बेरोज़गारी तथा महंगाई को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है विपक्ष

हालात की तस्वीर बदल जाये तो अच्छा,
हाकिम जो मेरा ़खुद ही सम्भल जाये तो अच्छा।
(आलोक यादव)
लोकसभा चुनावों के तीन चरण (पड़ाव) पूरे हो चुके हैं, चाहे अभी भी यह बात स्पष्ट नहीं है कि इस बार चुनाव परिणाम क्या होंगे, परन्तु एक बात का अहसास बड़ी शिद्दत से हो रहा है कि इस बार भाजपा की सीटें कम होने की सम्भावनाएं बहुत अधिक हैं। वास्तव में पहले तो प्रत्येक चुनाव में कांग्रेस नेता राहुल गांधी स्वयं ही कोई न कोई ऐसा बयान दे बैठते थे, जो उनके लिए ‘सैल्फ गोल’ सिद्ध होता था। कई बार तो उनकी सही बात को भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसा मोड़ देते थे कि वह उसमें ऐसा फंसते थे कि लोगों तक उनकी वास्तविक बात तो कम ही पहुंचती थी और प्रधानमंत्री का उस पर बनाया वृत्तांत लोगों पर अधिक प्रभाव डालता दिखाई देता था, परन्तु इन चुनावों में यह पहली बार है कि राहुल गांधी ने अभी तक ऐसा कोई बयान या नुक्ता नहीं दिया, जिसे प्रधानमंत्री या भाजपा उनके ‘सैल्फ गोल’ (अर्थात स्वयं ही अपनी टीम के विरुद्ध किया गोल) में बदल सकें। हालांकि एक-दो कांग्रेसी नेताओं के बयान अवश्य ऐसे थे, परन्तु इस बार मीडिया का बहुत बड़ा भाग भाजपा समर्थक होने के बावजूद प्रधानमंत्री मनमज़र्ी के वृत्तांत सृजित करने में सफल होते दिखाई नहीं दे रहे, अपितु प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बार-बार नये-नये बयान देने पड़ रहे हैं। 
विपक्ष मुख्य रूप में महंगाई, आर्थिक असमानता, बेरोज़गारी, जातीय जनगणना तथा 10 वर्ष की उपलब्धियों को मुद्दा बनाने का यत्न कर रहा है जबकि प्रधानमंत्री तथा अन्य प्रमुख भाजपा नेता बार-बार ऐसे बयान दे रहे हैं कि जो आश्चर्यजनक हैं, जैसे यदि कांगे्रस या ‘इंडिया’  गठबंधन का शासन आया तो वह एक वर्ग के लोगों का सोना या भैंसें खोल कर दूसरे वर्ग के लोगों को दे देंगे या श्री राम मंदिर का फैसला पलट दिया जाएगा। हद तो तब हो गई जब प्रधानमंत्री मोदी ने राहुल गांधी द्वारा विगत वर्ष से उछाले जा रहे मुद्दे कि ‘यह सरकार कुछेक कार्पोरेट घरानों विशेषकर अडाणी तथा अम्बानी घरानों को अमीर बना रही है और लोग गरीब हो रहे हैं’, को भी पलटने का यत्न करते हुए यह कह दिया कि अडाणी-अम्बानी के खिलाफ राहुल ने बोलना इसलिए बंद कर दिया है क्योंकि इन्होंने कांग्रेस तथा ‘इंडिया’ गठबंधन को चुनाव लड़ने के लिए काला धन दिया है। हालांकि राहुल तो प्रधानमंत्री पर यहां तक आरोप लगा चुके हैं कि मोदी राज ही इन अमीर कार्पोरेटरों की सुविधा के अनुसार कर रहे हैं परन्तु इस हमले का कांग्रेस ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया है। राहुल गांधी ने कहा कि यदि इन घरानों ने हमें कोई काला धन दिया है तो आपकी सी.बी.आई. क्या कर रही है? हम समझते हैं कि इन चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह बयान वास्तव में ही ‘सैल्फ गोल’ सिद्ध हुआ है, क्योंकि इसका एक प्रभाव तो यह गया है कि अडाणी तथा अम्बानी को कहीं यह तो प्रतीत नहीं हो रहा कि इस बार भाजपा या मोदी की सरकार बनना कठिन है और वे विपक्ष को भी फंड देकर स्थिति को संतुलित (बैलेंस) बनाने का यत्न कर रहे हैं। यदि यह प्रभाव व्यापक रूप में फैल गया तो इसका भाजपा को आगामी चार चुनावी चरणों में बहुत नुकसान होगा। दूसरा यह प्रभाव भी बन रहा है कि प्रधानमंत्री शायद कार्पोरेट घरानों को ‘कांग्रेस’ या ‘इंडिया’ गठबंधन की मदद करने से रोकने के लिए एक चेतावनी भी दे रहे हैं। 
