देश के लिए घातक है शिक्षा का बाज़ारीकरण 

आज विश्व अध्यापक दिवस पर विशेष

यूनेस्को और आईएलओ की पहल पर पांच अक्तूबर को विश्व शिक्षक दिवस मनाये जाने की शुरुआत सन् 1994 में हुई थी। उद्देश्य या मूलमंत्र था कि शिक्षक विद्यार्थियों के गुण-दोष पहचान कर इस प्रकार शिक्षित करें कि वे श्रेष्ठ नागरिक बनने के साथ-साथ पढ़ाये गये विषयों में पारंगत हों और कीर्तिमान स्थापित करें। यह संकल्पना कितनी सफल हुई यह भारत के संदर्भ में समझना आवश्यक है। 
शिक्षक और व्यापार 
आज दुनिया में सबसे अधिक पढ़ा लिखा, भारत की तुलना में छोटा-सा देश दक्षिण कोरिया है। उसके बाद अन्य विकसित कहे जाने वाले देश आते हैं जैसे चीन, रूस, कनाडा, अमरीका, जर्मनी, इंग्लैंड, फ्रांस, आयरलैंड, नॉर्वे तथा अन्य। भारत का क्रम इनके बाद कहीं नब्बे के आसपास आता है। कुछ लोग कहते हैं कि साठ के आस-पास हमारा नम्बर है। मतलब यह कि हमारी दशा है चिंताजनक। हमारी आधी आबादी लगभग अशिक्षित या कम पढ़ी लिखी है। विडम्बना यह है कि चीन जिससे आबादी के मामले में हम आगे निकल चुके हैं, उसके शिक्षकों की संख्या हमसे दुगुनी यानी लगभग दो करोड़ है। अग्रिम पंक्ति में आने वाले देशों में पचास से अस्सी लाख तक शिक्षक हैं। 
अनुमान है कि विश्व में लगभग पंद्रह करोड़ बच्चे सुबह पढ़ने के लिए शानदार इमारतों और सभी प्रकार की सुविधाओं से लैस शिक्षण संस्थाओं में जाते हैं। इनमें भारत जैसे विकासशील देश भी हैं और अविकसित भी। इनमें शिक्षा के भव्य भवन भी मिल जाएंगे और मकान, दुकान, हवेली, पुराने जर्जर घर में बने स्कूल भी, जो सर्व शिक्षा अभियान या ऐसी ही किसी सरकारी योजना से अनुदान या सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से गली-मोहल्लों में बना लिए जाते हैं। इनमें पैसा लगाने वाला कभी सामने नहीं आता, परन्तु किसी नामी-गिरामी शिक्षक या जिसने पढ़ाने की ट्रेनिंग ली हो, बीएड या एमएड हो, को आगे कर दिया जाता है। उसका प्रमुख काम यह होता है कि पढ़ाई-लिखाई चाहे न हो लेकिन सरकारी सुविधाएं और गैर-सरकारी एनजीओ तथा विभिन्न उद्योगपतियों द्वारा स्थापित टैक्स बचाने के उद्देश्य से खोली गई चैरिटेबल संस्थाओं से धन की व्यवस्था करे। उसे भी पढ़ने-पढ़ाने से अधिक इन चीज़ों को जुटाने में अपनी भलाई दिखाई देने लगती है। इस तरह शिक्षक की आड़ में यह काला धन्धा फलता-फूलता रहता है।
सरकारी स्कूलों तथा उच्च शिक्षा संस्थानों में तो फिर भी कायदे-कानून का पालन होता है जिनमें केंद्रीय स्कूल भी आते हैं। इनमें शिक्षकों की नियुक्ति आसान नहीं होती। अपनी योग्यता और विश्वसनीयता सिद्ध करनी होती है। इनमें पढ़ कर निकले विद्यार्थी जीवन की दौड़ में थोड़ा आगे पीछे तो रह सकते हैं, लेकिन असफल नहीं होते। जो निजी तौर पर चलाये जा रहे शिक्षा संस्थान हैं, उनमें उंगली पर गिने जा सकने वाली विश्व प्रसिद्ध इकाईयों को छोड़ कर बाकी सब की हालत यह है कि उनमें से निकले विद्यार्थियों को उन्हें मिली डिग्री की बदौलत कोई भी नौकरी देने को तैयार नहीं होता। कारण यह कि वे किताबी कीड़ा और वह भी बाबा आदम के ज़माने में लिखी गई और अब तक दीमक द्वारा चाट ली गई पठन सामग्री की रटंत विद्या के अनुगामी होते हैं। यदि इनमें से कोई विद्यार्थी मात्र अपने गुणों और योग्यता के आधार पर मेरिट लिस्ट में आ जाता है तो ये संस्थान उसका पूरा श्रेय स्वयं ले जाते हैं और ढोल पीटने लगते हैं कि देखिए हमारे यहां के शिक्षक कितने गुणी हैं कि इस प्रकार के मेधावी विद्यार्थी उनके संस्थान से निकले हैं। 
शिक्षा का चक्रव्यूह 
