बहु-पक्षीय चुनौतियों का सामना कर रही है नयी केंद्र सरकार

नयी सरकार को बने अभी एक महीना भी नहीं हुआ है कि विपक्ष उसके खिलाफ ज़बरदस्त आक्रामक मुद्रा में दिख रहा है। आम तौर पर होता यह है कि जब कोई नयी सरकार शपथ लेती है तो पहले 6 महीनों को उसके लिए ‘हनीमून’ अवधि के तौर पर माना जाता है, यानी उसे इस दौरान मौका दिया जाता है कि वह अपने एजेंडे को लागू करने की शुरुआती कवायद कर ले। विपक्ष इस दौरान उसकी खिंचाई से परहेज़ करता है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो रहा है। इसकी कुछ वज़हों पर गौर करना ज़रूरी है। पहली बात तो यह है कि विपक्ष की समझ में यह सरकार तो तकरीबन वही है, जो पिछले दस साल से चल रही थी। कुछ भी नहीं बदला है। अगर भाजपा की भाषा का ही इस्तेमाल कर लें तो कहा जा सकता है कि न चाल बदली है, न चरित्र बदला और न ही चेहरे बदले हैं। दूसरी बात यह है कि यह सरकार भी बार-बार ‘कॉन्टिनुइटी’ (निरंतरता) शब्द का इस्तेमाल करके अपने इरादों का संदेश दे रही है। वह भी अपनी तरफ से दिखाना चाहती है कि मोदी जी जिस तरह पिछले दस साल से शासन करते रहे हैं, उसी तरह अगले पांच साल भी करेंगे। 
तीसरी बात यह है कि सरकार ने अपने पहले दस दिन में ही कई मुद्दे विपक्ष को प्लेट में रख कर दे दिये हैं। जिस समय मोदी तीसरी बार की शपथ ले रहे थे, उसी समय कश्मीर में तीर्थयात्रियों की बस पर आतंकवादी हमला हो रहा था। मणिपुर न केवल धू-धू कर जल रहा था, बल्कि भाजपा के ही मुख्यमंत्री एन. बीरेंद्र सिंह मीडिया में शिकायत कर रहे थे कि केंद्र राज्य की समस्याओं की तरफ ध्यान नहीं दे रहा है। कुछ दिन बाद ही डॉक्टरी की नीट परीक्षा और यूजीसी-नेट परीक्षा के घोटालों का भंडा फोड़ हो गया है। कश्मीर और मणिपुर ने गृह मंत्री अमित शाह की अक्षमताओं को उभारा, तो नीट ने शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान की अक्षमताओं को रेखांकित कर दिया। इसके बाद बंगाल में ज़बरदस्त ट्रेन दुर्घटना हो गई। इसने रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव की तथाकथित विशेषज्ञता पर एक बार बट्टा लगा दिया। 
जैसे कि इतनी नकारात्मकता काफी नहीं थी, मौसम की पहली बरसात ने ही पिछले पांच साल में तैयार की गई कई अधिसंरचनात्मक सुविधाओं को खोखलेपन को उजागर कर दिया। दिल्ली हवाई अड्डे के हाल में बने और प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित टर्मिनल-1 की छत गिर गई। जबलपुर और राजकोट के हवाई अड्डों की इमारतों को भी नुकासन पहुंचा। अयोध्या में लार्सन और टुबरो द्वारा बनाया गया मंदिर का गर्भगृह टपकने लगा। रामपथ में गड्ढे पड़ गये। दिल्ली में प्रगति मैदान की सुरंग में पानी भर गया। बिहार में कई पुलों में दरारें पड़ गईं। इसी तरह की शिकायतें कई राज्यों से आने लगीं। इनमें से कई सुविधाओं की उद्घाटन प्रधानमंत्री ने चुनाव से पहले किया था। इस घटनाक्रम ने अंदेशा पैदा किया है कि मोदी सरकार के पिछले पांच साल में जो कुछ निर्माण कार्य किया गया है, उसकी क्वालिटी पर सवालिया निशान लगा हुआ है। इस पूरे प्रकरण में से भारी भ्रष्टाचार की बदबू आ रही है। अब देखना यह है कि विपक्ष इस मसले को कैसे उठाता है? 