परन्तु यहां एक बड़ी चिन्ताजनक सोच भी उभरती है, कि यदि वास्तव में ही भाजपा तथा आर.एस.एस. को यह अहसास हो गया है कि वे यह चुनाव हार सकते हैं (हालांकि ऐसा अभी तक सम्भव नहीं लगता) तो क्या वे चुनाव सम्पन्न होंने देंगे? यह प्रभाव पहले ही बनाया जा रहा है कि भाजपा 400 पार सीटें जीत कर संविधान में व्यापक स्तर पर बदलाव करना चाहती है। यह प्रभाव भी बनाया जाता रहा है कि भाजपा तथा आर.एस.एस. देश में प्रधानगी तज़र् का या इससे भी आगे जाकर रूसी तज़र् का शासन लागू कर सकती है चाहे इन बातों के पक्ष में कोई ठोस प्रमाण नहीं। अभी ये बातें सिर्फ बातें या अनुमान ही हैं, परन्तु ऐसा विश्व के कई देशों में होता रहा है कि जब कोई पार्टी हारती है तो वह ऐसा यत्न करती है कि वह सत्ता न छोड़े। 
1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल भी उनके शासक बने रहने की एक कोशिश के रूप में ही देखा जाता है, परन्तु कुछ गलियारों में एक भय पैदा हो रहा है कि यदि भाजपा को यह एहसास हुआ है कि वह सचमुच हार सकती है तो कहीं वह इन चुनावों को अधर में छोड़ने के बारे में तो नहीं सोचेगी। हालांकि हम यह समझते हैं कि भारत जैसे देश में ऐसा सम्भव नहीं है तथा न ही भाजपा नेता ऐसा सोचेंगे। अत: हम तो यह स्वयं ही कहेंगे कि ये सभी आशंकाएं निराधार ही सिद्ध हों। प्रसिद्ध कवि गुलज़ार के शब्दों में—
देखो आहिस्ता चलो और भी आहिस्ता ज़रा,
देखना सोच-समझ कर ज़रा पांव रखना।
भाजपा में कैप्टन की तूती 
जिस प्रकार भाजपा ने अब तीन सीटों के उम्मीदवार घोषित किये हैं, उन पर दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट प्रभाव बनता है कि भाजपा में विशेषकर पंजाब के मामलों में पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की तूती बोल रही है। इन तीन सीटों से घोषित उम्मीदवारों में से दो कैप्टन के करीबी हैं। पहले संगरूर से घोषित उम्मीदवार अरविन्द खन्ना जो जनवरी 2022 में भाजपा में शामिल हो गये थे, तथा दूसरे हैं फिरोज़पुर सीट से पूर्व मंत्री राणा गुरमीत सिंह सोढी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि राणा सोढी और पंजाब भाजपा अध्यक्ष सुनील जाखड़ जब कांग्रेस में थे, उनकी इस सीट के कारण ही आपस में नाराज़गी जग-ज़ाहिर थी, चाहे उस समय भी जाखड़ एवं राणा सोढी दोनों ही कैप्टन के समर्थक थे, आज भी हैं। चर्चा है कि इस बार शायद कैप्टन ने राणा सोढी को टिकट दिलवाते समय सोढी एवं जाखड़ के मध्य कोई समझौता भी करवाया है। वैसे भी फिरोज़पुर सीट से कड़ी टक्कर देने के लिए राणा सोढी को सुनील जाखड़ की सहायता की बेहद ज़रूरत है, परन्तु इन टिकटों के विभाजन ने पंजाब भाजपा के किसी समय सबसे शक्तिशाली रहे एक गुट को पूरी तरह किनारे ला दिया है। इस गुट के श्री अविनाश राय खन्ना, विजय सांपला, हरजीत सिंह