नितीश कुमार के यू-टर्न से पड़ सकते हैं दुष्प्रभाव भी 

बिहार में नितीश कुमार के यू-टर्न ने दृश्य मीडिया के सारे मानक ध्वस्त कर मोदी के मन की बात को भी नेपथ्य में डाल दिया। क्या सचमुच यह इतनी बड़ी घटना थी कि मोदी महात्म्य की मर्यादायें लांघ जाए। मात्र एक मुख्यमंत्री का पल्टी मारकर दूसरे पाले में चले जाना कोई इतनी बड़ी घटना कभी नहीं हो सकती थी जबकि उसके साथ विश्व के सबसे लोकप्रिय नेता की रणनीति का परिरक्षण न हो। सचमुच यह नितीश कुमार के इस्तीफे की खबर मात्र नहीं थी। यह वस्तुत: मोदी की चाणक्य नीति का परीक्षण था। मीडिया सहित देश के अधिकांश नागरिक टकटकी लगाये टीवी देख रहे थे और पल्टीमार चाचा की पल्टी की अगली करवट को देख रहे थे। आखिर लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप चाचा पल्टी मारकर रामनामी चादर में समा गये। नितीश के राजग में आने के क्या प्रभाव हो सकते हैं, आइये इनका परीक्षण करें। 
नितीश की इस पल्टी का सबसे ज्यादा नुकसान अगर किसी को हुआ है तो स्वयं नितीश को। अपने कार्यकाल के प्रथम पांच वर्षों में बनायी ‘सुशासन बाबू’ की छवि तो बार-बार लालू खेमे में जाकर वह बर्बाद कर ही चुके थे। इस बार की पल्टी से बची खुची भी समाप्त कर ली। अच्छा होता कि वह पल्टी तो मारते लेकिन मुख्य मंत्री पद से इस्तीफा देकर अपनी गरिमा बचाए रखते। जिस तरह की परिस्थितियों में राजद के साथ नितीश अपनी सरकार चला रहे थे, वह उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं थी। उनके हाथ मानो बांध कर रख दिये गये थे, और उनके दल को तोड़ कर उन्हें पैदल करने की योजना अंतिम चरण में थी। इस असहाय अवस्था में उन्होंने अपने माध्यमों से मोदी और शाह से बात की और भाजपा की शर्तों पर राजग के छाते तले चले गये जहां वह अति सहज भी रहते हैं लेकिन स्थिति इस बार उनके पक्ष में न होकर भाजपा के पक्ष में थी। उनके दो धुर विरोधी सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा उनके साथ बैठे थे। सम्राट चौधरी तो वही पगड़ी पहने बैठे थे जिसे उन्होंने नितीश के हटने पर ही हटाने की बात कभी कही थी। देखिये, अब कब तक यह पगड़ी बंधी रहती है। 
अब बात करें बंगाल और पंजाब में अंगभंग के बाद आईसीयू में पड़े बिहार की आक्सीजन पर चल रहे इंडी अलायन्स के प्रमुख घटक कांग्रेस की। राम मन्दिर लहर के महासागर के भंवर में डूब कर अंतिम सांसें ले रहे इस अलायन्स को उत्तर प्रदेश में पहले ही ग्यारह सीटों की ‘इनायत’ देकर, अखिलेश हाथ झाड़ रहे हैं। स्वयं कांग्रेस इस स्थिति में है नहीं कि अपने बल पर सारी सीटों पर लड़ ले। महाराष्ट्र में शरद पवार शक्तिहीन हो चुके हैं। उद्धव शिवसेना कुछ न रह जाने पर भी ज्यादा सीटों पर हक जमा रही है। दक्षिण के तेलंगाना में कुछ आंसू पुंछ सकते हैं मगर केरल और तमिलनाडु में अस्तित्वहीन कांग्रेस को जो मिल जाये, वही गनीमत है। आंध्र में भी कोई खास उम्मीद नहीं लगती है। बेचारा कर्नाटक अब जितनी आक्सीजन दे सकता है, वह चुनाव तक बोलने लायक बनाये रख सकती है। फिर कांग्रेस के ‘स्टार प्रचारक’ राहुल गांधी तो हैं ही। बिहार के दस से चौदह कांग्रेसी विधायक कब भाजपा ज्वायन कर लें, किसी को पता नहीं जबकि राजद के विधायक इन्टेक्ट हैं।