नीट घोटाला तो एक तरह से राष्ट्रीय दुर्घटना है। इसके कारण 24 लाख छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया है। अगर एक छात्र के परिवार में पांच लोगों को औसतन मान लिया जाए तो करीब सवा करोड़ खुशहाल भारतवासियों के परिवारों के संभावनाशील युवाओं की प्रगित पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। सरकार शुल्क के रूप में इन छात्रों से एक हज़ार करोड़ वसूल कर चुकी है। इन सवालों का कोई जवाब नहीं है कि अगर नीट की परीक्षा दोबारा हुई तो क्या सरकार इस रकम को दोबारा वसूलेगी? या अगली बार छात्रों से कोई शुल्क नहीं लगेगा? दूसरे, जिस नैशनल टेस्टिंग एजेंसी (एन.टी.ए.) पर इन परीक्षाओं को आयोजित करने की ज़िम्मेदारी है, उसे 2018 में भाजपा सरकार ने ही गठित किया था। इस काम में अमरीका में काम कर रही इसी तरह की एजेंसी की नकल की गई थी। दिलचस्प बात यह है कि संस्था बनाने में नकल तो की गई, पर कार्यपद्धति में अमरीका से कोई प्रेरणा नहीं ली गई। जहां अमरीका की इस एजेंसी में सैकड़ों लोग काम करते हैं और सुव्यवस्था के साथ सारी परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं, वहां भारत की एनटीए का कुल स्टाफ मुट्ठी भर है और ज़्यादातर कामकाज ‘आउटसोर्सिंग’ के ज़रिये करवाया जाता है। ऊपर से इस एजेंसी का मुखिया एक विवादास्पद व्यक्ति है जिसका संस्थागत संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बताया जाता है। इन सज्जन को जहां भी रखा गया, घोटालों के आरोप लगे। इस तरह से देखा जाए तो इस पूरे घोटाले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिष्ठा पर भी आंच आ रही है। 
भाजपा एक गहरे अंतर्विरोध का शिकार लग रही है। एक तरफ तो उसके प्रवक्तागण और समर्थक यह दावा कर रहे हैं कि विपक्ष एकजुट नहीं है। जैसे ही संसद के पहले सत्र में सरकार आपातकाल पर प्रस्ताव लायी, विपक्ष की फूट उजागर हो गई। दूसरी तरफ स्थिति यह है कि भाजपा जिन-जिन प्रदेशों में पराजित हुई है, वहां पार्टी में गृहयुद्ध जैसा छिड़ा हुआ है। और तो और, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और केंद्रीय गृहमंत्री के बीच एक ज़बरदस्त शीतयुद्ध हो रहा है। अमित शाह मुख्यमंत्री के खिलाफ एक आरोपों और संदेहों की एक फाइल तैयार कर रहे हैं, ताकि जब भी मौका मिले उसके आधार पर आदित्यनाथ का पत्ता साफ कर दिया जाए। उनके समर्थक साफ कहते नज़र आ रहे हैं कि मुख्यमंत्री ने चुनाव जीतने में अपेक्षित भूमिका तो निभाई ही नहीं, बल्कि कई मोर्चों पर विपक्ष को लाभ पहुंचाया। दरअसल, आदित्यनाथ भाजपा आलाकमान के हलक में अटके हुए हैं। वह उन्हें न तो निगल पा रहा है, और न ही उगल पा रहा है। 2022 के चुनाव से पहले भी यही स्थिति बनी थी। उस समय भी उन्हें हटाने का मंसूबा बनाया गया था। लेकिन आकलन करने पर ऐसा लगा कि उनके बने रहने से कम नुकसान है, और हटाने से ज्यादा हानि हो सकती है। ऊपर से योगी-मोदी की मीडियाजनित छवि बन चुकी थी। उसके भंग होने से कहीं अधिक नुकसान हो सकता था। ये सारे डर आज भी कायम हैं। आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाना केंद्र को भारी पड़ रहा है। 
पार्टी के भीतर इस तरह के संघर्ष राजस्थान, झारखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र और बंगाल में भी हो रहे हैं। हर जगह कोशिश यही है कि हार की तोहमत स्थानीय नेतृत्व पर मढ़ कर केंद्रीय नेतृत्व को बचा लिया जाए। यह एक शुतुरमुर्गी रेवैया है। इससे पार्टी का भविष्य सुधरने के बजाय और बिगड़ सकता है। कुल मिला कर भाजपा के नेतृत्व में नयी गठजोड़ सरकार चौतरफा संकट का सामना कर रही है।

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।