आपराधिक मानसिकता पर अंकुश ही है कानून की सफलता

देश ने अंग्रेज़ों के ज़माने के कानून बदल दिये हैं। क्या केवल नाम बदला है, यह महत्वपूर्ण प्रश्न आज बहस का विषय है। इन्हें न्याय का पर्याय बताया जा रहा है। क्या यह समझा जाये कि, क्योंकि वे गुलामी की निशानी थे, इसलिए बदलाव ज़रूरी था?
विवेक बनाम न्याय 
इसमें कोई विरोधाभास नहीं है कि समाज में यदि किसी ने कोई गलती की है और छोटे या बड़े किसी भी स्तर का अपराध है, उसके लिए दण्ड अनिवार्य है। इसकी विधि क्या है। नियम है कि इस पर विचार करने, निर्णय तक पहुंचने और फिर फैसला सुनाने तथा उस पर अमल करने के लिए नियुक्त पुलिस, दंडाधिकारी और न्यायाधीश के सामने एक विकल्प है रहता कि वे कानून की धाराओं के अनुसार आचरण करने या अपने विवेक अर्थात् समझ के अनुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं। यही वास्तविक मुद्दा है जिस पर न पहले और न अब लागू कानूनों में तनिक भी ध्यान दिया गया है। यह आवश्यक था पर इसे नहीं किया गया।  कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है—दो व्यक्ति एक ही कानून, मान लीजिए, मनी लांड्रिंग के अन्तर्गत पकड़े जाते हैं। सब कुछ समान है लेकिन एक को ज़मानत मिल जाती है, दूसरे को नहीं। एक न्यायाधीश ज़मानत देता है तो दूसरा उच्च न्यायालय में बैठ कर उस पर रोक लगा देता है। हैरानी की बात है। एक और उदाहरण है—एक व्यक्ति को अपनी युवावस्था में किसी अपराध के लिए लम्बी सज़ा सुना दी जाती है। पांच, दस, पंद्रह या बीस वर्ष बाद पाया जाता है कि यह व्यक्ति तो निरपराध था, उसने तो अपराध किया ही नहीं था। मतलब यह कि किसी ने तो अपराध किया था और वह आज़ाद घूम रहा था और निर्दोष सज़ा काट रहा था। वर्षों बाद निर्णय होता है कि सज़ा गलत थी। वह सलाखों से बाहर आता है। तब तक असली अपराधी न्याय तंत्र की पहुंच से बाहर जा चुका होता है। प्रश्न उठता है कि क्या किसी भी न्यायाधीश का यह कहना उचित है कि महोदय ने अपने विवेक के आधार पर तब निर्णय किया था या अब किया है। उनके इस विवेक ने न्याय की बखिया उधेड़ दी और उन पर आंच तक नहीं आ सकती, उनके निर्णय पर प्रश्न नहीं उठ सकता क्योंकि वे अपनी समझ से फैसला करते हैं। यदि किसी ने कोशिश की तो अदालत की अवमानना होगा।  आरोपी, वकील और न्यायाधीश तक सभी इस प्रक्रिया की वास्तविकता से परिचित हैं। यह विवेकपूर्ण आचरण सही है या खरीदा गया है, यह सवाल उठने से पहले ही दब जाता है। एक ओर कोई नर्क की यातना झेल रहा है, उसके पक्ष में गवाही देने वालों पर मौत का साया मंडराता रहता है और दूसरी ओर असली गुनाहगार सीना तानकर चल रहा है। 
मुकद्दमे और सज़ा की त्रासदी से टूट गये निरपराध के गवाएं वर्षों का कोई मूल्य नहीं, मामूली क्षतिपूर्ति तक नहीं और न्याय की दुहाई देने वालों के लिए कोई ठौर ठिकाना नहीं। यह स्थिति आज़ादी से पहले थी और बदस्तूर आज तक चली आ रही है। प्रश्न उठता है कि जिसने सज़ा दी थी और जिसने अब रिहाई का हुक्म सुनाया, क्या उनकी जांच-पड़ताल और उनसे कानूनन पूछताछ नहीं होनी चाहिए? इसका कोई प्रावधान न पहले था और न अब है। स्वतंत्र भारत में न्याय प्रणाली की यह मज़बूरी क्या समाप्त हो पाएगी?
