दोस्ती और खुद्दारी

मिज़र्ा असदुल्लाह खां ‘़गालिब’ न केवल उर्दू के महान शायर थे अपितु वे अरबी और फारसी भाषाओं के बहुत बड़े विद्वान भी थे। उन दिनों दिल्ली कॉलेज, जो कश्मीरी गेट स्थित दारा शिकोह पुस्तकालय में चलता था, के प्रिंसीपल मिस्टर टेलर थे जो ‘़गालिब’ के दोस्त भी थे। कॉलेज में अरबी पढ़ाने के लिए एक योग्य व्यक्ति की तलाश थी। कॉलेज के अधिकारियों ने इस नौकरी के लिए ‘़गालिब’ को बुलाया। ‘़गालिब’ पालकी में बैठकर कॉलेज पहुँचे और अपने आने की ़खबर अंदर भिजवाई। जब काफी देर तक प्रिंसीपल उन्हें लिवाने के लिए बाहर नहीं आए तो ‘़गालिब’ वापस घर के लिए रवाना हो गए। जब बाद में उनसे पूछा गया कि वे कॉलेज से वापस क्यों आ गए तो उन्होंने जवाब दिया, ‘भई नौकरी का म़कसद है कि रुतबे में थोड़ा-बहुत इज़़ाफा हो पर यहां तो दोस्ती ही दांव पर लग जाती थी। क्या फायदा ऐसी नौकरी का जो दोस्ती से भी हाथ धो बैठें?’ ‘़गालिब’ दोस्तों और मिलने वालों का बड़ा लिहाज करते थे लेकिन दोस्तपरस्त होने के साथ-साथ इस बात का भी उन्हें बहुत ध्यान रहता था कि कहीं दोस्ती या रिश्ते में कोई खराबी न आ जाए। ‘़गालिब’ अत्यंत विनम्र थे और ये उनका अहंकार नहीं उनकी खुद्दारी ही थी जो दोस्ती की कीमत पर नौकरी करने को तैयार नहीं हुए बावजूद इसके कि उन्हें नौकरी की ज़रूरत भी कम न थी। 

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