सीमा सुरक्षा बल को सशक्त बनाने में रुस्तमजी का रहा अभूतपूर्व योगदान 

2 मार्च, 2003 का समाचार पत्र यह शीर्षक लेकर आया कि एक युग दष्टा और देश के विशाल सीमा क्षेत्र को शत्रुओं से सुरक्षित रखने के लिए एक मज़बूत बल (सीमा सुरक्षा बल)  का निर्माण करने वाले खुसरो फरमरोज़ रुस्तमजी नहीं रहे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।
जीवन गाथा 
वीरेंद्र कुमार गौड़ सीमा सुरक्षा बल (बी.एस.एफ.) से आई.जी. के पद से रिटायर होने के बाद अपने जीवन के अनुभवों को एक साहित्यकार की भांति लिखने का कार्य कर रहे हैं। उनकी अनेक पुस्तकें चर्चित रही हैं, विशेषकर बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को लेकर लिखी गई ‘यूं जन्मा बांग्लादेश’ और बी.एस. एफ. को एक आधुनिक बल बनाने में अपना बहुमूल्य योगदान करने वाले के एफ. रुस्तमजी की जीवन गाथा के रूप में लिखी गई ‘रुस्तमजी एक युगदृष्टा’ जिसका प्रकाशन स्वयं बी.एस.एफ. ने किया है। 
यह कृति अधिकांश रूप से रुस्तमजी द्वारा नियमित रूप से लिखी गई उनकी डायरी और उनके समकालीन अधिकारियों के साथ चर्चा तथा नेहरू लाइब्रेरी में उपलब्ध दस्तावेज़ों पर आधारित है। यह पुस्तक जब गौड़ साहब ने मुझे पढ़ने के लिए दी तो इस बात का अनुमान तो था कि यह एक पुलिस अधिकारी की जीवन गाथा है लेकिन पढ़ना शुरू करने पर यह वास्तविकता उजागर होने लगी कि रुस्तमजी उससे कहीं अधिक मानवीय संवेदनाओं को समझने और सामान्य व्यक्ति की सहायता तथा उससे भी अधिक उसकी सेवा करने को प्राथमिकता देते थे।
मनोभावों को समझने की योग्यता 
उनकी कार्यशैली ऐसी थी कि वह अफसर से अधिक मित्र लगते थे और कोई भी उनसे अपने मन की बात करने में हिचक का अनुभव नहीं करता था। एक उदाहरण यह है कि जब कमीशंड अफसरों की सेवा अवधि के बाद नौकरी समाप्त की जा रही थी तो उन्होंने उन सब को अपने बल में शामिल करने की पेशकश कर दी, जो इतनी सफल रही कि अनुभवी सैनिक मिल जाने से 25 से बढ़कर 77 बटालियन हो गईं। इससे भारत की लम्बी चौड़ी सीमा को सुरक्षित करने में सहज ही सही व्यक्ति मिल गये। 
रुस्तमजी 22 वर्ष की आयु में जब नये-नये अधिकारी बने थे, तो उन्होंने अपनी व्यक्तिगत डायरी लिखनी शुरू कर दी थी जो आज एक प्रमाणित दस्तावेज़ है और उस समय के हालात की जानकारी हासिल करने का प्रमुख साधन है। उन्हें घूमने-फिरने और पर्यटक स्थलों को देखने के साथ-साथ शिकार तथा घुड़सवारी करने का शौक था। जब भी समय मिलता, वह यह सब करने निकल जाते। नेहरू जी के कार्यकाल में उनके सहायक की भूमिका में देश विदेश को गहराई से जानने और समझने का अवसर मिल जाता था। दुनिया में जो भी हो रहा है, चाहे विश्व युद्ध हो या शांति प्रयासों के लिए किए जाने वाले प्रयत्न हों, सब का वर्णन उन्होंने एक तटस्थ व्यक्ति की तरह किया है। 
बंगाल के अकाल, अनाज की कमी से लेकर जमाखोरी, मुनाफाखोरी और कालाबाज़ारी, किसानों की दुर्दशा, गांव देहात में मामूली सुविधाओं तक का अभाव, यह सब उन्होंने विस्तार से लिखा ही नहीं बल्कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार इनका हल निकालने की अपनी ओर से कोशिश भी की। 
