बड़ी अद्भुत प्रेम कहानी

मुझे यह कहानी दादी ने सुनाई थी। अरे, वह दादी! जो पूरे मुहल्ले की ही दादी थी। यहां तक कि हमारे बड़े लोग भी उसे दादी ही कहते थे यानि कि मेरी मां भी। दादी का नाम क्या था, यह भी कोई नहीं जानता था। दादी के नाम कभी कोई पत्र भी कहीं से नहीं आया था। लगता था जैसे वे इसी मिट्टी से उपजी हों।
बहुत प्यारी लगती थी वह, गोरी चिट्टी दादी की नीली आंखें जीव मात्र पर प्यार बरसाती दादी। इस उमर में भी बला की खूबसूरत। उनका मैदे जैसा सफेद रंग सबकी आंखें चुंधिया देता। इंसान तो क्या जानवरों के लिए भी उनके प्यार का कोष भरपूर रहता। उनके पास मुहल्ले की औरतों को देने के लिए अनुभवों की बहुत बड़ी पिटारी थी तो नई पीढ़ी के लिए रोचक कहानियां। इसीलिए वह अकेली होते हुए भी अकेली नहीं थी। उसके पास हर पल जमघट लगा रहता, पर हां समय सबका अलग ही रहता। औरतों की मंडली दोपहर को अपनी सिलाई-कड़ाई लेकर दादी के बरामदे में हाज़िर रहती तो बच्चे शाम तक प्रतीक्षा करते। जब उनकी माताएं भोजन बनाने में व्यस्त होतीं तो बच्चे दादी के पास कहानियां सुनने पहुंच जाते। बस बड़े लोग यानि कि पुरुष वर्ग दादी को आते-जाते प्रणाम या राम राम कहता देखा जा सकता था। हम कुछ बीच की उम्र की लड़कियों को तो मौका तलाश करना पड़ता था दादी के पास बैठने के लिए। दादी उस दोमंजिले मकान में अकेली रहती थी। हमारा परिवार दादी के मकान में ऊपर वाले हिस्से में बहुत बरसों से रहता था और दादी नीचे के तल पर। अब तो दादी हमारे परिवार का हिस्सा हो गयी थी। मैंने अपनी मां से सुना था कि दादी इस मुहल्ले में अपने तीन साल के बेटे के साथ आई थी। बेटा बाद में पढ़ने के लिए विदेश गया तो वहीं का होकर रह गया। एक बार भारत आया तो दादी से मकान बेचकर अपने साथ चलने की बात करने लगा, पर दादी ने साफ मना कर दिया था। बस उसके बाद न वह घर आया और न उसकी कोई खबर आई। इससे ज्यादा कोई कुछ नहीं जानता था। दादी न तो कभी उसकी बात करती और न किसी की उनसे कुछ पूछने की हिम्मत होती। 
लो! कहां तो मैं दादी की सुनाई कहानी की बात कर रही थी और कहां दादी की कहानी कहने लगी। हां, तो हुआ यूँ कि उन दिनों दादी कुछ बीमार चल रही थी। बीच में उनका बुखार बढ़ गया जिससे मेरी मां ने मुझे रात को दादी के पास सोने के लिए कहा। हम लोग तो दादी के पास जाने का बहाना ही खोजते रहते थे, तो मैं खुशी-खुशी रोज़ ही दादी के पास सोने चली जाती। पर हां! एक बात इन दिनों और भी हुई। दादी के पास एक वकील भी आने लगा था। पर इस तरफ किसी ने ज्यादा ध्यान ही नहीं दिया। क्योंकि दादी तो सबकी ही दादी थी और फिर उस वकील का आना भी बंद हो गया। दादी से कौन पूछता कि वह कौन है? बस उसके काले कोट से ही सब ने सोच लिया, कि वह वकील है। धीरे-धीरे दादी ठीक हो रही थी पर मैंने वहां जाना बंद नहीं किया। ऐसे में जब दादी को नींद नहीं आती तो वह कोई न कोई कहानी सुनाती। एक दिन कहा दादी ने, ‘वो बहुत खूबसूरत था, बिल्कुल पठान। ऊंचा-लम्बा, सुर्ख-सफेद रंग, नीली आंखें।’
‘कौन दादी?’
