कांग्रेस के काम नहीं आया जातीय जनगणना का मुद्दा

पांच में से तीन विधानसभा चुनाव के परिणाम भाजपा के पक्ष में गए हैं। तेलंगाना में सत्ता हासिल करने व छत्तीसगढ़ में संतोषजनक टक्कर देने के अलावा कांग्रेस राजस्थान व मध्य प्रदेश में बेअसर ही रही। चुनाव में जातीय जनगणना का मुद्दा जहां उसे ले डूबा, वहीं राजस्थान में गहलोत-पायलट टकराव, मध्य प्रदेश में कमलनाथ व दिग्विजय का बड़बोलापन  कांग्रेस की हार का कारण बना है। राजस्थान में कुछ बड़े कारणों से कांग्रेस की हार हुई है। पहला तो यही कि राजस्थान में रिवाज़ कायम रहा है। जनता ने हमेशा सत्ता में बदलाव किया है। कांग्रेस की मुफ्त की रेवड़ी नहीं चली। कांग्रेस को गहलोत-पायलट विवाद महंगा पड़ गया। कन्हैया लाल हत्याकांड से चुनावी ध्रुवीकरण हुआ है। कांग्रेस चुनाव के कुछ महीने पहले तक गुटबाज़ी से जूझती नज़र आई। अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच की खींचतान का भी कार्यकर्ताओं पर प्रतिकूल असर पड़ा और जनता के बीच गलत संदेश गया। भले ही चुनाव से ठीक पहले दोनों ही नेता ‘हम साथ-साथ हैं’ का संदेश देते नज़र आए हों, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
कांग्रेस जहां गुटबाज़ी से जूझती रही, वहीं भाजपा अंतर्कलह को कहीं बेहतर तरीके से सम्भालती रही। भाजपा ने गुटबाज़ी से पार पाने के लिए वसुंधरा राजे को न सिर्फ  मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करने से परहेज़ किया बल्कि बड़े नेताओं को चुनाव मैदान में उतार दिया था। नतीजा यह हुआ कि नेताओं ने अपनी साख बचाने के लिए उस सीट पर ज़ोर लगाया और इसका सकारात्मक असर आस-पास की सीटों पर भी पड़ा। राजस्थान का चुनाव मोदी बनाम गहलोत हो जाना भी कांग्रेस को भारी पड़ा। प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे ने कांग्रेस के जातिगत जनगणना के दांव की धार भी कुंद कर दी। मोदी ने राजस्थान में जहां ताबड़तोड़ चुनावी रैलियां कीं, वहीं कांग्रेस की ओर से प्रचार का भार मुख्यमंत्री गहलोत के कंधों पर अधिक नज़र आया। चुनाव प्रचार के लिए राहुल गांधी मैदान में तो उतरे, लेकिन वह भी महज खानापूर्ति ही रही और इसका लाभ भी भाजपा को मिला।
अशोक गहलोत की सरकार ने चुनावी साल में एक के बाद एक चुनावी दांव चले जिनमे चिरंजीवी योजना के तहत हेल्थ इंश्योरेंस की लिमिट बढ़ाकर 50 लाख रुपये करने का वायदा किया गया, सस्ते गैस सिलेंडर समेत कई लुभावनी योजनाओं पर पेपर लीक, लाल डायरी और भ्रष्टाचार के आरोप भारी पड़े। कांग्रेस की हार के पीछे बागी भी बड़ी वजह माने जा रहे हैं। कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने के बाद कई नेताओं ने पार्टी से बगावत कर बतौर निर्दलीय उम्मीदवार ताल ठोक दी। कुछ भाजपा और दूसरे दलों के टिकट पर चुनाव मैदान में उतर गए। इन बागियों ने भी कांग्रेस का नुकसान किया है। इसके ठीक विपरीत भाजपा ने एक-एक बागी को मनाने के लिए बड़े नेताओं को ज़िम्मेदारी दी और उनको मनाने की पूरी कोशिश की। कई बागी मान भी गए और भाजपा को इसका लाभ मिला है। 
मध्य प्रदेश की राजनीति में यह चुनाव परिणाम लम्बे समय तक याद रखा जाएगा। इस परिणाम ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर कांग्रेस जीत की जो ज़ोरदार ताल ठोक रही थी, उसे इतनी बुरी हार कैसे मिली? इससे कारण चौंकाने वाले हैं।
उधर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ इन तीनों राज्यों में चुनाव के परिणाम पूरी तरह से भाजपा के पक्ष में रहे हैं। कांग्रेस ने कमलनाथ और दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता किसी को नहीं बनने दिया। दोनों नेता वयोवृद्ध हैं। कमलनाथ की उम्र 77 साल और दिग्विजय सिंह की उम्र 76 साल है। युवा नेताओं का कोई बैकअप नहीं, किसी युवा नेता को आगे आने नहीं दिया। ज्योतिरादित्य सिंधिया जो कांग्रेस में एक बड़ा कद थे, युवा थे, उन्हें भी दरकिनार कर दिया गया था। मजबूरन उन्हें भाजपा का दामन थामना पड़ा। 
मध्य प्रदेश कांग्रेस में युवा नेतृत्व का बैकअप नहीं बन पाया। केवल विक्रांत भूरिया यूथ कांग्रेस अध्यक्ष हैं जो  कांतिलाल भूरिया के बेटे हैं। उन पर भी वरिष्ठ कांग्रेसी और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया की छाप है। सबसे अहम बिंदू राजनीतिक विश्लेषकों की नज़र में यह है कि कमलनाथ में राजनीतिक नेतृत्व करने की क्षमता नहीं है। वह राजनेता कम और बड़ी कम्पनी के मैनेजर ज्यादा लगते हैं। वह राजनीतिक बैठकों में कार्पोरेट मीटिंग जैसा व्यवहार करते रहे हैं। कमलनाथ मिनटों के हिसाब से विधायकों को मिलने का समय देते थे। कांग्रेस में जहां कमलनाथ का रवैया तानाशाही जैसा रहा है, वहीं दूसरी ओर भाजपा इसलिए आगे निकल गई क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कमलनाथ के विपरीत ज़मीनी नेता हैं, वह लोगों और विधायकों की सुनते भी हैं, बोलते भी हैं। शिवराज सिंह चौहान की सरल छवि कमलनाथ की छवि पर भारी पड़ी है। कांग्रेस को अब सोचना होगा कि पयोवृद्ध नेताओं पर भरोसा करने के बजाए नए बेदाग छवि के निष्ठावान नेताओं व कार्यकर्ताओं को आगे लाए, तभी कांग्रेस में कुछ जान आ सकती है। (अदिति)