ठेकेदारी में भी सेंधमारी 

बड़ी मुश्किल से जातीय जमीन कब्जाई थी। फटेहाल अवस्था में रहकर न जाने जैसे तैसे अपने बिरादरी भाइयों के कंधों का सहारा लेकर पूरे कुनबे को विलासितापूर्ण जिंदगी सौंपी थी। किसी को बिना पड़े ही डाक्टरी की डिग्री दिलाई दी, किसी को बिना डिग्री के ही सत्ता की चाबी सौंपी थी। कभी गाय भैंस और चारे को स्कूटर पर लिफ्ट दी थी, कभी कुछ और जतन करके सत्ता की रबड़ी और रासमलाई का सेवन किया था। इसी तर्ज पर जातियों को संगठित करने का दौर शुरू हो गया। सत्ता लोभियों की चाह पूरी करने में जातीय समर्थक खास भूमिका निभा रहे थे। किसी ने अपनी खटारा साइकिल पर घूम घूम कर अपनी बिरादरी की पंचायत की। खुद को जाति नायक बनाया, जाति के उत्थान का आश्वासन दिया। तब से वह जाति के मुखिया बन गए। साइकिल से महलों तक का सफर तय कर लिया। बाद में साइकिल म्यूजियम में रख दी। समूचे खानदान, नाते रिश्तेदारों को रोज़गार भी दिया और पैंशन भी पक्की कर दी। अब उनके जीवन से साइकिल दूर हो गई। उनका सफर हवाओं की गति के संग तय होने लगा। यह थी जातीय धमक। जाति नायक यह समझने लगे कि जातीय बंधुआ केवल चंद परिवारों के कब्जे में ही रहेंगे। उनकी सोच केवल चंद जाति-नायकों के परिवारों के इर्द-गिर्द तक ही सीमित रहेगी। उनकी ठेकेदारी सदियों तक सलामत रहेगी और जाति नायकों के परिवारों का पोषण करती रहेगी। मगर सियासत के चाणक्य भी क्या खूब होते हैं। वे डाल डाल और पात पात का खेल खेलने में माहिर होते हैं। कौन जाने कब किस ठेकेदार को घोटालेबाज सिद्ध करके उसकी ठेकेदारी के सम्मुख दूसरा विकल्प तैयार कर दें। जब किसी नए ठेकेदार को तैयार कर दें। कब किसे पटखनी दे दे, जातीय क्षत्रप कब अवसाद की स्थिति में आ जाएं, कोई नहीं समझ सकता। फिर भी सेंधमारी हो गई। सेंधमारी से आहत कुछ अनुयायी खिसियाहट में अनाप शनाप राग अलापने लगे। एक सज्जन बोले- ‘शिकारी आएगा, जातीय मुर्गों के सामने दाना डालेगा, तुम शिकारी के झांसे में मत आ जाना।’  उन्हें यह तक ज्ञान नहीं था कि असली शिकारी कौन था, किसने आधी शताब्दी तक जाति जाति का खेल खेलकर जाति को अपने जाल में फंसाए रखा। वैसे सियासत का खेल बड़ा ही रोचक होता है। पटखनी देना और पल भर में किसी को सर पर बिठा लेना इस खेल का मूल चरित्र है। घड़ी में तोला घड़ी में माशा इस खेल की विशेषता है। जाति नायक स्वयं को स्वयंभू मानकर मनमाना आचरण करने से परहेज नहीं करते, मगर जब जाति अपने नायक की असलियत जान जाती हैं, तब वह दूसरे नायक को चुनने में विलम्ब नहीं करती। अब नया दौर है, जातियों का अपने नायकों से मोहभंग होता जा रहा हैं, वे संकीर्ण स्वार्थों से उबरने लगी हैं। ऐसे में यदि जातीय ठेकेदारों की ठेकेदारी में कोई सेंध लगाता है, तो इसे गलत भी नहीं ठहराया जा सकता। वैसे भी समय कभी एक सा नहीं रहता। इतिहास गवाह है कि जब चक्रवर्ती सम्राट भी काल की भेंट चढ़ गए। आलीशान महल खंडहरों में परिवर्तित हो गए। तब जातिनायकों का अस्तित्व आखिर कब तक स्थाई बना रहता।  

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