खामोश! नेताजी चुनाव में हैं!

हर व्यक्ति का अपना-अपना शोर मचाने का समय होता है। चुनाव के दिनों में यह हक नेताओं का ही होता है। वे बेशर्मी की चादर ओढ़कर अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से हमारे मुखों में रसगुल्ले-सी मिठास भर देते हैं। उन्हें हर कीमत पर वोट चाहिए ताकि वे पुन: अपने सिंहासन पद बैठ सकें और इतिहास को दोहरा सकें। आपके लिए उनका पांच वर्ष का बनवास भारी हो सकता है, लेकिन कुर्सी कम्बखत चीज़ ही ऐसा है, कम्बल की तरह वह उन्हें नहीं छोड़ती। या यूँ भी कह सकते है कि कुर्सी का मोह उन्हें इसे त्यागने नहीं देता। 
चुनाव आते ही हमारे नेताओं में चुस्ती, फुर्ती का भूचाल-सा आ जाता है। यहां तक कि लूले-लंगड़े नेता भी मिल्खा सिंह की तरह दौड़ने लगते हैं। उन्हें आपका दर्द याद आने लगता  है। यहां तक कि गरीब दास के घर की फीकी रोटी भी उन्हें किसी पकवान से अधिक मीठी लगने लगती है। उसका मैला-कुचैला छोटा बच्चा भी चांद-सा प्यारा लगने लगता है। लगता है मानों सुदामा के घर स्वयं चलकर नारायण आये हों। उनकी जबरन मुस्कान पर आप कुरबान हो सकते हैं, क्योंकि आज वह नमस्कार की मुद्रा में झुक रहे हैं। आपको पता है कल आपका नहीं होगा, चुनाव जीत जाने के बाद उनका होगा और आपको आगामी पांच वर्षों तक उनके आगे नतमस्तक होना पड़ेगा। लेकिन वह तो चतुर-सुजान हैं, मायावी हैं और फाख़्ता की तरह रंग बदलने का हुनर जानते हैं। लोमड़ी की तरह चालाक हैं, दो बिल्लियों की रोटी-बांट की तरह उसे हड़पना जानते हैं। भेड़िए से मेमने बनना उनकी कलाबाज़ी का कमाल है।
कल आप बिजली के लिए तरस रहे थे, साफ पानी के लिए गुहार लगा रहे थे, लेकिन आज वह आश्वासन की मुद्रा में हैं। बहला रहे हैं कि बिजली के आने-जाने की अब कोई चिंता मत करना। हमने चांद तक को फतेह कर लिए है और चांद भी हमारी सफलताओं से जगमगा रहा है। गंगा को हर खेत तक पहुंचने की योजनाएं हमारे दिमाग की नसों में फड़फड़ा रही हैं। टूटी-फूटी सड़कों ने अब तक आपको रूलाया है, मखमली चादर की तरह अब हम इन्हें चमकवा देंगे। उनके वादों की थाली की सजावट देखकर आप लालच की नदी में गोते खा सकते हैं। वह मोटी चमड़ी के मालिक हैं, आज अगर आप उनको दो-चार घूंसे भी मार देंगे, वह खिलखिलाकर हंस देंगे। उनकी मक्कारी भरी मुस्कुराहट आपको प्यार का नज़राना लग सकती है। लेकिन चार-दिन की चांदनी और फिर अंधेरी रात जैसी कहावतें यूँ ही तो नहीं बनीं। आज का उनका शोर कल आपके लिए एक अभिशाप बन सकता है लेकिन लोकतंत्र की गाथा ही ऐसी है। मुखौटों के जंगल में असली और नकली की पहचान एक खेल जैसा हो गया है। लेकिन वोट डालने का खेल खेलना ही पड़ेगा वरना लोकतंत्र की लुटिया में छेद हो सकता है। धर्म और जातपात की बैसाखी पर हमें दौड़ना है, यही हमारी नियति है। भ्रष्टाचार का भस्मासुर अब भी उफनती नदी सा ललकार रहा है। महंगाई का राक्षस अपना पैनापन बढ़ा चुका है, लेकिन उनकी भला से!
काइयां नेता लोग अपने प्रचार में अपनी छवि को चमकाना ख़ूब जानते हैं। लोकतंत्र की अग्नि-परीक्षा में हम कितने खरे उतरते हैं, यह तो आने वाला कल ही बतलायेगा!

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