लोकतंत्र को खोखला कर रहे अवसरवादी नेता

वर्ष 2014 से अब तक 8 पूर्व मुख्यमंत्री पाला बदल चुके हैं। इनमें अशोक चव्हाण, कैप्टन अमरिंदर सिंह और नारायण राणे का नाम प्रमुख हैं। वहीं 20 से ज्यादा केंद्रीय मंत्री भी दल-बदल के खेल में शामिल हुए। उत्तराखंड लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी भाजपा ने कांग्रेस के विधायक रहे राज कुमार को भाजपा में शामिल कर लिया था। इससे पूर्व धनौल्टी क्षेत्र के निर्दलीय विधायक प्रीतम सिंह पंवार को पहले ही भाजपा में शामिल किया जा चुका है। उत्तरकाशी ज़िले की पुरोला सीट से कांग्रेस विधायक रहे राज कुमार ने दिल्ली में भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी। राज कुमार ने भाजपा केंद्रीय नेतृत्व के सामने देहरादून की एक सीट से टिकट देने की शर्त रखी है जिसे स्वीकार करने पर ही दलबदल हुआ था। हाल ही में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने वर्षो पुरानी अपनी कांग्रेस पार्टी को छोड़कर भाजपा की सदस्यता ले ली और भाजपा टिकट पर राज्यसभा पहुंच गए। सन 2014 के बाद सबसे ज्यादा दल-बदलू नेता भाजपा में चले गए हैं। 
एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 2014 से 2021 तक विधायक-सांसद स्तर के 426 नेताओं ने भाजपा का दामन थामा है। 7 दिन में 4 राज्यों के दो दर्जन से ज्यादा नेताओं ने पाला बदल लिया है। दल बदलने वालों में पूर्व मुख्यमंत्री से लेकर महापौर स्तर के नेता शामिल हैं। राजस्थान कांग्रेस के विधायक महेंद्रजीत सिंह मालवीय ने भी हाथ का साथ छोड़कर कमल का दामन थाम लिया है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के करीबी और जबलपुर के मेयर जगत बहादुर अन्नू कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए है। भारत में दलबदल का खेल सन 1960-70 में हरियाणा से शुरू हुआ था। धीरे-धीरे यह सियासी रोग पूरे भारत में फैल गया। 2014 के बाद नेताओं के दल-बदल के मामलों में काफी तेज़ी आई है। भाजपा फिलहाल येनकेन प्रकारेण स्वयं को मजबूत करने के लिए विपक्षी विधायकों पर डोरे डाल रही है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष महेंद्र भट्ट तो खुले रूप में कांग्रेसी विधायकों को भाजपा में शामिल होने का आमंत्रण दे रहे है। 
लोकसभा चुनाव नज़दीक है, ऐसे में हर दल अपना कुनबा बढ़ाने में जुटा है। बसपा के दो सांसदों ने जहां दूसरे दलों का दामन थाम लिया है, वहीं दो सांसद राहुल की न्याय यात्रा में शामिल हो गए। कई सांसद दूसरे दलों में शामिल हो सकते हैं। बसपा के कुल 10 सांसद सन 2019 के लोकसभा चुनाव में जीते थे। इनका 2024 लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी से मोहभंग होने लगा है। अपने कार्यकाल के अंतिम साल ये सांसद भाजपा, सपा और कांग्रेस नेताओं से सम्पर्क करने लगे। इनमें से 4 सांसद भाजपा, 3 सपा और 3 कांग्रेस के सम्पर्क में हैं। इनमें से बसपा सांसद अफजल अंसारी का टिकट सपा ने फाइनल कर दिया है। सांसद रितेश पांडेय ने भाजपा का दामन थाम लिया है। 
दल-बदल विरोधी कानून के तहत अगर कोई विधायक या सांसद खुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है या फिर कोई निर्वाचित विधायक या सांसद पार्टी लाइन के खिलाफ जाता है, अगर कोई सदस्य पार्टी व्हिप के बावजूद वोट नहीं करता, अगर कोई सदस्य सदन में पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करता है, तब विधायक या सांसद बनने के बाद खुद से पार्टी सदस्यता छोड़ने, पार्टी व्हिप या पार्टी निर्देश का उल्लंघन दल-बदल कानून में माना जाएगा। अगर किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक या सांसद दूसरी पार्टी के साथ जाना चाहें तो उनकी सदस्यता खत्म नहीं होगी। सन् 2003 में इस कानून में संशोधन भी किया गया। जब यह कानून बना तो प्रावधान ये था कि अगर किसी मूल पार्टी में बंटवारा होता है और एक तिहाई विधायक एक नया ग्रुप बनाते हैं तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी।
