शायरी में लोकप्रियता के ‘राणा’ थे  मुनव्वर राना

‘किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आयी/मैं घर में सबसे छोटा था मिरे हिस्से में मां आयी।’ यह शेर जहां घर-घर की कड़वी सच्चाई को प्रतिविम्बित करता है वहीं इस लिहाज़ से मील का पत्थर है कि इसके बाद मां, मां का दु:ख दर्द, मां की खुशी, मां के एहसास व जज़्बात आदि भी उर्दू व हिंदी शायरी में प्रमुख विषय बन गये। आज आप उर्दू के किसी भी शायर या हिंदी के किसी भी कवि का काव्य-संग्रह उठाकर देख लो, आपको मां पर कोई शेर या कविता अवश्य मिल जायेगी। अगर नासिर काज़मी ने ़गज़ल को गुलो-बुलबुल व जामो-मीना के रिवायती प्रतीकों से बाहर निकालकर उसे जदीद (आधुनिक) व समकालीन मुद्दों से परिचित कराया, उसे नया मोड़ दिया, तो मुनव्वर राना ने ़गज़ल को महबूबा की जुल्फों से मुक्त कराकर उसे मां के चरणों में अर्पित कर दिया और साथ ही उसे आम मेहनतकश इंसान की आवाज़ बना दिया- ‘सो जाते हैं फुटपाथ पे अखबार बिछाकर/मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।’ मुनव्वर राना का साहित्य में यह इतना महत्वपूर्ण योगदान है, जो उन्हें इतिहास में हमेशा ज़िन्दा रखने के लिए पर्याप्त है। 
मुनव्वर राना की ख़ास-ओ-आम में ख्याति के और भी कारण हैं। एक तो उन्होंने अपने काव्य में अवधी मिश्रित ऐसी आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया, जिसके शब्दों के अर्थ को समझने के लिए कभी शब्दकोश खोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती। दूसरा यह कि उन्होंने अपना दर्शन कभी नहीं थोपा बल्कि आम आदमी के एहसास व भावनाओं को इस तरह अल्फाज़ के पैकर में ढाला कि जो भी सुनता है, उसे अपनी ही दास्तां मालूम होती है। मसलन उनके मुहाजिरनामा को ही लें, जो 500 शेरों पर आधारित है। हालांकि यह कविता भारत के बंटवारे से प्रभावित शरणार्थियों (मुहाजिरों) के दर्द व उनकी यादों को बयान करती है, लेकिन आज के दौर में मुहाज़िर कौन नहीं है, नौकरी, कारोबार या अन्य कारणों से हर कोई अपनी जड़ों से दूर दूसरे शहरों, प्रदेशों या देशों में रहने के लिए मज़बूर है यह कहते हुए ‘हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चांद’। मुनव्वर राना के शब्दों में- ‘मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आये हैं/तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आये हैं। नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में/पुराने घर की दहलीजों को सूना छोड़ आये हैं। पकाकर रोटियां रखती थी मां जिसमें सलीके से/निकलते वक्त वो रोटी की डलिया छोड़ आये हैं। यकीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद/हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आये हैं। हमारे लौट आने की दुआएं करता रहता है/हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आये हैं।’ 
मुनव्वर राना का जन्म 26 नवम्बर, 1952 को रायबरेली में हुआ था, लेकिन बचपन से जवानी तक वह कोलकाता में रहे, जहां उनकी मुलाकात अब्बास अली खान ‘बेखुद’ से हुई। वह न केवल ‘बेखुद’ के शागिर्द बने बल्कि जीवनभर उन्हीं से ही प्रभावित रहे। अपने उस्ताद की शिक्षा और अपने जुनून के बल पर मुनव्वर राना ने शायरी की दुनिया में ़कदम रखा और अपनी विशिष्ट शैली से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। युवाओं में अपनी पैठ आसानी से बनाने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी शायरी में सरल भाषा का प्रयोग किया। अपने इस मिशन में वह इस हद तक सफल रहे कि आज युवाओं के बीच में ही वह सबसे लोकप्रिय हैं- ‘कभी खुशी से खुशी की तरफ नहीं देखा/तुम्हारे बाद किसी की तरफ नहीं देखा‘ या ‘भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है/मुहब्बत करने वाला इसलिए बर्बाद रहता है’। मां से संबंधित उनके शेर तो लोगों की ज़बान पर अमर हो गये हैं कि मदर्स डे पर उनके ही शेरों को सबसे ज़्यादा कोट किया जाता है- ‘इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है/मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है’। यह उनके कलम की ताकत ही थी कि उन्होंने जो भी लिखा उसका समाज पर गहरा असर पड़ा। इसी कारण उनके काव्य का गुरुमुखी, बांग्ला, अंग्रेज़ी, तमिल, मलयालम सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। मुनव्वर राना को 2014 में ‘शाहदाबा’ के लिए साहित्य अकेडमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
मुनव्वर राना की ख्याति केवल मां या मुहाज़िरों पर लिखे उनके शेरों तक सीमित नहीं हैं। दरअसल, उन्होंने अपनी शायरी में जीवन के हर पहलू को स्पर्श किया है। उनके कुछ शेर सुनिये तो आपको इस बात का खुद अंदाज़ा हो जायेगा- ‘बरसों से इस मकान में रहते हैं चंद लोग/इक दूसरे के साथ व़फा के बगैर भी।’ इस शेर का फलक इतना विशाल है कि अनगिनत स्थितियों में इसे कोट किया जा सकता है। मुनव्वर राना के लगभग सभी रिश्तेदार बंटवारे के समय पाकिस्तान चले गये थे, लेकिन वह नहीं गये, क्यों? जवाब में देशप्रेम पर उनका यह शेर है- ‘मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता/अब इससे ज्यादा मैं तेरा हो नहीं सकता।’
मुनव्वर राना की एक दर्जन से अधिक प्रकाशित पुस्तकों में विशेषरूप से चर्चित हैं ‘फिर कबीर’, ‘़गज़ल गांव’, ‘नीम के फूल’, ‘पीपल छांव’ आदि। उन्होंने कविता के अतिरिक्त संस्मरण भी लिखे हैं। मुनव्वर राना का लम्बी बीमारी के बाद 14 जनवरी, 2024 को लखनऊ के एक अस्पताल में निधन हो गया- ‘तो अब इस गांव से रिश्ता हमारा खत्म होता है/फिर आंखें खोल ली जायें कि सपना खत्म होता है।’ इसी संदर्भ में उनका एक दूसरा शेर है- ‘जिस्म पर मिट्टी मलेंगे पाक हो जायेंगे हम/ए ज़मीं एक दिन तेरी खुराक हो जायेंगे हम।’

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