अधूरे सपनों के बॉयस्कोप

बहुत-सी बातें जो पहले पसन्द थीं, अब बिल्कुल नहीं होतीं। पहले कवि राबर्ट फ्रास्ट के वे जंगल थे, जो बहुत मोहते थे, जो मनभावन थे, सायेदार थे, और गहरे एकान्त से भरे थे। वहां मीलों चलना था। अब जंगलों के करीब आते डर लगता है। घुमावदार सड़कों, और बहुमंज़िली तिलिस्म जैसी इमारतों वाले महासागर जो आदमखोर जंगलों से लगते ही नहीं, बन चुके हैं। जो विकास के नाम पर अपनी दानवाकार बाहों में टूटी झुग्गी-झोपड़ियों को समेट लेते हैं। उनकी ऊंची मंज़िलों से आती डिस्को संगीत की ध्वनि फुटपाथों पर किसी डफली के बजने की गुंजायश नहीं छोड़ती। अपने दिल का हाल किसे सुनायें। फुटपाथों का तो अतिक्रमण हो गया। अब वहां पुरानी कारों और स्कूटरों के फुटपाथी बाज़ार सज गये हैं और फुटपाथ पर जीने वाले लोग अपनी बुलडोज़र कर दी गई बस्तियों में टैंट लगा कर पड़े हैं। किसी अगले चुनाव का इंतज़ार कर रहे हैं। जब उनके वोट बटोरने के प्रचार की चार दिन की चांदनी में उनकी सुन लेने का वायदा कर दिया जाएगा।
भाषा के अर्थ बदल गये हैं, क्योंकि उनके द्वारा व्याख्या करने वाली परिभाषायें ही बदल दी गई हैं। अब जंगलों में क्रांति धर्मी सीना तान कर दहाड़ते हुए शेर नहीं मिलते, बल्कि ज़माना रंगे सियारों का है, जो आज आपके लिए जीवन भर साथ निबाहने की कसमें खाते हैं, कल किसके हो जाएंगे, कुछ पता नहीं। आज आया राम से गया राम हो जाना कोई गाली नहीं, ज़माने के साथ चलना हो गया है। जो ज़माने के साथ न चल सके, वह मीलों चलने के बाद भी इन आदमखोर जंगलों में कहीं खो जाता है। कहते रहे राबर्ट फ्रास्ट कि अभी मुझे सोना नहीं, मीलों चलना है। जो वायदे किये थे, उन सबको निभाते हुए चलना है। कौन से वायदे? हर घोषणा-पत्र के अपने-अपने वायदे हैं, और अपनी-अपनी गारण्टियां हैं। नया युग इन्हें पूरा करने का नहीं। एक सपने के बाद दूसरा सपनों का बॉयस्कोप दिखाने का है। अधूरे सपनों का बॉयस्कोप, क्योंकि सपनों को कभी पूरा तो होना ही नहीं है। आपके ज़िन्दा रहने की यही निशानी है, कि आप एक अधूरा सपना देखने के बाद दूसरा अधूरापन जीने लगते हैं। इसे ही पूर्ण मान कर अपने समय के मसीहाओं का जयघोष कर देते हैं। नव-निर्माण की आमद का वह उत्सव मनाने लगते हैं, कि जिसका प्रवेश अभी अढ़ाई दशक के बाद होगा।
आप रियायती राशन बांटते हुए दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बन जाने की घोषणा करते हैं। पहले पांचवीं महाशक्ति, फिर तीसरी और खुदा ने चाहा तो अपनी आज़ादी की शताब्दी मनाते हुए आप दुनिया की सर्वोपरि आर्थिक शक्ति भी हो सकते हैं। निरन्तर ऊंचे होते प्रासादों के कंगूरों वाली महाशक्ति, कि जिस शक्ति की तीन चौथाई आबादी की रोज़ी-रोटी का ठिकाना नहीं, जो इस दिलासा पर जीती है कि किसी को भूख से नहीं मरने दिया जाएगा। हर आर्थिक दुरावस्था के महाकाल में आश्चर्यजनक वृद्धि हो जाती है। बड़े दरिया-दिल हैं ये खरबपति, जो दुनिया की इस सबसे बड़ी आबादी वाले देश की तीन चौथाई जनता को अनुकम्पाओं की बरसात से नहलाते हैं। उनकी भूख मिटाने के लिए साल-दर-साल रियायती गेहूं जुटाते हैं।
तेज़ी से तरक्की करते देश में रिकार्ड बनता है, शायद अनन्त काल तक के लिए किसी को भूख से नहीं मरने दिया जाएगा। इसलिए रियायती गेहूं आज बंटता है, कल भी बंटता रहेगा, और आने वाले सब दिनों में भी। विश्व के इन नये आंकड़ों की परवाह न करना कि दुनिया के इस सबसे युवा देश की आधी आबादी कोई काम नहीं करती। यहां आराम हराम है कि जगह ‘काम हराम है’ का नारा लगता है। पनपती हुई मुफ्तखोर संस्कृति के मसीहा अब आपके लिए शार्टकट की चोर गलियां सजाते हैं। ये कहीं आइलेट अकादमियों के रास्ते अमरीका जाते-जाते यूगांडा पहुंचा देती हैं। कहीं पलायन की कोई नाव न पकड़ पाने के बाद अपने  आस-पास पसरे जंगलों को अवैध नशों के कारोबार का विस्तार मान लेती हैं।
यहां सहकारिता की भावना के साथ लोगों को रोज़गार देने वाले लघु और कुटीर उद्योगों का विस्तार तो आमजन को मिला नहीं, लेकिन देश के डिजिटल हो जाने की घोषणा के साथ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ठगी के विभिन्न रूपों का कारोबार अवश्य शुरू हो गया। कृत्रिम मेधा और रोबोट युग का देश  में बड़े पैमाने पर आगमन हो गया है। राष्ट्र के कर्णधार गर्व के साथ हमें बताते हैं, लेकिन इस युग का इस्तेमाल लागत घटाने के लिए नौकरियों से छंटनी के रूप में हो रहा, दूसरी ओर ठगी के कारोबार के नये रास्ते खोलने में हो रहा है। कला हो या साहित्य, राजनीति हो या धर्म। जो ठग नहीं, वह सच नहीं।
अब बेटा-बेटा कह कर बनावटी आशीर्वादों के साथ लोगों को गले से लगाइए, और सोशल मीडिया में इनकी खबरें प्रकाशित करवा कर जश्न मनाइए। इसलिए तो जन-सेवा से अधिक सार्थक हो गया है जन-सम्पर्क। इनाम प्राप्त करने के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है, लोगों में इनाम बांटते हुए उनकी पीठ थपथपाने का शुभ-कर्म। योजना परियोजना पूरी हो न हो, उनके शीर्षकों में वृद्धि होती है, क्योंकि लोग आजकल शीर्षकों में जीते हैं। नीचे क्या तथ्य है, इसे पढ़ने का कष्ट कौन करता है? सफल जीने का एक ही उचित मार्ग है, कष्टहीन हो जाइए।