डेरा प्रमुख को बार-बार पैरोल, सियासत या संयोग

डेरा सच्चा सौदा, सिरसा का प्रमुख गुरमीत राम रहीम, जो अपनी ही दो शिष्याओं के साथ दुष्कर्म करने के लिए 20 वर्ष की जेल काट रहा है, एक बार फिर पैरोल पर जेल से 20 दिन के लिए बाहर आ गया है। पिछले चार वर्षों में यह 15वां अवसर है जब वह पैरोल पर बाहर आया है। इसे संयोग कहा जाये या राजनीतिक रणनीति कि जब भी डेरा प्रमुख को पैरोल दी जाती है तो हरियाणा, पंजाब व राजस्थान में पंचायत व नगर पालिका से लेकर विधानसभा व लोकसभा चुनाव तक के चुनाव या उप-चुनाव हो रहे होते हैं। गुरमीत राम रहीम के समर्थक इन्हीं राज्यों में अधिक हैं। जेल से बाहर आने पर वह सत्संगों का आयोजन करता है, जिनमें मंत्री, विधायक व सांसद तक शामिल होते हैं। दुष्कर्म के एक दोषी से नैतिकता के उपदेश लेने वालों की मानसिकता पर सवाल किये जा सकते हैं, लेकिन यह अलग विषय है। असल बात यही प्रतीत होती है कि चुनावी लाभ अर्जित करने के लिए डेरा प्रमुख को पैरोल दी जाती है, लाभ मिलता है या नहीं, यह शोध का विषय है, लेकिन इस बार कांग्रेस ने उसकी पैरोल पर आपत्ति दर्ज की है, क्योंकि हरियाणा में मतदान के लिए कुछ ही दिन शेष रह गये हैं और इस पैरोल के विरुद्ध चुनाव आयोग को एक याचिका प्राप्त हुई है। 
गौरतलब है कि डेरा प्रमुख 13 अगस्त, 2024 को 21 दिन की फरलो पर बाहर आया था और 2 सितम्बर, 2024 को ही रोहतक की सुनरिया जेल लौटा था। इतनी जल्दी उसे फिर से पैरोल देना उसके सियासी दबदबे को दर्शाता है। हरियाणा चुनाव आयोग, जेल प्राधिकरण और राज्य सरकार ने डेरा प्रमुख राम रहीम की पैरोल का मार्ग प्रशस्त किया है। इस बार पैरोल देने का कारण पारिवारिक बताया गया है, क्या मज़ाक है। उसे पैरोल देने की जो शर्तें लगायी गई हैं, उनसे प्रतीत होता है कि राज्य भी पैरोल के ‘पारिवारिक कारण’ को संदिग्ध समझता है। वह राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले सकता और हरियाणा का दौरा नहीं कर सकता, जहां 5 अक्तूबर को मतदान है। इसके अतिरिक्त, राज्य भी अच्छी तरह से जानता है कि यह शर्तें अर्थहीन हैं और किसी को मतदाताओं को प्रभावित करने से नहीं रोक सकतीं, जैसा करने का डेरा प्रमुख पर आरोप लगाया जाता है। 
यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि फरवरी में डेरा प्रमुख को 50 दिन की पैरोल के विरुद्ध एसजीपीसी की याचिका पर सुनवायी करते हुए पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने बिना अदालत की अनुमति के आगे पैरोल देने पर रोक लगा दी थी। एसजीपीसी केस का निपटारा करते हुए हाईकोर्ट ने अगस्त में यह रोक हटा दी थी। अगस्त से अक्तुबर तक डेरा प्रमुख 21 व 20 दिनों के लिए दो बार जेल से बाहर आ चुका है। ध्यान रहे कि चुनाव आयोग की राज्यों को अप्रैल 2019 की गाइडलाइंस के अनुसार पैरोल ‘अति आपात स्थिति में’ ही दी जा सकती है और यह सुनिश्चित किया जाये कि ‘अभियुक्त किसी चुनाव संबंधी गतिविधि में शामिल न हो’। डेरा प्रमुख की ऐसी क्या अति आपात पारिवारिक स्थिति थी? किसी को नहीं मालूम। 
इन दोषियों की गुजरात सरकार ने समय पूर्व सज़ा माफ कर दी थी और जेल से निकलने पर इनका स्वागत किया गया था, जिसका खूब प्रचार भी किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए इन्हें फिर से सलाखों के पीछे भेजा, लेकिन दस दिन बाद ही दो दोषियों को पैरोल दे दी गई। इसमें कोई दो राय नहीं कि असरदार लोगों को और जिनका कुछ राजनीतिक महत्व होता है, उन्हें बहुत आसानी से पैरोल मिल जाती है, लेकिन इसके विपरीत जो अपना असर नहीं रखते या जिनसे कोई सियासी लाभ नहीं उठाया जा सकता, उन्हें वास्तविक कारणों के होते हुए भी पैरोल पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। 
एक बच्ची के साथ दुष्कर्म करने का दोषी आसाराम बापू को एलोपैथिक दवाई असर नहीं कर रही थी, वह आयुर्वेदिक दवाओं से उपचार कराना चाहता था, महाराष्ट्र जाकर। अपने इलाज के लिए पैरोल पाने हेतु उसे राजस्थान हाईकोर्ट तक जाना पड़ा। हाईकोर्ट ने इस साल अगस्त में उसे 7 दिन की पैरोल दी, जिसे बाद में 5 दिन और बढ़ा दिया गया। हालांकि आसाराम भी स्वयंभू धर्मगुरु है, उसके भी अनुयायी हैं, लेकिन उसका राजनीतिक प्रभाव डेरा प्रमुख जैसा नहीं है। गौरतलब है कि 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि पैरोल या फरलो के कारण प्रभावी लोग जितने दिन जेल से बाहर रहते हैं, वह समय उनकी सज़ा अवधि में नहीं गिना जायेगा। इसका अर्थ यह है कि अगर व्यक्ति को एक साल की सज़ा मिली है और वह इस अवधि में दस दिन पैरोल पर जेल से बाहर रहता है तो उसे साल पूरा होने पर अतिरिक्त 10 दिन जेल में रहना होगा।
डेरा प्रमुख को 2017 में 20 साल की सज़ा सुनायी गई थी। अक्तूबर 2020 से वह पैरोल या फरलो पर 255 दिन बाहर रहा है और अगर इसमें वर्तमान पैरोल के 20 दिन और जोड़ लिए जायें तो यह 275 दिन बनते हैं यानी पिछले चार वर्षों के दौरान वह लगभग 9 माह जेल से बाहर रहा है। इस दौरान उसने कोई राजनीतिक लाभ किसी पार्टी को पहुंचाया है या नहीं, इसका कोई महत्व नहीं है। असल मुद्दा यह है कि हरियाणा सरकार उसे बार-बार पैरोल दे रही है। यह पीड़ित पक्ष के साथ अन्याय तो है ही, बल्कि उनका अपमान भी है कि उनका दोषी जब मन चाहे जेल से बाहर आकर ‘मौज’ करता है। यह उन कैदियों के प्रति भी भेदभाव है जो राजनीतिक पैठ न होने की वजह से पैरोल को तरसते रहते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि दुष्कर्म के अभियुक्त को निरन्तर जेल से बाहर घूमने की अनुमति देना क्या न्यायोचित है? -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर