुड का एहसास दे देते हैं। यह क्या कम है। अब यह मामूली बात है कि इस बार जलवायु के असाधारण परिवर्तनों के कारण फसल चक्र के बदलने से मूल फसलों की बुआई कम हो गयी, लेकिन हमारे वायदे और गारण्टी चौबीस कैरेट सोना है। हम अनाज आयात करेंगे, और भूखों का पेट भरेंगे। आह! कितनी बड़ी मानवीयता, कितना बड़ा जन-कल्याण है यह।
लेकिन छोड़ो इन गारण्टियों और इनके पूरा होने की बातें। गदहा पच्चीसी के दिनों में भी तो आप पर दिलो जान से फिदा प्रेमिकायें आपको गारण्टी दे जाती थीं, कि मैं सात जन्म तक तुम्हारा साथ निभाऊंगी। तुम पर प्राणपन से कुर्बान हो जाऊंगी, लेकिन समय बदला। बीच में कोई बड़ी गाड़ी वाला, अपने मकान वाला, पक्की नौकरी वाला आ गया, अब कहां वह सात जन्म के वायदे? उन्होंने वैकल्पिक प्रेमी की बड़ी गाड़ी में बैठ कर धूल उड़ा कर जाते हुए भी हमारी ओर मुड़ कर नहीं देखा, कि हम उनकी बेवफाई पर एक दर्द भरा गाना ही उनकी नज़र कर देते।
गारण्टियों की बात करते हो। हमारे धर्म-शास्त्र तो गारण्टी देते थे, कि आपकी सन्तति, आपके वारिस आपके बुढ़ापे की लाठी बनेंगे। श्रवण कुमार की अपने माता-पिता को सब तीर्थ करवा देने की तपस्या आपको धीरज देती थी। लेकिन आज अपनी भावी सन्तति को देखते हो क्या, यह हर पल दुआ करती है, बहुत जी लिया, अब आप इस दुनिया से चलते बनो, और उन्हें अपने अनुसार जीने का मौका दो। संवेदना, भावुकता, स्नेह, और आदर-मान बीते जडमाने की बातें लगने लगी हैं। जब आप कहते हो कि आज की सलीबों पर सब संवेदनायें फांसी लगा, घुट-घुट कर मर गयी हैं, तो आप इस वक्तव्य में व्याकरण दोष निकालते हो, कि सलीब पर जीवित लोग टंगते हैं, भावनायें नहीं। बन्धु क्या वे भावनाएं जीवित नहीं थीं?
और उन प्रशंसकों को क्या कहिये, जो कल तक आपके पीछे आपकी शोभा यात्रा निकालने तक से परहेज़ नहीं करते थे, आज आपका समय या उम्र व्यतीत हो जाने के बाद आपके बारे में मतिभ्रम का शिकार हो गये हैं। यह भी लिखते थे कि उपकृत हैं हम आपसे मिल कर और अब हम उनके उम्र भर के स्नेह और आदर देने की असमय मृत्यु देख कर उसका फातिहा पढ़ने लगते हैं। 
अब आ जाइए उस गारण्टी की ओर। गारण्टी थी, आपकी दफ्तरशाही और नौकरशाही के बोझ को हम कम कर देंगे। भ्रष्टाचार को शून्य के स्तर पर ले आयेंगे और इस धरा पर नये आदर्श युग का अविर्भाव होगा, कि जिसका सूत्र वाक्य ईमानदारी है।
लेकिन आल्मारियों और थैलों से निकलते हुये हमारे जन-प्रतिनिधियों के किरदार कुछ और कहते हैं। जब सत्ता बदलती है, तो पिछला हर बड़बोला मसीहा आरोपों के कटघरे में क्यों खड़ा नज़र आता है? इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं।
हां, बहुत बरस से इस देश के आम आदमी को एक आदत हो गयी है, महंगाई पर नियन्त्रण की घोषणाओं के बीच अपने दैनिक जीवन के और दूभर होते जाने की हालत और आंकड़ों में सफलता के दावों पर रसलिलाह होकर उत्सव मनाने की, और अपने युग कर्णधारों के प्रति श्रद्धा विह्वल हो जाने की। आप बताइए, ये लोग यह न करें क्या? आखिर जीने के लिए कोई बहाना तो चाहिये। चाहे वह गारण्टियों का बहाना हो, या किसी नये स्वप्न जाल के बिछ जाने का बहाना। आखिर स्वप्नजीवी लोग हैं हम।