मध्य प्रदेश में जब डाकुओं का आतंक चरम पर था तो उनकी नियुक्ति भोपाल के आई. जी. के रूप में हुई। उन्हें पता चला कि पुलिस के कुछ लोग और स्थानीय नेता उन्हें संरक्षण देने का काम करते हैं। हत्या, अपहरण, फिरौती वसूलना, चेहरे को विकृत करना और गवाहों को उनके परिवार सहित समाप्त कर देने जैसे दुष्कृत्य यह डाकू किया करते थे। रुस्तमजी ने देखा कि डाकुओं के पास सभी तरह के आधुनिक हथियार थे जबकि पुलिस के पास न तो ऑटोमैटिक शस्त्र थे और न ही उनकी ट्रेनिंग का प्रबंध। रुस्तमजी ने यह जानकर ऐसी व्यूह रचना की कि एक के बाद एक गिरोह या तो समाप्त होते गये या उन्होंने समर्पण कर दिया। 
जुलाई 1965 में वह मध्य प्रदेश पुलिस से विदा होकर दिल्ली आये और उन्हें सीमा सुरक्षा बल का महा निदेशक बनाया गया और यह ज़िम्मेदारीपूर्ण कार्य दिया गया कि वह इस बल का गठन इस प्रकार करें कि पाकिस्तान द्वारा जम्मू-कश्मीर में की जाने वाली घुसपैठ को रोका जा सके और इसके साथ ही बड़े पैमाने पर होने वाली तस्करी पर लगाम लगे। यह काम बहुत चुनौतीपूर्ण था लेकिन रुस्तमजी की दूरदृष्टि और प्रशासनिक तथा संगठनात्मक क्षमता के कारण उनके कार्यकाल में यह संभव हो पाया। 
उस समय जॉर्ज फर्नाडीस की रेल हड़ताल के चक्रव्यूह को भेदना रहा हो या 1967 का दिल्ली पुलिस आंदोलन, सभी में उनकी कार्य कुशलता की झांकी मिलती है। वह समझ गये थे कि अराजकता, विद्रोह और समाज में दुश्मनी पैदा करने वाले तत्वों से निबटना है तो बल को आधुनिक और वैज्ञानिक तरीके से प्रशिक्षित करना अनिवार्य है। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले ग्वालियर के निकट टेकनपुर में ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट स्थापित करने का प्रस्ताव दिया। आज यह संस्थान विश्व भर में अपनी धाक जमाने में सफल हुआ है और सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षण संस्थान के रूप में विख्यात है। इसके बाद देश के अनेक स्थानों में बल के प्रशिक्षण केंद्र स्थापित हुए और उल्लेखनीय भूमिका निभा रहे हैं।  रुस्तमजी को अपने कार्यकाल में सभी प्रधानमंत्रियों का सहयोग और आशीर्वाद मिलता रहा है जिसके कारण उन्हें अपनी योग्यता सिद्ध करने का भरपूर अवसर मिला और वह राजनीतिक उठापटक से अलग अपनी योजनाओं के लिए पर्याप्त राशि तथा संसाधन जुटाने में कामयाब रहे। 
उनकी विशेषता ही कही जाएगी कि जिस तरह वह अपने पद के दायित्वों को कुशलता और कर्मठ होकर निभाते थे, उसी प्रकार अपने परिवार के प्रति ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते थे। पत्नी और बच्चों के साथ छुट्टियां मनाते थे। परिवार ने उन्हें कभी क्रोध करते नहीं देखा। वह अपने पीछे परिवार के अतिरिक्त असंख्य मित्र और अपने कर्त्तव्य के प्रति समर्पित पुलिस कर्मी तथा स्मृतियां छोड़ गये हैं। यही उनकी विरासत है।