उठने लगे हैं न्यायपालिका की साख पर सवाल

सुप्रीम कोर्ट ने हिंडनबर्ग मामले में अडाणी समूह के खिलाफ जांच के लिए सेबी पर भरोसा जताते हुए विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन की मांग को ठुकरा दिया है। अदालत ने कहा है कि सेबी ही जांच को आगे ले जाएगी। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में हिंडनबर्ग और संबंधित मीडिया रिपोर्टों को अविश्वसनीय मानते हुए उनकी साख पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर दो विपक्षी दलों की सधी हुई प्रतिक्रिया गौरतलब रही। कांग्रेस ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय देते हुए ‘असाधारण उदारता’ दिखाई है, जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने कहा कि यह फैसला देकर न्यायपालिका ने अपनी प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी नहीं की है। इन दोनों पार्टियों सहित विपक्ष के और सिविल सोसायटी के भी एक बड़े हिस्से में इस फैसले को सिर-आंखों पर लेने का भाव नहीं दिखा है। 
लोगों ने सोशल मीडिया पर इस फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पर तरह-तरह से तंज कसे हैं। ऐसा होना क्या सर्वोच्च अदालत की घटती साख का संकेत नहीं है? लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में आम धारणा यह होती है कि सरकार विभिन्न हितों के बीच समन्वय बनाने वाली इकाई है। अगर वह या उसकी संस्थाएं ऐसा करती नहीं दिखती हैं तो शिकायत न्यायपालिका के पास जाती है। न्यायपालिका के फैसले को सभी संबंधित पक्ष पूर्ण विश्वास के साथ स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन भारत में यह परम्परा तेज़ी खत्म होती दिख रही है, जो कि चिंता की बात है। 
संवाद से परहेज़ और मनमानी का नतीजा
पहले भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, फिर तीन कृषि कानून और अब ड्राइवरों के लिए बना ‘हिट एंड रन’ कानून। तीनों ही मामलों में संगठित विरोध के चलते केंद्र सरकार को अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर होना पड़ा। अगर सरकार कानून बनाने के पहले सभी हित-धारकों से संवाद के रास्ते पर चलती तो ट्रक, बस और टैंकर ड्राइवरों को हड़ताल पर नहीं जाना पड़ता, लेकिन हित-धारकों की बात तो दूर, सरकार ने देश की आपराधिक दंड संहिता और साक्ष्य कानून में व्यापक बदलाव करते वक्त विपक्ष के साथ भी संवाद कायम नहीं किया। अब चूंकि नई भारतीय न्याय संहिता के प्रावधानों के बारे में प्रभावित हो सकने वाले लोगों को जानकारी मिल रही है, तो उनका असंतोष सामने आ रहा है। इसकी पहली मिसाल डाइवरों की हड़ताल के रूप में देखने को मिली, जिसका सीधा असर आम परिवहन और ज़रूरी चीज़ों की सप्लाई पर पड़ा। जब हड़ताल से जन-जीवन बाधित हुआ, तब केंद्र की तरफ  से ड्राइवरों के संगठनों से बातचीत की पहल की गई।
 फिलहाल, सरकार के आश्वासन पर यकीन कर ड्राइवरों ने हड़ताल वापस ले ली है, लेकिन इस प्रकरण से मौजूदा सरकार की पहले निर्णय लेने और फिर सोचने के रवैये पर एक बार फिर से गंभीर सवाल ज़रूर खड़े हुए हैं। यह सच है कि भारत में ट्रक-बस-टैंकर ड्राइवरों का जीवन मुश्किलों से भरा होता है। हादसे हमेशा उनकी गलती से नहीं होते। भारत की सड़कें और लचर ट्रैफिक सिस्टम भी अक्सर हादसों की वजह बनते हैं। जहां ड्राइवरों की गलती हो, उन्हें बेशक सज़ा मिलनी चाहिए, लेकिन हादसे की कुल परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
अक्तूबर के बाद शुरू होगी जनगणना 
