एमएसपी की घोषणा से दलहन, तिलहन में बढ़ेगी आत्म-निर्भरता 

केन्द्र सरकार द्वारा खरीफ की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा से दलहन और तिलहन के उत्पादन में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में बढ़ता कदम माना जाना चाहिए। देश में तिलहन और दलहन का उत्पादन गत वर्षों से लगातार बढ़ता जा रहा है, परन्तु अभी भी देश दलहन और तिलहन के क्षेत्र में घरेलू ज़रूरत पूरी होने जितना उत्पादन हो नहीं पा रहा है। हालांकि अब धीरे-धीरे दलहन व तिलहन का उत्पादन बढ़ने लगा है और केन्द्र सरकार 2027 तक दलहन के क्षेत्र में देश की विदेशों पर निर्भरता कम करने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहे है। केन्द्र सरकार द्वारा आगामी खरीफ की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा से यह साफ हो जाता है कि सरकार दलहन और तिलहन के उत्पादन में देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सही व योजनावद्ध तरीके से कदम बढ़ा रही है। सरकार का लक्ष्य है कि 2027 तक दलहन के क्षेत्र में इस हद तक आत्मनिर्भर हो जाए कि विदेशों से दाल का एक दाना भी आयात नहीं करना पड़े। 
एक मोटे अनुमान के अनुसार दुनिया भर में कुल उत्पादित दालों अर्थात दलहनी फसलों में भारत की भागीदारी लगभग 25 प्रतिशत है। 2027 तक यह लक्ष्य अर्जित करने के लिए देश को 28 फीसदी का आंकड़ा छूना होगा। देश के कृषि वैज्ञानिकों और किसानों के संयुक्त प्रयास से देश में कृषि उत्पादन में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। सरकार द्वारा भी इस दिशा में लगातार प्रयास जारी है और जिस तरह के परिणाम सामने आ रहे हैं, वे निश्चित रूप से सकारात्मक और उत्साहवर्द्धक है।  न्यूनतम समर्थन मूल्य में लगातार बढ़ोतरी और तिलहनी व दलहनी फसलों की खरीद के आश्वासन से किसानों का दलहन-तिलहन के प्रति रूझान बढ़ा है। केन्द्र सरकार ने खरीफ की धान एवं ज्वार की दो फसलों सहित 16 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा कर एक बार फिर किसानों को बड़ी राहत दी है। केन्द्र सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य के अनुसार सर्वाधिक बढ़ोतरी नाइजरसीड यानी कि राम तिल पर की गई है तो दालों में अरहर/तुअर की दाल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी 550 रुपये की बढ़ोतरी की गई है। वैसे सरकार द्वारा खरीफ की सभी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में उल्लेखनीय और किसानों को प्रोत्साहित करने वाली बढ़ोतरी की है। 
न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा के पीछे उद्देश्य यह रहा है कि किसानों को कम से कम उनकी लागत का पूरा मूल्य मिल सके। देश में पहली बार 1966-67 में केवल गेहूं की सरकारी खरीद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक अगस्त, 1964 को एल.के. झा की अध्यक्षता में इसके लिए कमेटी गठित की थी। इसके बाद सरकार ने अन्य प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने की ओर कदम बढ़ाए। केन्द्र सरकार द्वारा सीएसीपी यानी कृषि मूल्य एवं लागत आयोग की सिफारिश पर कृषि फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाने लगी। आज देश में 23 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। इसमें 7 गेहूं, धान आदि अनाज फसलों, 5 दलहनी फसलों, 7 तिलहनी फसलों 4 नकदी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। नकदी फसलों में गन्ना के सरकारी खरीद मूल्य की सिफारिश गन्ना आयोग द्वारा की जाती है तो गन्ने की खरीद भी सीधे गन्ना मिलों द्वारा की जाती है। इसी तरह से कपास की खरीद कॉटन कारपोरेशन ऑफ इण्डिया (सीसीआई) द्वारा की जाती है। मुख्य तौर से अनाज की खरीद भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से और दलहन व तिलहन की खरीद नेफैड द्वारा राज्यों की सहकारी संस्थाओं और अन्य खरीद केन्द्रों के माध्यम से की जाती है। 