लेकिन इसके बाद बड़े पैमाने पर दल-बदल हुए और ऐसा महसूस किया कि पार्टी में टूट के प्रावधान का फायदा उठाया जा रहा है, इसलिए यह प्रावधान खत्म कर दिया गया। संविधान में 91वां संशोधन जोड़ा गया जिसमें व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक दल-बदल को असंवैधानिक करार दिया गया। विधायक कुछ परिस्थितियों में सदस्यता गंवाने से बच सकते हैं—जैसे, अगर एक पार्टी के दो तिहाई सदस्य मूल पार्टी से अलग होकर दूसरी पार्टी में मिल जाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी। ऐसी स्थिति में न तो दूसरी पार्टी में विलय करने वाले सदस्य और न ही मूल पार्टी में रहने वाले सदस्य अयोग्य ठहराए जा सकते हैं। जब पूरी की पूरी राजनीतिक पार्टी अन्य राजनीति पार्टी के साथ मिल जाती है। अगर किसी पार्टी के निर्वाचित सदस्य एक नई पार्टी बना लेते हैं। अगर किसी पार्टी के सदस्य दो पार्टियों का विलय स्वीकार नहीं करते और विलय के समय अलग ग्रुप में रहना स्वीकार करते हैं।
जब किसी पार्टी के दो तिहाई सदस्य अलग होकर नई पार्टी में शामिल हो जाते हैं। 10वीं अनुसूची के पैराग्राफ 6 के मुताबिक स्पीकर या चेयरपर्सन का दल-बदल को लेकर फैसला अंतिम होगा। पैराग्राफ 7 में कहा गया है कि कोई कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता लेकिन 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने 10वीं अनुसूची को वैध तो ठहराया लेकिन पैराग्राफ 7 को असंवेधानिक करार दे दिया। आज नेताओं के लिए दल-बदल जितना सहज और सरल हो गया है, मतदाता के लिए नेता उतना ही अविश्वसनीय होता जा रहा है। किसी भी स्तर का चुनाव जीतने के बाद नेताओं के रहन-सहन में जो बदलाव लाता है, वह मतदाता की नज़र से बच नहीं पाता। इसका असर विभिन्न स्तर के चुनावों में मत प्रतिशत में गिरावट के रूप में देखा जा सकता है। 
मध्य प्रदेश में हाल ही में संपन्न हुए स्थानीय निकायों के चुनाव के बाद ऐसे दृश्य बड़ी संख्या में देखने को मिले हैं, जिसमें जीत का प्रमाण-पत्र मिलने के बाद निर्वाचित प्रतिनिधि ने उस दल को छोड़ दिया जिसके चुनाव चिन्ह पर वह चुना गया था। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दलों को अपने नव निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को पाले में बनाए रखने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी थी, चुनाव के तत्काल बाद जिस तरह से निर्वाचित प्रतिनिधियों ने दल-बदल किया उसके बाद मतदाताओं के बीच उसकी छवि पर भी विपरीत असर पड़ा है। दल-बदल की बढ़ती प्रवृति लोकतंत्र के लिए भी घातक मानी जा रही है। देश के किसी भी राज्य में ऐसा कोई कानून नहीं है जो स्थानीय निकायों के निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को दल-बदल करने से रोकता हो। अभी सांसद और विधायकों के दल-बदल को रोकने वाला ही कानून देश में लागू है। इसके बाद भी देश में बड़ी संख्या में विधायक दल-बदल करते देखे जा सकते हैं। कई राज्यों में बहुमत वाली सरकारें दल-बदल के कारण अल्पमत में आई हैं। बाद में उस दल की सरकार बनी जिसे जनता ने सरकार बनाने का जनादेश नहीं दिया था। मौजूदा दल बदल कानून विधायकों को इस्तीफा देने से नहीं रोकता है।
सैद्धांतिक तौर पर भी देखा जाए तो सांसद अथवा विधायक के तौर पर निर्वाचित नेता यदि इस्तीफा देकर दूसरे दल में शामिल होता है तो वह गलत नहीं माना जा सकता। विधायकों और सांसदों के दल-बदल में अब यही चलन देखने को मिल रहा है जबकि निकायों के प्रतिनिधि दल को छोड़े बगैर ही क्रॉस वोटिंग के जरिए अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रहे हैं जिसे लोकतांत्रिक दृष्टि से अच्छा नहीं माना जा सकता। जिसके परिणाम आने वाले समय में घातक हो सकते हैं।