मोहम्मद ऱफी जिनकी गायकी के आज भी दुनिया में लाखों दीवाने हैं

फिल्मी दुनिया में यूं तो अनेक गायक-गायिकायें हुई हैं, जिनके गायन के लाखों दीवाने हैं, मगर मोहम्मद ऱफी का कोई जवाब नहीं। वह शहंशाह-ए-तरन्नुम थे। चाहे उनके गाये वतनपरस्ती के गीत ‘कर चले हम फिदा’, ‘जट्टा पगड़ी संभाल’, ‘ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी ़कसम’, ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’, ‘हम लाये हैं तूफान से कश्ती’ हों या फिर भक्तिरस में डूबे हुए उनके भजन ‘मन तड़पत हरी दर्शन को आज’, ‘मन रे तू काहे न धीर धरे’, ‘इंसाफ का मंदिर है, ये भगवान का घर है’, ‘जय रघुनंदन जय सियाराम’, ‘जान सके तो जान, तेरे मन में छुपे भगवान’ इस शानदार गायक ने इन गीतों में जैसे अपनी जान ही फूंक दी है। दिल की अतल गहराईयों से उन्होंने इन गानों को गाया है। जनवरी, 1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद, उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए जब उन्होंने ‘सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’ गीत गाया, तो इस गीत को सुनकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखें नम हो गईं थी। बाद में उन्होंने मोहम्मद ऱफी को अपने घर भी बुलाया और उनसे वही गीत की फरमाइश की। पं. नेहरू उनके इस गाने से इतना मुतास्सिर हुए कि स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगांठ पर उन्होंने मोहम्मद ऱफी को एक रजत पदक देकर सम्मानित किया। 
मो. ऱफी को अपनी ज़िंदगानी में कई सम्मान-पुरस्कार मिले, दुनिया भर में फैले उनके प्रशंसकों ने उन्हें ढेर सारा प्यार दिया। लेकिन पं. नेहरू द्वारा दिए गए, इस सम्मान को वे अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान मानते थे। फिल्मी दुनिया के अपने साढ़े तीन दशक के करियर में मो. ऱफी ने देश-दुनिया की अनेक भाषाओं में हज़ारों गीत गाये और गीत भी ऐसे-ऐसे लाजवाब कि आज भी इन्हें सुनकर, लोगों के ़कदम वहीं ठिठक कर रह जाते हैं। उनकी मीठी आवाज़ जैसे कानों में रस घोलती है। दिल में एक अजब सा सकून पैदा हो जाती है। मो. ऱफी को इस दुनिया से गुज़रे चार दशक हो गए, लेकिन फिल्मी दुनिया में उन जैसा कोई दूसरा गायक नहीं आया। इतने लम्बे समय के बाद भी वे अपने चाहने वालों के दिलों पर राज करते हैं।
हिंदी सिनेमा में प्लेबैक सिंगिंग को नया आयाम देने वाले मो. ऱफी की पैदाइश 24 दिसम्बर, 1924 को अमृतसर (पंजाब) के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुई थी। उन्होंने अपना पहला ऩगमा साल 1941 में महज़ 70 साल की उम्र में एक पंजाबी फिल्म ‘गुल बलोच’ के लिए रिकॉर्ड किया था, जो साल 1944 में रिलीज़ हुई। इस फिल्म के संगीतकार थे श्याम सुंदर और गीत के बोल थे, ‘सोनिये नी, हीरिये ने’। संगीतकार श्याम सुंदर ने ही मो. ऱफी को हिंदी फिल्म के लिए सबसे पहले गवाया। फिल्म थी ‘गांव की गोरी’, जो साल 1945 में रिलीज़ हुई। उस वक्त भी हिंदी फिल्मों का मुख्य केन्द्र मुम्बई ही था। लिहाजा अपनी किस्मत को आजमाने मो. ऱफी बम्बई पहुंच गए। उस समय संगीतकार नौशाद ने फिल्मी दुनिया में अपने पैर जमा लिए थे। उनके वालिद साहब की एक सिफारिशी चिट्ठी लेकर मो. ऱफी बेजोड़ मौसिकार नौशाद के पास पहुंचे। नौशाद साहब ने ऱफी से शुरुआत में कोरस से लेकर कुछ युगल गीत गवाए। फिल्म