कहते हैं कि नई व्यवस्था में बहुत कुछ सरल कर दिया गया है। आधुनिक टैक्नोलॉजी का उपयोग होना ही चाहिए था। इसमें कौन-सी बड़ी बात है, यह तो संसार का नियम है। परिवर्तन को स्वीकार करना ही होता है वरना पिछड़ापन पीछा नहीं छोड़ता। सोचने का विषय यह है कि क्या कानूनों के दुरुपयोग की संभावनाएं समाप्त हो गई हैं? नागरिक अधिकारों को वरीयता देते हुए क्या उन्हें सुरक्षित रखा गया है? सबसे बड़ी बात यह कि क्या पुलिस, वकील और न्यायाधीश द्वारा गलत फैसला करने पर उन्हें कठघरे में खड़ा किया जा सकता है? इसके साथ ही कार्रवाई करने, निर्णय होने तथा अमल करने के लिए संबंधित व्यक्ति की ज़िम्मेदारी तय करना इन कानूनों में है। पूरे पन्ने पढ़ जाइए, कहीं भी इसका ज़िक्र तक नहीं मिलेगा। यह ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ ही है जो अब तक चलता रहा है। 
न्याय की अवधारणा 
इन कानूनों को न्याय कहा गया है। व्यापक अर्थों में यह कहा जा सकता है कि न्याय वही जो आपराधिक मानसिकता से मुक्त रखने का काम करे। अपराध की तो सज़ा निश्चित हो गई लेकिन उससे पहले गंभीर चिंतन का विषय यह होना चाहिए था कि क्या कानूनों के माध्यम से समाज की उस प्रवृत्ति पर रोक लगती है जो किसी को अपराध करने के प्रति उकसाती है, दूसरे का अधिकार छीनने की इच्छा पैदा करती है, दबंगई पर रोक लगाना तो दूर, उसे पालने-पोसने का काम करती है। यही नहीं धन और बल से कुछ भी करने और किसी को भी प्रताड़ित करने की सोच को विकसित करती है। 
इन कानूनों में कुछ मामलों में सज़ा को समाज सेवा के दायरे में रखने की बात कही गई है। यह सेवा क्या और कैसी होगी, इसका कोई विवरण नहीं है। समाज सेवा के नाम पर तो अधिकतर राजनीतिक क्षेत्र को चुना जाता है। क्या अपराधियों से इसके माध्यम से राजनीति में उतरने की अपेक्षा है। पहले से ही इसमें अपराधियों को प्रवेश मिल रहा है और वे विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री तक बने बैठे हैं। क्या समाज सेवा के पर्दे में ऐसे लोगों की एक नई खेप तैयार करने का इरादा तो नहीं?  न्याय और उसके तंत्र की सरलता और सफलता इस बात पर निर्भर है कि समाज में आपराधिक मानसिकता के पनपने पर रोक लगे। लोग यह सोचने से भी परहेज़ करें कि किसी को अपने सामने झुकाया जा सकता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अर्थ सब कुछ करने की छूट नहीं है। इन कारणों पर विचार होना चाहिए कि कोई व्यक्ति जान-बूझकर क्यों नियम और कानून का उल्लंघन करता है?
एक उदाहरण है। लम्बे हाईवे पर यात्रा के दौरान गाड़ियों की गति नियंत्रित करने के नियम हैं, गलत ओवरटेक करने और विपरीत दिशा में चलने से रोकथाम भी है। लेकिन फिर भी लोग इनका पालन नहीं करते। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि राजमार्गों का निर्माण करते समय आवश्यक सुविधाओं जैसे जलपान, विश्राम स्थल, पेट्रोल पम्प और शौचालयों की सुविधाओं को नज़रअंदाज़ किया गया। ये हैं तो सही लेकिन अधिकतर गलत जगहों पर हैं जिसके कारण वाहन चालक अक्सर गलती कर देता है और परिणाम गंभीर दुर्घटना के रूप में निकलता है। यह छोटा-सा उदाहरण अवश्य है लेकिन किस प्रकार आपराधिक मानसिकता का जन्म होता है, उसे समझने के लिए काफी है। ऐसा व्यक्ति जिसने आज यह किया वह कल किसी भी कानून का उल्लंघन कर सकता है। 
विकारग्रस्त सोच को किसी कानून से नहीं रोका जा सकता। उसके लिए ऐसा वातावरण होना चाहिए जिसमें व्यक्ति को स्वयं अपनी किसी गलती को पहचानने की योग्यता का विकास हो। यह कोई जन्मजात क्षमता नहीं होती बल्कि अलिखित सामाजिक नियमों-कायदों की से मिलती है, परिवार के सदस्यों के व्यवहार पर निर्भर है। सोचिए कि क्या किसी बुजुर्ग का अपने नाबालिग पोते को कार चलाने के लिए दिया जाना अपराध नहीं है? इसी प्रकार महिलाओं पर पाबंदी और पुरुषों को कुछ भी कर सकने की सुविधा किसी कानून से नहीं मिलती, बल्कि पारिवारिक संस्कारों से मिलती है। यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है जिससे अपराध करने की सोच को बल मिलता है।  इसके लिए भारी भरकम कानून, कड़ी सज़ा, जुर्माना और ऐसे ही दंडात्मक उपाय कभी सफल नहीं होते, हालांकि उनसे भय का वातावरण अवश्य बनता है। एक समय ऐसा आता है कि लोग डरने की जगह अधिक उग्र होने लगते हैं। इसे न्याय तो कतई नहीं कहा जा सकता। अगर कानून इतने ही सक्षम होते तो फिर चोरी, डकैती, अपहरण, दुष्कर्म, तस्करी जैसे अपराध करने के लिए माहौल नहीं बनता! कोई भी जन्म से अपराधी नहीं होता, वह अपने साथ और आस-पास होने वाले भेदभाव के कारण इस रास्ते का अनुसरण करता है। एक बार उसके मन में कुछ गलत करने की नींव पड़ गई तो विषबेल का पनपना तय है। 
यदि कानून इस सोच को रोकने में अक्षम हैं तो फिर क्या फर्क पड़ता है, कोई भी व्यवस्था इन्हें लागू करे, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कानून से भय नहीं उसके प्रति आदर होना चाहिए।