केरल सरकार ने 16 तरह की सब्ज़ियों के आधार मूल्य तय कर सब्ज़ी उत्पादक किसानों को बड़ी राहत देने की पहल की है तो हरियाणा सरकार भी केरल की तरह हरियाणा सरकार ने भी सब्ज़ियों का आधार मूल्य तय करने की दिशा में कदम बढ़ाये हैं। किसानों के लिए सर्वाधिक चर्चित एम.एस. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशाें को लागू करने को लेकर भी प्रमुखता से ज़ोर दिया जाता रहा है। स्वामीनाथन आयोग ने 2004 में अपनी सिफारिश में न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने का एक फार्मूला सुझाते हुए सुझाव दिया कि उत्पादन लागत से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक न्यूनतम  समर्थन मूल्य घोषित किया जाए। हालांकि सरकार का दावा है कि 2024 के लिए खरीफ फसलों पर घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य 2018-19 की बजट घोषणा के अनुरुप अखिल भारतीय औसत उत्पादन लागत के कम से कम 1.5 गुना के स्तर पर तय किया गया है। सरकारी दावों की बात की जाए तो बाजरा की उत्पादन लागत पर 77 प्रतिशत तो तुअर पर 59 प्रतिशत, मक्का पर 54 प्रतिशत, उड़द पर 52 प्रतिशत तो शेष अन्य फसलों पर भी उत्पादन लागत पर 50 प्रतिशत अंतर होने का अनुमान व्यक्त किया गया है। 
दरअसल देश में तिलहन और दलहन उत्पादन के लिए सरकारें गम्भीर रही है। 1986 में सेम पित्रोदा की अध्यक्षता में तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन (टीएमओ) का गठन किया गया था। इस मिशन के माध्यम से देश में तिलहनों के उत्पादन को बढ़ाना था। राजस्थान सहित देश के प्रमुख उत्पादक राज्यों में तिलहन उत्पादन बढ़ाने के समन्वित प्रयास किये गये। राजस्थान में तो सहकारी क्षेत्र में तेल मिलें भी लगाई गईं और तिलहन सोसायटियां गठित कर उनका संघ भी बनाया गया था। तेल मिलों का संचालन भी इसी संघ को दिया गया, परन्तु कालांतर में तिलम संघ की तेल मिलें बंद हो गईं और तिलम संघ अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए आज भी जूझ रहा है। कमोबेश यही स्थिति अन्य प्रदेशों में भी रही है। 1990 में दलहन को भी इस तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन के दायरें में लाया गया। इसके बाद 1992-93 और 95-96 में पाम ऑयल और मक्का को भी इस तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन के दायरे में लाकर इनके उत्पादन को बढ़ाने पर भी ज़ोर दिया गया। 2021 से मिशन पॉम ऑयल भी सकारात्मक दिशा में बढ़ता कदम माना जा सकता है। इसके माध्यम से सरकार द्वारा 15 राज्यों में पॉम ऑयल के उत्पादन को बढ़ावा देने के प्रयास किये जा रहे हैं। इस मिशन के तहत 2025-26 तक पूर्वोत्तर राज्यों में 3.28 लाख हैक्टेयर में और पूर्वोत्तर के इतर राज्यों में 3.22 लाख हैक्टेयर में पॉम ऑयल की खेती का लक्ष्य निर्धारित कर सरकार चल रही है। खैर, दो बातें साफ हो जानी चाहिएं कि देश को तिलहन और दलहन की पैदावार में बढ़ोतरी कर आत्मनिर्भर बनाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाना और समय के पूर्व न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाना सही दिशा में बढ़ता कदम है, तो दूसरी ओर घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को मिले, यह सुनिश्चित करना भी ज़रूरी है। इसके लिए खरीद प्रबंध को मज़बूत बनाना होगा। 

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