के हीरो के लिए आवाज़ देने का मौका उन्होंने ऱफी को काफी बाद में दिया। नौशाद के संगीत से सजी ‘अनमोल घड़ी’ (1946) वह पहली फिल्म थी, जिसके गीत ‘तेरा खिलौना टूटा’ से ऱफी को काफी शोहरत मिली। इसके बाद नौशाद ने ऱफी से फिल्म ‘मेला’ (1948) का सिर्फ एक शीर्षक गीत गवाया, ‘ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में’, जो सुपर हिट साबित हुआ। इस गीत के बाद ही संगीतकार नौशाद और गायक मोहम्मद ऱफी की जोड़ी बन गई। इतिहास गवाह है कि इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई सुपर हिट गाने दिए। ‘शहीद’, ‘दुलारी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘दास्तान’, ‘उड़नखटोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’, ‘पाकीज़ा’, ‘मदर इंडिया’, ‘म़ुगल-ए-आज़म’, ‘गंगा जमुना’, ‘बाबुल’, ‘दास्तान’, ‘अमर’, ‘दीदार’, ‘आन’, ‘कोहिनूर’ जैसी अनेक फिल्मों ने नौशाद और मो. ऱफी ने अपने संगीत-गायन से लोगों का दिल जीत लिया। जिसमें भी साल 1951 में आई फिल्म ‘बैजू बावरा’ के गीत, तो नेशनल एंथम बन गए। खास तौर पर इस फिल्म के ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द’ गानों में नौशाद और मोहम्मद ऱफी की जुगलबंदी देखते ही बनती है। नौशाद के लिए मो. ऱफी ने तकरीबन 150 से ज्यादा गीत गाए। उसमें भी उन्होंने शास्त्रीय संगीत पर आधारित जो गीत गाए, उनका कोई मुकाबला नहीं। 
1950 और 60 के दशक में मोहम्मद रफी ने अपने दौर के सभी नामचीन संगीतकारों मसलन शंकर जयकिशन, सचिनदेव बर्मन, रवि, रोशन, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, हेंमत कुमार, ओ.पी. नैय्यर, सलिल चौधरी, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल आदि के साथ सैंकड़ो गाने गाए। एक दौर यह था कि मो. ऱफी हर संगीतकार और कलाकार की पहली पसंद थे। उनके गीतों के बिना कई अदाकार फिल्मों के लिए हामी नहीं भरते थे। उन्होंने हर मौके, हर मूड के लिए गाने गाए। मिसाल के तौर पर शादी की सभी रस्मों और मरहलों के लिए उनके गीत हैं। ‘मेरा यार बना है दूल्हा’, ‘आज मेरे यार की शादी है’, ‘बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब’, ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ और ‘चलो रे डोली उठाओं कहार’। हीरो हो या कॉमेडियन सबके लिए उन्होंने प्लेबैक सिंगिंग की, लेकिन गायन की अदायगी अलग-अलग। मो. ऱफी के गीतों का ही जादू था कि कई अदाकार अपनी औसत अदाकारी के बावजूद फिल्मों में लंबे समय तक टिके रहे। सिर्फ गानों की बदौलत उनकी फिल्में सुपर हिट हुईं। ऱफी साहब के गाने का अंदाज़ भी निराला था। जिस अदाकार के लिए वे प्लेबैक सिंगिंग करते, पर्दे पर ऐसा लगता कि वह ही यह गाना गा रहा है। य़कीन न हो तो भारत भूषण, दिलीप कुमार, शम्मी कपूर, देव आनंद, गुरुदत्त, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर, धर्मेन्द्र, ऋषि कपूर आदि अदाकारों के लिए गाये उनके गीतों को ध्यान से सुनिए-देखिए, आपको फर्क दिख जाएगा। किस बारीकता से मो. ऱफी ने इन अदाकारों की एक्टिंग और उनकी पर्सनेलिटी को देखते हुए गीत गाये हैं। साल 1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाज़ा। 31 जुलाई, 1980 को महज पचपन साल की उम्र में मो. ऱफी इस दुनिया को अलविदा कह गए।

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