ग्रेवाल तता सुरजीत जियाणी चारों ही लोकसभा टिकटों के दावेदार बताये जाते  थे परन्तु इनमें से किसी एक को भी टिकट नहीं मिली। वैसे अब घोषित तीन टिकटों में तीसरी टिकट भाजपा के टकसाली तथा विद्वान नेता डा. सुभाष शर्मा को दी गई है। डा. सुभाष शर्मा स्वर्गीय कमल शर्मा के नज़दीकी थे तथा अब भी इसी गुट जिसमें तरुण चुघ तथा तीक्षण सूद जैसे प्रमुख नेता शामिल हैं, के नज़दीकी माने जाते हैं। हालांकि श्री शर्मा स्वयं भी भाजपा हाईकमान में तथा आर.एस.एस. तक सीधी एवं ऊंची पहुंच रखते हैं।
पंजाब से बाहरी सिखों का कानक्लेव
राज्यसभा सांसद तथा चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी के चांसलर सतनाम सिंह संधू की पहल पर दिल्ली में  पंजाब से बाहरी 20 राज्यों के सिखों का एक विशेष  समूह इंडियन माइनोरटीज़ फाऊंडेशन की ओर से करवाया गया। नि:संदेह इसका विषय ‘राष्ट्र निर्माण तथा विकास में सिख समुदाय की भूमिका’ था परन्तु इसमें देश के कई प्रमुख सिख तथा वरिष्ठ धार्मिक नेता भी शामिल हुए, परन्तु इसका परिणाम एवं प्रभाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा सरकार की ओर से सिखों के लिए किये गये कार्यों का गुणगान करना ही था तथा इस ऑल इंडिया सिख कानक्लेव का समापन प्रधानमंत्री मोदी के ‘2047 तक विकसित भारत’ के दृष्टिकोण के समर्थन के साथ हुआ। 
नि:संदेह इसका एक गुप्त तथा बड़ा कारण पंजाब के बाहरी सिख समुदाय को भाजपा के पक्ष में मतदान के लिए लामबंद करना ही हो, क्योंकि यह बिल्कुल चुनावों के दौरान किया गया है परन्तु हम इसमें कोई बुराई नहीं देखते, क्योंकि आज की परिस्थितियों में किसी भी अल्प-संख्यक समूह के लिए बिना कारण सत्तारूढ़ पार्टी के साथ संबंध बिगाड़ कर रखना उचित राजनीति नहीं। फिर सरकार आपके पक्ष में जो अच्छे कार्य करती है, उनकी प्रशंसा करनी चाहिए परन्तु हां, सिखों को किसी एक पार्टी का वोट बैंक नहीं बनना चाहिए। अपितु सिख कौम के महान नेता रहे मा. तारा सिंह  द्वारा दर्शायी नीति पर ही चलना चाहिए, जिसके अनुसार सिखों को हर राज्य में उस राज्य की परिस्थितियों के अनुसार एक दबाव ग्रुप के रूप में काम करना चाहिए। किसी एक राजनीतिक पार्टी को बिना शर्त समर्थन देना कोई ज्यादा सूझवान नीति नहीं होती। भाजपा के साथ सिखों की कई विभिन्नताएं हैं, परन्तु फिर भी भाजपा सिखों को साथ लेकर चलने के सुचेत यत्न करती है। कांग्रेस से सिखों को 1984 के अत्याचारों  के कारण बहुत बड़ी नाराज़गी है। नि:संदेह राहुल गांधी के निजी तौर पर इसे कम करने के यत्न तो किये गये हैं परन्तु कांग्रेस ने सिखों को पार्टी के रूप में फिर से अपने नज़दीक लाने के कोई विशेष कदम नहीं उठाये। हम समझते हैं कि कांग्रेस को भी भाजपा से सबक लेकर तथा अन्य क्षेत्रीय पार्टियों को भी सिखों के प्रति अपनी नीति और स्पष्ट करनी चाहिए। सिखों के लिए भी ज़रूरी है कि उनका हर राज्य में इतना महत्त्व हो कि प्रत्येक पार्टी उनको ध्यान में रखे। सिखों को अपना प्रभाव आलोक श्रीवास्तव के इस शे’अर जैसा बनाना चाहिए:
यह सोचना ़गलत है कि तुम पर नज़र नहीं,
मसऱूफ हम बहुत हैं मगर ब़ेखबर नहीं।
-1044, गुरु नानक स्ट्रीट, समराला रोड, खन्ना
मो. 92168-60000