शिक्षा के व्यावसायीकरण के नाम पर इस व्यापार के बाज़ार में इन घटिया संस्थानों की फीस इतनी बढ़ जाती है कि सामान्य आमदनी वाला व्यक्ति हसरत भरी निगाहों से इनके विशाल परिसरों को देखकर मुग्ध तो हो सकता है, लेकिन अपने बच्चों को उनमें पढ़ाने का सपना तक नहीं देख सकता। वैसे आम आदमी के लिए यह अच्छा ही है कि वह इस झंझट में नहीं फंसता और परिवार तथा दोस्तों रिश्तेदारों के ताने भी सह लेता है कि अपने बेटे या बेटी को किसी बड़े स्कूल में भी नहीं पढ़ा सकते। वे गर्व से बताते हैं कि उनके बच्चे को कितनी मुश्किल से इनमें दाखिला मिला और देखिए कितनी सुविधा है कि सब कुछ स्कूल या यूनिवर्सिटी से मिलता है, घर पर ट्यूशन के लिए भी वहीं से शिक्षक आ जाते हैं, बस खर्च हो जाता है। यह भी जोड़ देते हैं कि इतनी कमाई किसके लिये कर रहे हैं, बच्चों का भविष्य बनाने के लिए ही न। 
हमारे देश में विश्वविख्यात और श्रेष्ठ शिक्षकों की कभी कोई कमी प्राचीन काल से ही नहीं रही है। उन्हें आज भी याद किया जाता है। हद तो तब हो जाती है जब उनके नाम का इस्तेमाल शिक्षा के बाज़ार में अपनी साख बनाने के लिए किया जाता है। गौतम बुद्ध, कौटिल्य या चाणक्य, स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु राम कृष्ण परमहंस, रवींद्र नाथ टैगोर, सावित्री बाई फुले, मदन मोहन मालवीय और अपने वैज्ञानिक शिक्षक राष्ट्रपति रहे ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, इनके नाम पर धूम-धड़ाके से चल रही शिक्षा की दुकानें पूरे देश में कुकुरमुत्तों की तरह बिखरी दिखाई दे सकती हैं। उनकी बड़ी बड़ी मूर्तियां और विभिन्न अवसरों पर उनके माल्यार्पण के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, शिक्षकों को सम्मानित किया जाता है और इसके बदले उनसे अपने संस्थान की प्रशंसा में कुछ वाक्य बुलवाए जाते हैं। इन दुकानों में परिवार के ही लोग कुलपति, उप-कुलपति, डीन, प्रोफेसर जैसे गौरवशाली पद अपने नाम कर लेते हैं और देश विदेश में शिक्षा सेमिनारों, सम्मेलनों में धन-बल से अध्यक्ष या किसी पुरस्कार से सम्मानित होते रहते हैं। 
जांच परख 
एक पैमाना है। दुनिया में ऐसे बहुत-से देश हैं जिनके शिक्षकों, वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिए नोबल पुरस्कार पाने वालों की संख्या सैकड़ों में है। हर साल पुरस्कृत व्यक्तियों का ग्राफ बढ़ता ही जाता है। हम अभी तक एक दहाई यानी दस की संख्या तक ही पहुंच पाये हैं और उनके बल पर अपनी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षकों की गुणवत्ता का गुणगान करते रहते हैं। हमारे यहां शिक्षकों को मैनेजमेंट और प्रशासनिक कार्यों में लगा दिया जाता है। नौकरी की सुरक्षा का डर उनसे यह सब करवा भी लेता है। उनके अंदर का उत्साह, उनका धैर्य, विद्यार्थियों से जुड़ाव यह सब जवाब देने लगता है। यही कारण है कि अब शिक्षकों के रोल मॉडल नहीं मिलते। जिन्हें मेंटर या मार्गदर्शक कहा जा सकता हो, वे दिखाई नहीं देते। ऐसे शिक्षक तो अब मिलते ही नहीं जो जीवन भर अपने पढ़ाये हुए विद्यार्थियों के साथ सम्पर्क बनाए रखते हों या जब उनकी सहायता की ज़रूरत हो तो उनके पास आसानी से जाया जा सकता हो। 
अंत में 
कहते हैं कि सीखना या शिक्षा ग्रहण करने की प्रक्रिया जीवन भर चलती है। कोई न कोई सीख देने वाला मिल ही जाता है जिसकी भूमिका शिक्षक से कम नहीं होती। ऐसा भी होता है कि आपने किसी व्यक्ति को श्रद्धा और सम्मान से अपना गुरु बनाया और उसी ने वह सबक सिखाया जो जीवन भर नहीं भूलता। शिक्षक के रूप में बहुत से ढोंगी और पाखंडी भी मिलते हैं जिनकी कुटिलता हमें छल-फरेब को बेनकाब करने में बहुत काम आती है। कई बार तो सब कुछ लुटाकर होश में आने जैसी बात हो जाती है। विश्व शिक्षक दिवस पर यही कामना है कि सिखाने वाले इस योग्य मिलें जो अच्छे-बुरे, सही-गलत और झूठ तथा सच की कसौटी समझा सकें।