संयुक्त राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती देते चल रहे युद्ध

रूस-यूक्रेन युद्ध के सैकड़ों दिन गुज़र जाने के बाद अरबों रुपये की हानि और लाखों लोग के बेघर होने तथा जान गंवाने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ अपने अस्तित्व की तलाश में घूमता नज़र आ रहा है। अमरीका तथा यूरोपीय देश रूस के खिलाफ खुलकर धन तथा सामरिक अस्त्र-शस्त्र लगातार यूक्रेन को प्रदान कर रहे हैं, दूसरी तरफ इन्हीं बाहुबली देशों के इशारे पर संयुक्त राष्ट्र रूस पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा चुका है। जी-20 और जी-7 की कई बैठकें हो चुकी हैं और लगातार यूरोपीय देश रूस पर प्रतिबंध पर प्रतिबंध लगाते जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ न तो रूस-यूक्रेन युद्ध और न ही इज़रायल-फिलिस्तीन युद्ध को रोकने में कोई कारगर भूमिका निभा सका है। इज़रायल लगातार गाज़ा और फिलिस्तीन पर आक्रमण कर हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतार चुका है, परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ का मौन उसके अस्तित्व पर संदेह पैदा करता है। ऐसे लगता है कि जैसे संयुक्त रार्ष्ट अब अस्तित्वहीन हो चुका है। अभी भी अमरीका सहित नाटो देश संयुक्त राष्ट्र को अपने स्वार्थ के हिसाब से संचालित करते आ रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध को रोकने होतु संयुक्त राष्ट्र रूस को अपील करता रहा, परन्तु रूस के कान पर जूं तक नहीं रेंगी उल्टा हमले और तेज़ किए गए। संयुक्त राष्ट्र का महत्व प्राय: न्यून होता जा रहा है।
वैश्विक शांति, सद्भावना और सौहार्द्र के लिए 1970 में विश्व के 191 देशों ने अपनी सहमति जताकर परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इस परमाणु संधि का मूल उद्देश्य मानव जाति की सुरक्षा के लिए परमाणु हथियारों और इस खतरनाक तकनीक के प्रचार-प्रसार को रोकना था। जिन देशों के पास परमाणु हथियार नहीं थे, वे भी इस संधि में शामिल हो गए थे, परन्तु परमाणु हथियार सम्पन्न देश भी इस बात से सहमत हैं कि परमाणु हथियार बनाने एवं इसके उपयोग पर रोक लगे। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों का भयानक परिणाम पूरी दुनिया के लोग देख चुके थे, अनुभव कर चुके थे। जापान इसके दुष्परिणाम अभी तक झेल रहा है। परमाणु हथियारों का इस्तेमाल मानव जाति के खिलाफ न किया जाए इसके लिए परमाणु अप्रसार संधि की कवायत संयुक्त राष्ट्र संघ की थी। 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद अनेक देश परमाणु हथियार सम्पन्न बन चुके हैं। परमाणु तथा हाइड्रोजन बमों की संख्या में भी काफी वृद्धि हुई है। उल्लेखनीय है कि इस संधी को युद्ध से बचने और शांति स्थापित करने के प्रयास के लिए वैश्विक स्तर पर लागू किया गया था। अब रूस तथा यूक्रेन युद्ध में उसकी कहीं भी कोई भूमिका दिखाई नहीं देती। सभी संस्थाएं निष्क्रिय प्रतीत होती हैं। कमज़ोर और छोटे देश यूक्रेन पर लगभग अढ़ाई वर्ष से रूस लगातार आक्रमण कर उसके शहरों को तबाह कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ सहित विश्व के सारे देश हाथ पर हाथ धरे बैठे इस भीषण युद्ध को सिर्फ देख रहे हैं। ऐसे में ऐसी संधियों की प्रासंगिकता भी लगभग शून्य हो चुकी है। यूक्रेन को अपनी उस बड़ी गलती का एहसास हो रहा है जो 1994 में उसने बुडापेस्ट समझौते के तहत परमाणु हथियार नहीं बनाने के लिए वचनबद्ध होकर हस्ताक्षर करके की थी। अमरीका, यूरोपीय देशों तथा रूस ने यूक्रेन को परमाणु हथियारों से दूर रखने की नीति पर काम किया था, जिसके फलस्वरूप यूक्रेन ने अपने पास मौजूद सभी परमाणु हथियार इस बुढापेस्ट समझौते के तहत 1996 में नष्ट कर दिए थे। यूक्रेन ने रूस तथा अमरीका और यूरोपीय देशों के दबाव में 1996 में जेनेवा सम्मेलन में व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि के तहत हस्ताक्षर किए थे। भारत ने इस परमाणु संधि पर हस्ताक्षर करने से साफ इंकार कर दिया था और भारत सरकार की देखा देखी पाकिस्तान ने भी हस्ताक्षर नहीं किए थे। उस समय की यह नीति अत्यंत भेदभाव पूर्ण थी जिसके परिणाम अब साफ नज़र आ रहे हैं। यूक्रेन के पास यदि आज परमाणु हथियार होते तो रूस इस तरह उस पर ताबड़तोड़ हमले न करता।
भारत ने पहला परमाणु परीक्षण प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 1974 में राजस्थान के पोखरण में किया था और तब से दुनिया ने समझ लिया है कि भारत भी एक परमाणु सम्पन्न देश बन चुका है। इस दिशा में 1998 में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में फिर से परमाणु परीक्षण कर इस पर मुहर लगा दी गई थी। भारत ने परमाणु हथियार बनाने के साथ-साथ प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने एक नीति विश्व के सामने स्पष्ट कर दी थी कि भारत कभी भी पहले परमाणु हमला नहीं करेगा और यदि कोई देश उस पर हमला करता है तो वह परमाणु हथियारों का उपयोग करने से पीछे नहीं हटेगा।

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