‘अरे मरी! कहानी सुन। खोजबीन मत कर।’
‘हां दादी, सुनाओ।’ मैं तेल की शीशी उठा लाई और दादी की टांगों की मालिश करने लगी। दादी ने बात बढ़ाई, ‘वो बहुत खूबसूरत था। उसकी आंखें जैसे हर चीज़ को चीर कर भीतर देख लेती थीं। गांव के दूध-घी का पला मजबूत कद काठी वाला कड़ियल जवान।’
‘दादी! मुहल्ले की लड़कियों के हाल भी तो बताओ।’ मुझे चुहल सूझी।
‘चुप मरी!’ दादी ने बात काट दी, ‘दो साल पहले ही गांव से आया था बीवी और एक छोटी-सी चार माह की बच्ची के साथ। बहुत मेहनती और मिलनसार इंसान। पहले उसने रोज़गार के लिए दो भैंसें खरीदीं। उनका दूध बेचकर काम चलाता था। फिर कुछ और भैंस-गाय खरीदी। काम बढ़िया चल निकला था। एक साल के भीतर ही उसने एक इक्का भी खरीद लिया। जब इक्का खरीदा तो घोड़ा भी चाहिए। उसे घोड़े भी दो चाहिए थे, क्योंकि उसका इक्का दो घोड़े वाला था।’
मैं हंसने लगी तो दादी चिढ़ गई, ‘क्यों री! किस बात की हंसी आई तुझे?’
‘दादी! आजकल कहां से आ गए इक्के तांगे? आजकल तो लोग मोटरसाइकिल और कार की बात करते हैं।’ मैंने हंसते हुए कहा। 
‘तो मैं कौन सी आज की बात बता रही हूँ। यह तो आजादी से पहले की बात है। वह भी रावलपिंडी शहर की।’
‘दादी! उन दिनों तो तुम भी जवान ही होंगी न?’ मैंने फिर टांग अड़ाई पर दादी ने ध्यान नहीं दिया।
‘उन दिनों जैसा इक्का उसने खरीदा था उसे तो रईस लोग ही खरीदा करते थे बल्कि उसे तो बग्घी कहा जाता था। चमचमाता पीतल के काम वाला इक्का। उसमें जुती साटन सी चमकती दो लाखी (लाख के रंग वाली) घोड़ियां उसके रईसी ठाठ की चुगली खाती थीं। पर वह खुद कभी-कभी ही इक्का चलाता था। उसने एक नौकर रख लिया था इक्का चलाने के लिए। मुहल्ले वालों को जल्दी ही पता चल गया था
कि यह इक्का उसने सिनेमा के शौकीन लोगों के लिए खरीदा था। अच्छी कमाई हो जाती थी उसकी।’
‘दादी, तब भी ऐसे ही सिनेमा हुआ करते थे क्या?’ सिनेमा के नाम से मेरे कान खड़े हो गये थे।
‘हाँ, तब तक बोलने वाला सिनेमा चल चुका था।’ दादी की आंखें छत पर लगी हुई थीं, जैसे वहां उन्हें वह सब दिखाई दे रहा है जो वे मुझे बता रही हैं।
‘फिर?’
‘फिर यह कि वह इक्का पैसे वालों को सैर के लिए भी देने लगा था। इससे घोड़ियों को थकान होती है यह सोचकर उसने दो घोड़ियां और खरीद लीं। धीरे-धीरे उसका कारोबार खूब फलने फूलने लगा।’
‘उसका नाम क्या था दादी?’
‘तुझे कहानी सुननी है या नहीं? बीच में मत टोक।’ दादी शायद खीझ गयी थी और मेरी तरफ पीठ पलटकर कम्बल सिर तक खींच लिया।
 

(क्रमश:)