महंगी हो रही घर में थाली

शहरों, कस्बों, गांवों में चुनावी अभियान का जो लाउड स्पीकर बजना था, बज चुका। एक दूसरे को जम कर कोसा गया। अपने सदगुणों का खूब बखान हुआ। जो नहीं हुआ वह है महंगाई का डर। जन-जीवन के कंधे जिस बोझ से झुके रहते हैं, सांसे जिस बोझ से सहज नहीं होती वह है महंगाई। आमदनी कम खर्च ज्यादा। निम्न मध्य वर्ग, मध्य वर्ग का हर परिवार चलाने वाला यहां फिसलता चला जाता। क्या बयान करें? का सवाल उसे परेशान करता है। बच्चों की फीस, कपड़े, घर का राशन, रिश्तेदारों के  पास आना-जाना, उपभोक्तावाद के दवाब, कहां से काटे कहां से जोड़ें, इसी उधेड़बुन में सांसे बोझ झेलती रहती हैं और फिर अगर परिवार किसी मुकद्दमे में फंस गया है या घर का बड़ा बुजुर्ग बीमार रहने लगा है। फिर तो नाव भंवर में फंसी समझें। माहौल कुछ ऐसा है कि महंगाई थम नहीं रही और बाज़ार में आप अपने आप को निहत्था समझने लगते हैं। जैसे कपड़े उतर गए हों वो भी बीच बाज़ार।
लगने लगता है कि किसी अप्रत्याशित घटनाक्रम में अचानक फंस गए हैं। समझ में यह नहीं आता की खाद्य उत्पादों की उपज बढ़ने के बावजूद खाद्य महंगाई इतनी अधिक क्यों है? कहां तक जाने वाली है? हम महंगाई से इतना त्रस्त रहते हैं कि इस पर कभी सोच ही नहीं पाते। फिर अगर खाद्य सामान महंगा है तो इसके उत्पादकों यानी किसानों की आय में इज़ाफा क्यों नहीं हो रहा? वे बेचारे तो सड़कों पर धूप, बारिश और आंधी में रैलियां कर रहे हैं। चुनाव के दिनों में ढूंढने पर भी इन सवालों का कहीं भी जवाब नहीं मिला। मगर ये सवाल वास्तविक हैं। हम इनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। सरकारें इन सवालों पर बात नहीं कर रही। विशेषज्ञ चुप हैं, लेकिन यह जो पब्लिक है वह तो सब जानती है। रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर माइकल पात्रा ने एक शोध पत्र जारी किया, उसमें लिखा गया कि खाद्य महंगाई उतार-चढ़ाव स्थिरता, अन्य उत्पादों पर असर तथा चक्रीय मामलों के कारण कोर इन्फलेशन जैसी हो गई है। अब तक माना यह जाता रहा है खाद्य और ईंधन की महंगाई में तेज उतार-चढ़ाव होता रहता है, इसलिए इसे टोटल महंगाई से अलग रखा गया है। मौद्रिक नीति में रिजर्व बैंक को महंगाई को कम करने पर ध्यान देता है। रिजर्व बैंक कुछ ठीक ही कह रहा है। पिछले दो सालों में खाद्य महंगाई 6 से 7 प्रतिशत से ज्यादा है। फसले आई गईं। उत्पादन भी बढ़ा मगर इस महंगाई को फर्क नहीं पड़ा। रिजर्व बैंक भी समग्र महंगाई को 5 प्रतिशत पर रोकना चाहता है, लेकिन सफलता मिली नहीं। उसे खाद्य महंगाई के सामने झुकना ही पड़ा।
पिछले दो सालों की हालत पर गौर फरमायें, मौसम नरम-गरम रहने के बावजूद फसल बर्बादी के चिन्ह कम ही नज़र आये। अनाज उत्पादन को लेकर देश को बड़ी गिरावट का सामना नहीं करना पड़ा। एम.एस.पी. बढ़ी है। सरकार के पास भंडार क्षमता में कमी नहीं आई। महंगाई के डर के मारे सरकार ने लगभग सभी प्रमुख कृषि निर्यात भी रोक दिए। गेहूं, चावल, यहां तक कि प्याज भी। बाज़ार में इन यत्नों से कोई कमी नहीं आई। फिर भी महंगाई अपना रंग दिखाती रही। जिन खाद्य उत्पादों की अमूमन कमी देखी जाती है, जैसे कि दाल और खाद्य तेल इनका कुछ सस्ता ही आयात करवाया गया।
पूरा एक साल ग्रामीण महंगाई के साथ गुज़र गया। सीधा प्रभाव गांव में ट्रैक्टर, बाइक जैसी उपभोक्ता चीज़ों पर दिख रहा। विवाह समारोह भी सिम्पल बहुत कम होने लगे हैं। उपभोक्ता उत्पाद कम्पनियां दो बरस से ग्रामीण मांग टूटने को लेकर परेशान हैं। खाद्य महंगाई उत्पादक को लगातार गरीब करती जा रही है और बैंकों का कर्ज प्रबन्ध उड़ता चला जा रहा है। महंगी होती थाली आमजन को परेशान कर रही है। इस सिलसिले को गम्भीरता से देखने की ज़रूरत है।