अब यह तय हो गया कि अगले साल लोकसभा चुनाव के बाद ही जनगणना होगी। हालांकि 2020 में इसकी प्रक्रिया शुरू हो गई थी लेकिन उसी समय कोरोना महामारी आ गई, जिसके चलते 2021 की जनगणना रोक दी गई थी। हालांकि महामारी के दौरान भी चुनाव हुए और खूब जम कर चुनाव प्रचार भी हुआ, खूब रैलियां और रोड शो भी हुए। महामारी खत्म हो जाने के बाद सारी चीजें रूटीन में होने लगी, लेकिन सरकार ने जनगणना का काम शुरू नहीं कराया। हर 10 साल पर होने वाली जनगणना 1881 में शुरू हुई थी और युद्ध, आपदा के बावजूद तय समय पर होती रही थी। पहली बार ऐसा हुआ है कि जनगणना नहीं हुई। अब इसे अक्तूबर तक टाल दिया गया है। असल में जनगणना शुरू होने से तीन महीने पहले सभी राज्यों, जिलों, प्रखंडों की भौगोलिक सीमा में बदलाव को रोक दिया जाता है। जब तक यह रोक नहीं लगाई जाती है तब तक जनगणना शुरू नहीं हो सकती। पिछले तीन साल से ज्यादा समय से लगातार रोक लगाने की सीमा को आगे बढ़ाया जा रहा है। अब तक नौ बार इसे आगे बढ़या जा चुका है। नौवीं बार इसे आगे बढ़ाने का फैसला पिछले दिनों हुआ है। इसे छह महीने यानी 30 जून, 2024 तक बढ़ा दिया गया है। इस समय सीमा के तीन महीने बाद यानी 31 अक्तूबर के बाद ही जनगणना की शुरुआत हो सकती है।
अब आसान नहीं रेलवे से सूचना लेना 
सूचना के अधिकार की बदौलत देश के लोगों को यह तो पता चल गया कि रेलवे स्टेशनों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ सेल्फी के लिए जो प्वाइंट बनाए जा रहे हैं, उन पर कितना खर्च आ रहा है, लेकिन उसका नुकसान यह हुआ है कि अब देश के लोगों को रेलवे के बारे में अन्य सूचनाएं हासिल करना मुश्किल हो गया है। असल में मध्य रेलवे के एक डिप्टी जनरल मैनेजर अभय मिश्रा ने रेलवे के ही एक पूर्व कर्मचारी के आवेदन पर बताया था कि 3डी सेल्फी प्वाइंट बनाने पर साढ़े छह करोड़ और अस्थायी सेल्फी प्वाइंट बनाने पर डेढ़ लाख रुपये का खर्च आ रहा है। सूचना मिलने के बाद यह खबर अखबारों में छप गई और दो दिन के अंदर ही मध्य रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी शिवाजी मानसपुरे का तबादला हो गया। उनकी नियुक्ति सिर्फ  सात महीने पहले ही हुई थी। आमतौर पर रेलवे में पोस्टिंग दो साल के लिए होती है। हालांकि रेलवे ने कहा है कि उनके तबादले को इस घटना से जोड़ कर नहीं देखा जाए, लेकिन सबको पता है कि उनके तबादले की वजह यही है। इसके साथ ही अब यह नियम लागू कर दिया गया है कि रेलवे में सूचना अधिकार के तहत आने वाले किसी भी आवेदन का जवाब अब जनरल मैनेजर से नीचे के स्तर का कोई अधिकारी नहीं देगा।
सीवर सफाई कर्मियों की मुश्किलें
भारत में आज भी इन्सान के हाथों सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई एक बड़ी समस्या है और देश के चेहरे पर एक बदनुमा दाग भी। यह मानवीय गरिमा के अनादर और उसके प्रति बेरुखी का प्रमाण है कि देश में आज भी हज़ारों लोग सीवरों और सेप्टिक टैंकों सफाई करने के लिए उनमें उतरने के लिए मजबूर है, जबकि साल 2013 में ही इस चलन पर कानूनन प्रतिबंध लगा दिया गया था। ज़ाहिर है, वह पाबंदी सिर्फ  कागज पर सिमट कर रह गई है। संसद के हाल ही में खत्म हुए सत्र में सरकार ने बताया कि इस साल 20 नवम्बर तक सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान 49 मौतें दर्ज की गईं। अब ताज़ा खबर यह है कि सीवर में उतरने के कारण जो मज़दूर मर जाते हैं, उनके आश्रितों को मुआवज़ा देने में अपेक्षित तत्परता नहीं दिखाई जाती। इसी साल अक्तूबर में सुप्रीम कोर्ट ने सीवर की सफाई के दौरान होने वाली मौतों के बारे में एक अहम आदेश में कहा था कि जो लोग सीवर की सफाई के दौरान मारे जाते हैं, उनके परिवार को सरकार को 30 लाख रुपये की सहायता देनी होगी। इसके पहले 2014 में भी सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया था, जिसमें मृतकों के परिवार को दस लाख रुपये की सहायता देने को कहा गया था। अब सामने आया है कि 1993 से इस साल 31 मार्च तक देश के विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सीवर में होने वाली मौतों के 1,081 मामलों में से 925 मामलों में ही मुआवज़े का भुगतान किया गया है। यह आंकड़ा राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग ने दिया है।