जहां तक राजद का प्रश्न है, नितीश को अगर लालू और तेजस्वी ने संभाल कर रखा होता तो शायद जद-यू का नितीश के साथ मजबूती से संलग्न कुर्मी वोटर कुछ सीटें राजद की झोली में डाल कर भाजपा के लिए एक चुनौती खड़ी कर सकता था मगर अब वह भाजपा की ओर स्वाभाविक रूप से चला जाएगा। रामलहर में कुछ यादव वोट कटेगा और बचे खुचे यादव और मुस्लिम वोट किशनगंज की सीट के अलावा कोई अन्य बढ़ोत्तरी कर सकें, इसमें शक है। एक बड़ी गलती राजद ने और की है। तमिलनाडू कैडर के एक बड़े पुलिस अधिकारी जिन्होंने लालू और तेजस्वी के इशारे पर मनीष कश्यप के विरुद्ध केस बनाने में सहायता की थी और अब रिटायर होकर वापस बिहार आ गये हैं, को राजद की सदस्यता दे दी गयी है और चर्चा है कि उन्हें निर्वाचन में खड़ा किया जाएगा। राजद के लिए यह प्रकरण ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पातरू’ साबित होगा। सच बात तो यह है कि राजद भी आईसीयू में जाने की तैयारी में है। लालू कुछ दिनों बाद फिर से जेल जायेंगे सो अलग। विधानसभा की अध्यक्षता भी जायेगी। 
जिस तरह से पल्टी मारने की खबरों के बाद से ही लालू परिवार द्वारा नितीश कुमार को गरियाया जा रहा है, उनके लिए अशिष्ट शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है, वह आग में घी का काम कर रहा है और पल्टूराम के पुन: पल्टी मारकर वापिस लौट आने के रास्ते को भी बंद कर रहा है जो लालू परिवार के हित में तो बिल्कुल नहीं है। इंडी अलायन्स के कई प्रमुख दलों की तरह राजद परिवारवाद के आरोपों से आकंठ सना है। यह ‘करेला ऊपर से नीम चड़ा’ कहावत चरितार्थ करेगा। 
राजनीति के इस खेल में सबसे अधिक फायदे में भाजपा है। इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी और शाह पूरी तरह पका कर ही खाते हैं ताकि अपच न हो। भाजपा इस समय बिहार के लिए एक सशक्त चेहरा तलाश रही है। इसलिए उसने दो मुख्यमंत्री मैदान में उतारे हैं। विजय सिन्हा ‘खांटे संघी’ हैं तो सम्राट चौधरी युवा और एबीवीपी से आये हैं। इन दोनों में से कौन अपने कर्मों से अगले विधानसभा चुनाव का चेहरा बनेगा, यह भविष्य बतायेगा। आंतरिक बात तो पता नहीं है लेकिन कयास लगाये जा रहे हैं कि लोकसभा चुनावों में पांच प्रत्याशी जद-यू के टिकट पर भाजपा के लोग लड़ेंगे। विधानसभा अध्यक्ष भाजपा का होगा। कम विधानसभा सदस्यों के आने पर नितीश मुख्यमंत्री पद की मांग नहीं करेंगे। चुपचाप कहीं का राज्यपाल होकर चले जायेंगे। रामलहर का जितना लाभ भाजपा को उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, हिमाचल, आसाम और गुजरात में मिलेगा, उससे कम बिहार में नहीं रहेगा। पूरा बिहार राममय है। उत्तर प्रदेश के योगीराज की धमक अपना अलग रंग दिखलाएगी। मध्य प्रदेश के यादव मुख्यमंत्री का भी यादवों पर असर होना ही है। मंत्रिमंडल में जिस तरह से बिहार की नब्ज, जातीय समीकरण पर हाथ रखा गया है, वह अवश्य सीटों में बढ़ोत्तरी का काम करेगा।  तेजस्वी की टक्कर के लिए भाजपा के पास चिराग पासवान जैसा सहायक युवा है जिसके निशाने पर इस बार नितीश नहीं बल्कि तेजस्वी और लालू परिवार होगा और यह लालू परिवार के लिए मिसाइल साबित होगा। 
सबसे बड़ी बात भाजपा के पास मोदी जैसा प्रखर वक्ता, सशक्त कूटनीतिज्ञ, धीर-गंभीर व्यक्तित्व वाला विश्वसनीय नेता है जिसके वादों पर जनता विश्वास करती है और जो जनता के अपने नेता के लिए निर्धारित मानकों पर खरा उतरता है। कुल मिलाकर बिहार में परिस्थितियां भाजपा के पक्ष में हैं और लोकसभा चुनाव में भाजपा किशनगंज की सीट को छोड़ कर शेष सभी 39 सीटें आराम से जीत सकती है।