अन्धेरे में न डुबो दे ‘स्काई ग्लो’ यानि प्रकाश प्रदूषण

किसी कृत्रिम प्रकाश के नतीजतन रात में आकाश का चमकना, ‘स्काई ग्लो’ या ‘कृत्रिम धुंधलका’ कहलाता है। यह समूची मानवता के लिए एक नये किस्म का खतरा है। भले हमें रोशनी से जगमगाते महानगर बहुत आकर्षित करते हों, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि इससे रात में आकाश में जो चमक छायी रहती है, वह धरती के तापमान को बढ़ाने में न सिर्फ मददगार है बल्कि धरती के सदियों से बने बनाये एक व्यवस्थित इको सिस्टम को भी बिगाड़ रही है। वैज्ञानिको के मुताबिक इससे वायुमंडलीय स्थितियों में इतना अचानक और अनुमान से अलग बदलाव देखने को मिलता है कि सदियों से बना बनाया धरती का इको सिस्टम एक झटके में गड़बड़ा जाता है।
वास्तव में स्काई ग्लो मानव निर्मित प्रकाश के वायुमंडल में बिखरने और लौटने के कारण होती है। इससे स्काई ग्लो से तारे अस्पष्ट हो जाते हैं, नक्षत्रों को पहचानना मुश्किल हो जाता है। दरअसल वायुमंडल में मौजूद नमी और धूल के कणों के कारण धरती में रात में चमकने वाली रोशनी कृत्रिम प्रकाश के प्रसरण और परावर्तन के जरिये आसमान में एक निर्जीव चमक के रूप में जम जाता है। धरती से आकाश तक की यात्रा करने वाला यह प्रकाश हवा के अणुओं, धूल के कणों और प्रदूषण तथा पानी के बूंदों से टकराकर बिखर जाता है और आसमान में एक नकली चमक बिखेर देता है। इसे प्रकाश प्रदूषण कहते हैं। इससे वन्य जीवन में जबरदस्त परेशानियां खड़ी हो रही है। एक नहीं सैकड़ों ऐसे पक्षी हैं जिनकी नींद इस कृत्रिम प्रकाश ने छीन ली है। सिर्फ पक्षियों के लिए ही नहीं बल्कि अनेक खगोलीय सुविधाओं के लिए भी इसने खतरा पैदा कर दिया है। यह ऊर्जा के उपयोग को लेकर भी कई डरावनी आशंकाएं पैदा कर रहा है। मसलन इसके चलते न सिर्फ इंसान की सितारों और खगोलिए पिंडों को देखने की क्षमता प्रभावित हुई है बल्कि इससे टकराकर धरती तक पहुंचने वाली सूर्य कि किरण भी प्रभावित होती है।
दरअसल स्काई ग्लो या प्रकाश प्रदूषण खराब डिजाइन या निर्देशित लैंप या सुरक्षित फ्लड लाइट से निकलने वाली तथा ऊपर की ओर भेज जाने के लिए निर्देशित रोशनी से बनता है, जो एक तरह से इंसान की आसमान के लिए संवदेनहीन नज़रिये और गतिविधि का नतीजा है।
 जब भी बड़े-बड़े स्टेडियमों या चौराहों आदि में फ्लैश लाइट्स लगायी जाती है तो उनकी रोशनी को निर्देशित जमीन पर फोकस किया जाता है और वहां से परावर्तित होकर जब यह रोशनी आसमान की तरफ बढ़ती है तो उसे आसमान की तरफ ही निर्देशित कर दिया जाता है, जिससे ये कृत्रिम रोशनी धीरे-धीरे हमारे वायुमंडल में फैलती है और फिर दोबारा से जमीन की ओर बिखर जाती है। इससे एक ऐसी चमक पैदा होती है, जो बहुत दूर से दिखायी देती है। यह कृत्रिम रोशनी से निकलने वाली आसमानी चमक, अकसर शहरों और कस्बों में प्रकाश के चमकती गुंबदों के रूप में टिकती है।
अमरीका के शहरों में 10 से 11 प्रतिशत और बाकी दुनिया में 7 से 7.5 प्रतिशत तक आसमान प्रकाश प्रदूषण से आच्छादित है। आमतौर पर जब भी हम प्रकाश प्रदूषण की बात करते हैं तो इसे ज्यादा खतरनाक नहीं मानते। लेकिन अगर गहराई से सोचा जाए तो यह सामान्य प्रदूषण से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि यह इंसान की ही नहीं जानवरों की भी सर्कैडियन रिदम को गड़बड़ा देता है और डार्क स्काई को दुलर्भ बना देता है। कुछ साल पहले हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि 2011 से 2022 के बीच इस कृत्रिम प्रकाश ने पारिस्थितिकी, स्वास्थ्य और सांस्कृतिक जीवन को बहुत बुरी तरह से प्रभावित करना शुरु कर दिया है। स्काई ग्लो शहरों और उसके आसपास रात के समय दिखने वाली प्रकाश की एक ऐसी सर्वव्यापी चादर है, जो हमें आसमान में अपने अलावा और कुछ भी नहीं देखने देती। यहां तक कि चमकदार सितारे भी इसे प्रकाश प्रदूषण में दिखने मुश्किल हो गये हैं।
वास्तव में सभी छोटे-बड़े शहरों में स्ट्रीट लाइट का बढ़ना, सुरक्षित फ्लेड लाइट्स, बड़े शहरों में नाइटलाइफ के आकर्षण के तौर पर बाजारों, बड़े-बड़े मॉलों और व्यक्तिगत दुकानों को चकाचौंध भरी रोशनियों से सजाना या बड़े शहरों के कुछ खास हिस्सों को रोशनी के द्वीपों में परिवर्तित कर देने का जो रोमांच है, वह इंसान और धरती के सभी जीवों के लिए खतरनाक है। इस कृत्रिम प्रकाश के जरिये रात्रिचरों की सक्रियता बाधित हुई है। वे नींद नहीं कर पा रहे और रात में चलने के कारण भटक जा रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि वैज्ञनिकों ने इस प्रकाश प्रदूषण के खतरों एक दशक पहले ही इंसान को आगाह कर दिया था। इसके बाजवूद अमरीका और यूरोप में शाम होते ही शुरु हो जानेवाली कृत्रिम रोशनी में जरा भी कटौती नहीं हुई। साल 2016 में भारत में भी इस संबंध में हुए एक अध्ययन से साफ हुआ था कि भारत में करीब 20 प्रतिशत आबादी जो कि जी-20 देशों में सबसे कम है, स्काई ग्लो या प्रकाश प्रदूषण से प्रताड़ित है। अगर इससे जल्द काबू पाने के लिए कोई उपाय न किया गया तो हमें न सिर्फ आकाशगंगाएं नहीं दिखेगीं बल्कि जिस सहजता से हम अभी काम कर रहे हैं, वो मुश्किल हो जायेगी। क्योंकि मानव आंखों में ‘कोन सेल्स’ सिर्फ तभी उत्तेजित होती हैं, जब अच्छी तरह से प्रकाशित वातावरण में हम जीवन गुजर करें और हमारे लिए काले अंधेरे से भरा आसमान हो जहां अपनी पूरी चमक के साथ तारे टिमटिमाते हों।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर