हम होंगे कामयाब एक दिन

सपना देखा था, अपनी धरती अपने लोगों के साथ रोटी, कपड़े और मकान का। रोटी, जो भर पेट मिले। चाहे रूखी सूखी हो, अपनी मेहनत की रोटी हो।  हर अधनंगे, लज्जित शरीर को ढकने के लिए उचित कपड़ा हो, और हमारी छत पर केवल नीला आसमान नहीं, सोने के लिए फुटपाथ नहीं, बल्कि एक सभ्य घर मिले, चाहे वह एक कमरे का ही हो। आज़ादी की पौन सदी गुज़र गई। उसका अमृत महोत्सव मनाते हुए यह घोषणा हुई है। इस दिशा में मूलभूत ढांचा बनाने के लिए अब बजट बना काम शुरू किया जाएगा। हम प्रसन्न हो गये, ‘चलो काम तो शुरू हुआ।’ किसी ने नहीं पूछा कि महोदय, इससे पहले जो इतने दशक बीत गये, यह काम तो अब तक हो जाना चाहिए था।
अरे कैसे हो जाता? इससे पहले विरोधी पार्टी की सरकार थी, जो दफ्तरशाही, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार की सौगात दे गई। उससे लड़ने में दशक लगा, लेकिन नतीजा चाहे, अभी भी ठन-ठन गोपाल है। अभी भी आम आदमी का काम करवाने के लिये बने सुविधा केन्द्र असुविधा केन्द्र हैं। बीच का आदमी इतना प्रतिष्ठित हो गया है कि यहां बहुल सम्पर्क संस्कृति को मान्यता मिल गई है।
‘हर हाथ को काम और हर पेट को रोटी’ के सूत्र वाक्य का पहला हिस्सा गायब हो गया है। हर पेट को रोटी की गारण्टी मिल गई है, और देश भर में एक अनुकम्पा और मुफ्तखोर संस्कृति ने जन्म ले लिया है। अब निट्ठले हाथ नये चुनावी एजेंडों में पार्टियों द्वारा रियायतों की बड़ी सी दौड़ देखते हैं। उस सुविधा का इंतजार करते हैं, जब रियायती अनाज आपके घर तक आ पहुंचाया जाएगा। हम गर्वित हैं कि आर्थिक विकास की तेज़ घोषणाओं के बीच रियायती अनाज बांटने का प्रण स्थायी बना दिया गया। अब रियायती अनाज की बांट अस्सी करोड़ लोगों को उपकृत करने का यह रिकार्ड बना रहेगा। हां, देश अवश्य दस बरस में दुनिया की दसवीं बड़ी आर्थिक शक्ति से उठ कर पांचवीं महा-शक्ति बन गया है। तीन बरस  बाद तीसरी महा-शक्ति बन जाएगा, और उसके दो दशक बाद अमरीका और चीन को पछाड़ कर दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक महा-शक्ति हो सकता है।
हां, इस बीच अस्सी करोड़ भूखे लोगों में मुफ्त अनाज यूं ही बंटता रहेगा। देश की आबादी बढ़ रही है। दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गये हैं हम। इसलिये मुफ्त अनाज पाने वालों की संख्या बढ़ भी सकती है। इतना ही क्यों, हम मुफ्त बिजली बांटेंगे, और अपने पावर निगमों का दीवाला निकालेंगे। आपके जन-धन खाते खोलेंगे। खाते खाली होंगे, तो उनमें एक दिन पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपया जमा हो जाने का वायदा दुहरा देंगे। बस तनिक यह दो दशक गुज़र लेने दीजिये। हमें विकसित देश बन जाने दीजिये। फिर खुल जा सिम-सिम की तरह अपने खातों में पन्द्रह लाख पा जाइए।
लेकिन इस बाच अगर साइबर अपराध करने वालों का कोई ठेकेदार आपका खाता खाली कर गया, तो आपकी शिकायत की एफ.आई.आर. तो हम दर्ज कर लेंगे, अपराध निपटाने के लिए एक लोकपाल भी नियुक्त कर देंगे, लेकिन पैसे वापिस करवा देने या साइबर ठग पकड़ने की हम कोई गारण्टी नहीं देते। आपने सार्वजनिक स्थलों, रेलवे स्थलों और बस अड्डों पर पढ़ा है न, ‘सवारी अपने सामान की खुद ज़िम्मेदार होगी।’
जी हां, हमारी ज़िम्मेदारी यही है कि निरन्तर ऊंचे होते धनाढ्यों के विराट प्रासादों के नीचे बनी आपकी जीर्ण शीर्ण झोंपड़ियों में आपके ज़िन्दा रहने के लिए, मधुर संगीत से ओत-प्रोत आस्था और इंतजार का एक दीया जला देें। बस यही कह दें, कि हमारी इन झोंपड़ियों में एक दिन वह विराट पुरुष चले आएंगे, जो सब का कल्याण कर देंगे।
इन सब बरसों में हमने कुछ और किया हो या नहीं, किन्तु करोड़ों लोगों के मन में अन्तहीन इंतज़ार का एक धीरज या सच अवश्य पैठा दिया है।
भ्रष्टाचार को शून्य स्तर पर भी वहन न करने की घोषणा आज भी हमें कितनी अपनी लगती है। चाहे इन सब बरसों में अपना देश भ्रष्टाचार सूचकांक की निचली पायदान पर अंगद के पांव की तरह जमा हुआ है। भूख से किसी को मरने न देने की गारण्टी हमें आज भी आत्म गौरव से भर देती है। चाहे इस पूरी अवधि में बेकार कामगारों, मज़दूरों और छोटे किसानों के दम तोड़ देने की घटनाओं में भी कोई कमी नहीं आई है, परन्तु उनके मरने के और भी कई कारण हो सकते हैं। इसकी तलाश भी हम अपने शोध पत्रों में कर सकते हैं।
मिथ्या आंकड़ों के धरातल पर हमारी तरक्की, कामयाबी और प्रगति का उत्सव चलता रहता है, तो इसमें दोष क्या? बन्धु, आज उत्सव मनायेंगे, तभी तो कल अपनी कामयाबी का ध्वजारोहण कर सकेंगे।