शिक्षा का निरन्तर गिरता मयार

किसी भी देश की सांस्कृतिक एवं मानवीय उन्नति के लिए शिक्षा बहुत अहम भूमिका निभाती है, किन्तु अपने देश के सरकारी शिक्षण संस्थानों में दी जा रही शिक्षा की दुरावस्था का आलम यह है कि देश का हित-चिन्तन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का चिन्तित होना बहुत स्वाभाविक है। शिक्षा के धरातल पर यूं तो पूरे देश की हालत एक जैसी है, किन्तु ग्रामीण स्तर पर यह हालत अति शोचनीय है। सितमज़रीफी की बात यह भी है कि यह सम्पूर्ण विवरण स्वयं सरकार की अपनी एक प्रमाणित रिपोर्ट में दर्ज किया गया है। यह रिपोर्ट बेशक पूरे देश पर आधारित है, किन्तु रिपोर्ट के इस अंश में विशेष रूप से पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, उत्तराखंड और राजस्थान के हिस्से वाले सर्वेक्षण को दर्ज किया गया है। इस सर्वेक्षण के अन्तर्गत 14 से 18 वर्ष की आयु वर्ग के विद्यार्थियों को शामिल किया गया है। एनुअल स्टेटस ऑफ एजूकेशन रिपोर्ट-2023 के अनुसार दसवीं पास और यहां तक कि जमा एक और जमा-दो के बच्चे सैकेंड स्टैंडर्ड के अंग्रेज़ी और अपनी क्षेत्रीय एवं मातृ-भाषा पंजाबी के एक पूरे वाक्य का सही उच्चारण तक नहीं कर सके। गणित विषय को लेकर तो स्थिति और भी खराब नज़र आई। दसवीं पास तक के बच्चे तीन अंकों के जमा-मनफी का एक पूरा प्रश्न भी हल नहीं कर पाये। पंजाब के 43.1 प्रतिशत विद्यार्थियों पर किये गये इस सर्वेक्षण के अनुसार इनमें से 12.8 प्रतिशत बच्चे दूसरी श्रेणी के पंजाबी का एक पूरा वाक्य सही उच्चारण के साथ नहीं पढ़ पाये। इसके विपरीत पंजाब के 97.9 प्रतिशत बच्चे स्मार्ट फोन का प्रयोग करने में बड़े सिद्धहस्त पाये गये।
इस सर्वेक्षण के अन्तर्गत कुल 26 राज्यों के 28 ज़िलों में विद्यार्थियों से मौका पर सवाल पूछे गये। इस रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि अधिकतर बच्चों में आधारभूत योग्यता की भी कमी पाई गई किन्तु इस स्थिति का त्रासद पक्ष यह भी रहा कि ये बच्चे बाकायदा परीक्षा में बैठते हैं, और पास भी हो जाते हैं। उन्हें अगले वर्ष का पाठ्यक्रम प्रदान किया जाता है किन्तु पिछली श्रेणियों और पिछले पाठ्यक्रम में उनकी बौद्धिक क्षमता को कभी भी, और कहीं भी आंका नहीं जाता। लिहाज़ा, उनकी बौद्धिक योग्यता दूसरी-तीसरी कक्षा के पाठ्यक्रम के समकक्ष भी नहीं पहुंच पाती। इस सम्पूर्ण आंकड़ा विवरण में एक और विचित्र पक्ष यह भी है कि जिन विद्यार्थियों ने पढ़ने और लिखने में कुछ कार्य-दक्षता का प्रदर्शन किया, उनमें 76 प्रतिशत लड़कियां रहीं जबकि इस रेखा को पार करने वाले विद्यार्थियों में लड़कों की तादाद 70.9 प्रतिशत रही। 
रिपोर्ट में एक और चिन्ताजनक पक्ष यह भी रहा बताया जाता है कि व्यवसायगत शिक्षा को लेकर विद्यार्थियों में निरन्तर क्षरण होते पाया गया है। व्यवसायगत शिक्षा का प्रतिशत कम से और कम होते  चला गया है। ऐसे पाठ्यक्रम का सांझा प्रतिशत केवल 5.6 प्रतिशत तक पाया गया। पंजाब में यह स्थिति इसलिए भी दुखद रही कि सर्वेक्षण में जिस एस.ए.एस. नगर को शामिल किया गया, वह शिक्षा के धरातल पर इतना फिसड्डी कभी नहीं माना गया है।
शिक्षा विभाग के सूत्रों के अनुसार यह स्थिति कोई एकाएक नहीं पैदा हुई है। पंजाब को केन्द्र में लेकर बात करें, तो विगत में किये गये कई सर्वेक्षणों में इस संबंधी दुरावस्था का ज़िक्र किया जाता रहा है। इसके लिए कई कारण उत्तरदायी हो सकते हैं जिनमें बड़ा कारण शिक्षकों की कमी और मौजूदा प्रणाली में प्रतिबद्धता की कमी को माना जा सकता है। स्कूलों में अध्यापकों से शिक्षा के इतर काम लिये जाने से भी स्थितियां गम्भीर होती हैं। स्कूलों में सिर्फ पाठ्यक्रम की सम्पन्नता को सामने रख कर स्कूली समय-सारिणी का बनाया जाना भी शिक्षा के रसातल की ओर प्रस्थान हेतु उत्तरदायी हो सकता है। सरकारों द्वारा अपने-अपने निहित स्वार्थ हेतु शिक्षा नीतियों और कार्यक्रम में परिवर्तन किया जाना भी इस दुरावस्था के लिए ज़िम्मेदार हो सकता है। पंजाब में नई सरकार के गठन के बाद शिक्षा नीतियों में किये गये परिवर्तनों ने भी प्रदेश की शिक्षा को प्रभावित किया है।
हम समझते हैं कि नि:संदेह देश को यदि विश्व-धरा पर प्रतिस्पर्धा और समानता में बने रहना है, अथवा आगे बढ़ना है, तो शिक्षा के सम्पूर्ण मूलभूत ढांचे को नये सिरे से खड़ा करना होगा। शिक्षण वर्ग में अध्यापन को लेकर प्रतिबद्धता और शिक्षा के प्रति समर्पण को पैदा कर, उनमें सन्तुष्टि का भाव भी जागृत करना होगा। शिक्षकों का सरकार के विरुद्ध बार-बार आन्दोलनों अथवा संघर्ष हेतु विवश होना भी शिक्षा की दुरावस्था हेतु एक केन्द्र बनता है। हम समझते हैं कि केन्द्र अथवा प्रदेश की सरकारों को शिक्षा के मूलभूत ढांचे को संवारने के लिए अपने-अपने स्तर पर सतत् प्रयास करने होंगे। तभी इस पक्ष से बेहतर परिणाम हासिल किये जा सकते हैं।